भरपाई-तुरपाई / ममता व्यास
उस छोटे से गाँव में एक ही खेल का मैदान था। सभी युवा लड़के रोज उस मैदान पे जमा होते और कोई न कोई खेल खेलते। ये मैदान बस्ती से बहुत दूर था। दूर -दूर तक कोई घर नहीं थे, न कोई घना छायादार पेड़ जहाँ बैठकर वो सुस्ता सकें। उस उजाड़ और वीरान जंगल में सुस्तानें या छाँव के लिए कोई जगह थी तो वो अम्मा की झोपड़ी थी और उसका आंगन था।
वे सब जब भी खेल कर थक जाते और पसीने में लथपथ होजाते तो दौड़कर उस झोपड़ी के पास पहुँच जाते। जो मैदान के ठीक सामने बनी थी। जहाँ नीम, पीपल और बरगद के पेड़ एकसाथ लगे थे। एक चबूतरा था और कुछ पौधे लगे थे। ये झोपड़ी एक बुढ़िया की थी जिसे सभी 'अम्मा” कहते थे। कोई नहीं जानता था कि वो इस जंगल में कब से रह रही थी।
बच्चे जब उसके आँगन में सुस्ताते थे तो वो बूढी अम्मा उन्हें मिट्टी के घड़े का ठंडा पानी पिलाती थी। उस जलते, तपते, चुभते जंगल में दूर -दूर तक कहीं पानी का नामोनिशान नहीं था। अम्मा सुबह जल्दी उठकर दो कोस दूर चलकर जाती थी और कुंएं से पानी भर कर लाती थी। अम्मा का ये घड़ा बरसों पुराना था। वो ये सुन्दर सुनहरा घड़ा अपने पिता के घर से लायी थी। जिसमे वो रोज पानी भरकर अपने आँगन में रखती थी। इन प्यासे बच्चों का वो रोज इंतजार करती। कभीकभार वो कुछ खाने की चीजे भी उन्हे देती थी। अम्मा का दुनिया में कोई नहीं था, बस ये बच्चे ही उसकी दुनिया थे। उन बच्चों और अम्मा के बीच ये मीठे पानी का घड़ा एक पुल का काम करता था। वो अपनी प्यास को लेकर उस घड़े तक आते थे और बदले में अम्मा के होठों पे मुस्कान धर जाते थे।
अम्मा का ये स्नेह और घड़े का मीठा और ठंडा पानी उन सभी थके मांदे लड़कों में दौगुनी उर्जा भर देता था। वो पल भर में अपनी थकान भूलकर फिर से ताजा हो जाते और खेलने पहुँच जाते। अम्मा और उनकी ज्यादा बातचीत नहीं होती थी। कई बरसों से ये सिलसिला चला आ रहा था। अम्मा का दुनिया में कोई नहीं था। सिवाय अपने पिता की यादों के ..अक्सर वो उन्हें याद करती और वो सुनहरे मिट्टी के घड़े को छूकर उनके होने को महसूस करती थी। उस घड़े का पानी बहुत मीठा और शीतल था, हर आने जाने के लिए वो उस उजाड़ जंगल में अमृत जैसा लगता था।
उस वीरान जंगल में और अम्मा की सूनी झोपड़ी में रौनक तब ही आती जब वे सब लड़के प्यास से तड़पते हुए आते और शोर मचाकर आपस में बातें करते। पानी पीते और तृप्त होते। उन बच्चों के लिए रोज बस्ती के कुंए से पानी लाना और घड़े में भरकर उनका इन्तजार करना यही अम्मा का रोजगार था और शायद जीने की वजह भी।
उस दिन, वे सब लड़के क्रिकेट खेल रहे थे, आज उनके बीच बहुत उत्साह था आज उनका फाइनल मेच था। वे सब सुबह से ही खेल में व्यस्त थे। और आज वे बीच में एकबार भी पानी पीने नहीं आये थे। बीच में कई लड़कों ने प्यास लगने पर कप्तान से पानी पीने की आज्ञा मांगी थी लेकिन कप्तान ने सभी को मेच के बाद पानी पीने की हिदायत दी थी। अम्मा सुबह से कई बार आकर देख गयी थी, घड़ा सुबह से चुपचाप घिनौची (स्टेंड) पे रखा हुआ था। आज सुबह से पानी की एक बूंद भी नहीं छलकी थी। अम्मा के साथ आज घड़ा भी सुबह से उदास था।
वो बार -बार आकर देखती और शोर मचाते, लड़ते उन बच्चों को देख मुस्कुरा देती और मन ही मन कहती” कितनी तेज धूप है कितने प्यासे होंगे सब ....क्यों नहीं आये आज”
अम्मा का मन आज न जाने क्यों सुबह से बहुत व्याकुल था, आखिर परेशान होकर वो जाकर चटाई पे सो गयी।
सभी लडके बहुत उत्साह से खेल रहे थे आखरी ओवर था और आखरी गेंद, दोनों टीमों के भाग्य का फैसला ये आखरी गेंद पे लिखा था। गेंदबाज ने बहुत ही जोश और उर्जा के साथ आखरी गेंद फेंकी और उसी गेंद पे बल्लेबाज ने एक चौका मार दिया। सभी लड़के जीत की ख़ुशी में चिल्ला उठे लेकिन अगले ही पल”तड़ाक” की आवाज हुई। दरअसल बल्लेबाज ने गेंद इतनी जोर से उछाली कि वो सीधे -सीधे अम्मा के आँगन में रखे घड़े पर लगी।
पलभर में वो सुनहरा मिट्टी का घडा टुकड़े- टुकड़े हो गया। आवाज सुनकर अम्मा बाहर आई।
सभी लडके जीत -हार को भूलकर दौड़े चले आये। सभी अवाक् थे। इस घटना से अम्मा भी स्तब्ध थी। अम्मा के लिए बरसों पुराना घडा टूट जाना किसी भयानक सदमे से कम नहीं था। वहीं दूसरी और उन सभी लड़कों के लिए भी ये घटना किसी दुर्घटना से कम नहीं थी।
वो सब प्यास से अब भी व्याकुल थे आज उन सभी ने अपनी प्यास को सुबह से रोक कर रखा था और प्रण किया था कि खेल के समाप्त होने पर ही अम्मा के घर जायंगे। सुस्तायेंगे और मीठे और ठंडे पानी से अपनी प्यास बुझाएंगे। लेकिन इस घटना ने सभी को भीतर तक हिला दिया था।
अगले ही पल, सभी लड़कों ने उस बल्लेबाज को मारना शुरू कर दिया,लग रहा था वो उसे मार ही डालेंगे गुस्से में। वे सब इतने दुःख में थे कि उनके जीवन की कोई बहुत कीमती चीज टूट गयी हो। और वो उसे मारकर अपनी प्यास, अपनी तड़प और चुभन खतम कर देना चाहते थे। अम्मा ने उन लोगो को अलग किया उस लडके को बचाया और झोपड़ी के भीतर चली गयी।
उस दिन उस जंगल में शमशान जैसी शांति छा गयी थी। सभी जानते थे अम्मा के लिए वो घडा उनके पिता की निशानी था। और अम्मा बरसों से उस घड़े को संभालती आई थी।
ये सब इतनी तेजी से और अचानक से हुआ कि किसी को कुछ समझ नहीं आया, थोड़ी देर में वे सब लडके भारी मन से चले गए। अम्मा भी भीतर चली गयी। लेकिन वो लड़का जिसकी गेंद से घडा टूटा था वो मन ही मन बेहद दुखी था और अपराधबोध से भरा हुआ था। उसे मन ही मन अपार दुःख था कि उसकी गलती की वजह से अम्मा का घड़ा टूट गया था। अब वो कभी भी उसे माफ़ नहीं करेगी। अब वो कभी भी मीठा और शीतल जल नहीं पिलाएगी और अब हम कभी भी इन पेड़ों की छाँव में नहीं बैठ सकेंगे। वो मन ही मन दुःख और ग्लानी से भरा हुआ, सोचता हुआ, बोझिल कदमों से बस्ती के और चल दिया।
कई दिनों तक कोई भी लड़के उस मैदान की तरफ नहीं आये, लेकिन वो लड़का बिना नागा किये रोज उस झोपड़ी के पास आता था। वो चाहता था अम्मा उससे बात करे लेकिन अम्मा भीतर ही रहती थी।
कई दिनों तक अम्मा बाहर नहीं आई, अम्मा को समझ नहीं आ रहा था कि एक मिट्टी के घड़े के टूट जाने से उसकी जिन्दगी में इतना खालीपन अचानक से कैसे फ़ैल गया? वो रोज दो कोस दूर जाना, गहरे कुंएं से पानी खींचना और फिर घडा भरकर, पथरीले,काँटों भरे रास्तों पे पैदल चकर आना रस्ते भर घड़े को जतन से संभालना ये सब रोजगार अब छूट गया था।
जीवन भर अम्मा ने उस मिट्टी के घड़े को बहुत सावधानी से संभाला था। बरसात में, फिसलते रास्तों पे, आंधी तूफान में भी उसने हमेशा ही उसने पिता के दिए उस अनमोल घड़े को बड़ी सावधानी से टूटने से बचाया था। आज वो घर के आँगन में सुरक्षित स्थान पे रखे हुए, अचानक से यूँ भरा भराया, टूट जायेगा सोचा न था
आज अम्मा को अपने पिता की बात याद आई” हर चीज के जाने का एक तयशुदा समय होता है जब उसे जाना होता है वो चली जाती है”
अम्मा को घड़े के टूटने से ज्यादा इस बात की पीड़ा थी कि अब वो उन प्यासे बच्चों को पानी नहीं पिला सकेगी। तीन दिन से अम्मा ने अपनी झोपड़ी का दरवाजा भी नहीं खोला था। आज जब उसने दरवाजा खोला तो वही लड़का चबूतरे पे बैठा मिला।
अम्मा ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया, एकबार उस लडके को देखकर उसके मन में घड़े की याद बुरी तरह घिर आई थी, लेकिन अम्मा ने खुद को सम्भाल लिया था।
लड़का अपराधबोध से इस कदर घिरा हुआ था कि वो रोज इसी तरह बिना नागा किये आता और अम्मा के आँगन में बैठ जाता।
एक दिन अम्मा से रहा नहीं गया वो पूछ बैठी” क्यों आते हो रोज -रोज यहाँ?”
"मेरी वजह से वो घड़ा टूट गया आपका नुकसान हुआ है” (लड़का धीमे स्वर में बोला)
“तुम्हारे यहाँ रोज आने से उस नुकसान की भरपाई हो जाएगी क्या?”
“तुम अपराधबोध से क्यों घिरते हो, मिट्टी की चीज थी उसे एकदिन टूटना ही था, मुझे तो ख़ुशी है कि मुझे अब दो कोस पैदल चलकर नहीं जाना पड़ेगा। अम्मा जोर सी हंसी और उसकी हंसी से वीरान जंगल में संगीत गूंज उठा। फिर अगले पल उदास होकर बोल पड़ी” सुनो ...तुम जितनी बार आओगे उतनी बार मुझे अपने उस टूटे घड़े की याद आएगी इसलिए आज के बाद यहाँ मत आना”ये कहकर अम्मा ने अपनी झोपड़ी का दरवाजा बंद कर दिया। उस रात अम्मा को अपने पिता की बहुत याद आई अब उसके पास अपने पिता की कोई निशानी नहीं बची थी।
अम्मा नीमबेहोशी में थी उसे लगा उसके पिता उसके पास आये हैं और मुस्कुराकर कह रहे हैं” बेटा, याद है तुम्हे जब मेरा कुरता पुराना होकर फट जाता था तो तुम उस पर रफू कर देती थी और किसी को दिखाई भी नहीं देता था। इसीतरह हमें हमारे खुले जख्मों की तुरपाई करना आना चाहिए। बीते रिश्तों की भरपाई करना आना चाहिए।
जख्मों की सिलाई अगर मुंह चिढ़ाएं तो उस पर सुन्दर गोदना बना लेना, रात के बचे खाने से सुबह नया व्यंजन बना लेना, ये हुनर है और मैं जानता हूँ तुम उस टूटे घड़े का भी कोई न कोई उपयोग कर लोगी”
अगली सुबह अम्मा ने उस टूटे घड़े के आधे हिस्से में पानी भरकर उसे चबूतरे पे रख दिया। अब रोज पक्षी आकर वहां जमघट लगाते हैं। पक्षियों की चहचहाहट से अम्मा के होठों पे मुस्कान खिलती है। जिन्दगी यूँ भी चलती है...