भरोसा / बलराम अग्रवाल
शाम होते-होते इलाके में कर्फ्यू लागू कर दिया गया था।
रात होते-होते बाप-बेटे के दिमाग में पड़ोसी को फँसा देने की योजना कौंधी।
“इस साले का घर फूँक डालने का यह बेहतरीन मौका है पापा।” बेटा बोला,“ना रहेगा बाँस और ना…”
“उल्लू का पट्ठा है तू।” बाप ने उसे झिड़का,“घर को आग लगाने से बाँस खत्म नहीं होगा…मजबूत हो जाएगा और ज्यादा।”
“कैसे?”
“मुआवजा!” बाप बोला,“इन्हें तो सरकार वैसे भी दुगुना देती है।”
“फिर?”
“फिर क्या, कोई दूसरा तरीका सोच।”
दोनों पुन: विचार-मुद्रा में बैठ गए।
“आ गया।” एकाएक बेटा उछलकर बोला। बाप सवालिया नजरों से उसकी ओर देखने लगा।
“उसके नहीं, हम अपने घर को आग लगाते हैं।” बेटे ने बताया,“स्साला ऐसा फँसेगा कि मत पूछो। साँप भी मर जाएगा और…”
“बात तो तेरी ठीक है…” बाप कुछ सोचता-सा बोला,“लेकिन बहुत होशियारी से करना होगा यह काम। ऐसा न हो कि उधर की बजाय इधर के साँप मर जायँ और बराबर वाले की बिना कुछ करे-धरे ही पौ-बारह हो जाय।”
“उसकी फिकर तुम मत करो।” वह इत्मीनान के साथ बोला,“आग कुछ इस तरह लगाऊँगा कि शक उस के सिवा किसी और पर जा ही ना सके।”
यह कहते हुए वह उठा और बाहर का जायजा लेने के लिए दरवाजे तक जा पहुँचा। बड़ी सावधानी के साथ बे-आवाज रखते हुए उसने कुंडे को खोला और एक किवाड़ को थोड़ा-सा इधर करके पड़ोसी के दरवाजे की ओर बाहर गली में झाँका। उसकी साँस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई जब अपने मकान के सामने गश्त लगा रहे पड़ोसी चाचा ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया।
“ओए, घबराओ नहीं मेरे बच्चे!” उसे देखते ही वे हाथ के लट्ठ से जमीन को ठोंकते हुए बोले,“जब तक दम में दम है, परिंदा भी पर नहीं मर सकता है गली में। अपने इस चाचा के भरोसे तू चैन से सो…जा।”