भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो / प्रतिभा सक्सेना
मनोजगत में रहनेवाले सूर, को स्वर्ग में कुछ मज़ा नहीं आ रहा। आँखों से देखने की आदत दुनिया में छूट चुकी थी। कृष्ण की लीलाओं में विभोर मन नित प्रति नई संभावनाओं में खोया रहता था पर स्वर्ग तो स्वर्ग ठहरा! जो चाहें एकदम हाज़िर। जब कोई अभाव नहीं कोई कमी नहीं तो कल्पनाएँ कुंठित होने लगीं। मनचाहा जब असलियत में सामने आ जाये तो उसमें वह आकर्षण कहाँ! जहाँ कोई कल्पना की, चट् साकार हो गई, कोई कामना जागी तुरंत पूर्ण। जब कोई कमी नहीं, हर चाह उठते ही कामना की पूरी तो तृप्ति का आनन्द कहाँ
आखिर क्या करें? रचें तो कैसे रचें पद? मनोमय कोष के सारे तंतु व्यर्थ पड़े हैं।कृष्ण तो यहीं हैं, जहाँ याद करो प्रकट, पर सोचना तो पड़ता है न कि उनके अपने काम-धंधे होंगे। यहाँ हर समय याद भी नहीं किया जा सकता। वहाँ के सारे मज़े खतम कि चाहे जो सोचो, मनचाही कल्पनाएँ करों लीन रहो अपने आप में। यहाँ तो ज़रा कोई बात मन में आई सब पर ज़ाहिर।
अपने आप में कुछ कर ही नहीं सकते, हुँह। यह भी कोई ज़िन्दगी है? ऐसी सार्वजनिक जीवन में क्या मज़ा!
यहाँ से तो वो दुनिया अच्छी, मनमाने ढंग से रह तो सकते थे।काफ़ी सोच-विचार के बाद पहुँच गए वल्लभाचार्य जी के पास
बोले, ’प्रभु, मैं बिरज -भूमि जान चाहत हौं।’
वल्लभाचार्य जी कुछ चौंके, ’काहे सूर, जे अचानक का हुइ गवा है?
सूरदास ने कहा, ’ अचानक नाहीं प्रभो, मोहे बहुत दिनन से बिरज की भौत याद आय रही है।।।'
'समय कहूँ रुकत है? बीत गयो सब, बदल गयो है सब। अब कुछू नाहीं मिलि है उहाँ।'
'काहे? उहै पावन भूमि मोहन को चिर-निवास है। राधा-मोहन, गोपी-ग्वाल, वह जमुना, उहै गोवर्धन गिरि, सबै कुछ उहैं है। तब भी कलजुग रहे, तब हतो सो अब कहाँ जैहे। ऊ सब तो चिरंतन है, बीत कैसे सकित है? मथुरा नगरी तीन लोकन से न्यारी और वृन्दावन।।' कहते-कहते भावातिरेक से आकुल हो उठे सूर।
वल्लभ स्वामी चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। सोच रहे हैं इस बावले से कहने से क्या लाभ १
फिर भी कह उठे -
'बीत गयो वह जुग, अब कलजुग ने पग बढाय सब समेट लियो है। तुम जो चाहत हो कुछू नाहीं बच्यो।’
’जो बीत गयो सो बीत गयो। उन युगन में अब काहे जीना चाय रहे हो?’
आचार्य जी सोच रहे थे तब भी प्रज्ञा-चक्षु थे। संसार देखा ही कितना! जो लिखा वह कितना वास्तविक था कितना अनुमान और कल्पना। मोहित मानस में जो उदित होता गया रचते गये। मोहन की माया में रमा चित्त कमनीय कल्पनाओं में विभोर रहा, और नये-नये चित्र आँकते गए सूर।
कीर्तन की बेला में नित्य नवीन रूप उदित हो जाता और वाणी संगीत के सुरों में बाँध अंकित कर देती। रात-दिन उसी के माधुर्य में डूबे, मनोजगत में वही दृष्य निहारते रहे।बाह्य जगत से मतलब कहाँ रहा था। उनकी दुनिया वही थी गोपाल और उनकी लीला-कला।
कुछ समय बीत गया, फिर एक दिन सूर कह उठे, ‘प्रभू, बिरज की भूमि- दरसन की चाह चैन नाहीं लेन दै रही।’
'च्यों सूर, का होयगो हुअन जाय के। अब उहाँ वैसे कुछ नहीं बच्यो है।
हर दूसरे-तीसरे वही राग, जैसे धुन सवार हो गई हो!
सूर समझते ही नही, अपना राग पूरे बैठे हैं।
वल्लभस्वामी परेशान! कैसे प्रबोधें इस बावले को, जो सोचना-समझना नहीं चाहता।
बावला हुइ गयो है, बीते जुगन को जियो चाहत है। जियत तो तबहूँ बीते जुगन को हतो, पर तब सूर रह्यो, नादान!
पर अब बुद्धि आय गई है सोचन की -विचारन की।
कैसे समझाएँ महाप्रभु।यह समझ ही तो है जो कभी चैन नहीं लेने देती। दुख को कारन इहै है।
काल का प्रवाह कहीं रुका है! कितना पानी बह चुका तब से जमुना में। अब तो लगता है पानी ही चुक गया। जमुना क्या जमुना रह गई हैं? कुछ भी नहीं वैसा! मथुरा -वृंदावन, कुरुक्षेत्र कहीं कुछ है? सब बीत चुका है। पर ये है कि मानना नहीं चाहता और झक्क लगाये बैठा है। अब कहाँ वह वृन्दावन, और कैसी मथुरा! कहाँ द्वापर और कहाँ घोर कलियुग। जो बीत गए उन युगों में जीना चाहता है पागल। बाहर की दुनिया देखी नहीं भीतर उतरते चले गए।
'महाप्रभु, इन चरनन को मोहे बड़ो भरोसो है।’
'सो तो है सूर। पर तुम काहे घिघियात हो। उहाँ पर तो सूर हते सूरै बन के रहे।
अब हुआँ कछू नाहीं धरो।’
फिर सोच कर बोले -
सारो संसार भीतर समायो है। चित्त एकाग्र करो सब मिल जैहे।’’
'महाप्रभु, मोहे इन चरनन को दृ़ढ़ भरोसो है’
सो तो है सूर!
अरे, भक्ति करो पर ये किसने कहा कि बुद्धि को ताक पर रख दो! कुछ तो संतुलन चाहिये ही!
पर कौन समझाये उसे!
जब दुनिया में था तब की तरह अब भी सोचता है।
'ठीक है सूर, मिल आओ अपने प्रभु से। हुई जैहे परबंध।'
बाकी खुदै बिचारि लेहु, बीतो जुग अब उहाँ कहाँ?’
'लीला-भूमि तो उहै न?’
'ठीक है सूर, देख आओ जा कर। कर आओ उस लीला-भूमि का साक्षात्कार।’
आचार्य जी ने अपनी ऊँची पहुँच से सारी व्यवस्था करवा दी।
मगन हो गये सूर!
ब्रजभूमि, जमुना तट, कदंब, तमाल!
गोप-गोपी, राधा अब वहाँ कहाँ होंगे। सोचते रहे आचार्य।
थे तो तब भी नहीं। पर तब दुनिया वहाँ नहीं थी जहाँ आज पहुँच गई है।
हाँ, लीला भूमि का नाम अभी भी है।
जाने किन सपनों में खो गए भक्त-राज!
बस अब तो जाना है उसी लीला भूमि में। साक्षात् होगा उन्हीं सबसे जिन्हें छोड़ कर चले आये थे।
'खंजन नयन रूप रस माते'
चलते समय की वह मनोदशा -सारी वृत्तियाँ लीन हो गईं थीं जिसमें।
अब फिर नए सिरे से वही निरूपण!
आ गए धरती पर। चकराए से खड़े हैं सूर
पता नहीं कहाँ आ गए?
अजीब सी दुर्गंध छाई है -कुछ खट्टरखट्ट बराबर चल रहा है। काहे की आवाज़ें?
कहीं से उत्तर आया, ’ अरे, कारखाना लगा है। उसी की महकें और शोर!’
'हे कृष्ण, हे मुरारी!’
तब दृष्टि नहीं थी अब दर्शन करना चाहते हैं सूर, उस पावन धरा-खंड के।
पर यह क्या? धूल उड़ रही है चारों तरफ़, हरियाली कहाँ? जमुना-जल -कैसा धूसर हो रहा है। यह क्षीण धारा। जल है क्या?। कैसी हो गईं जमुना।
कहाँ है वह शीतल, निर्मल पावन जल?
नहीं, ई नाहीं ब्रज-भूमि, कहूँ और आय पर्यो हूँ?
आँखें बंद कर लीं। नहीं, आँखे नहीं खोलूँगा, अनुभूति हृदय करेगा।
पहले भी तो मानस में ही कौंधता था, श्याम का रूप उनकी क्रीड़ाएँ।चित्त को एकाग्र करने लगे।
अरे आज, यह यह क्या उदित हो रहा है?
मुँह से निकला -’हाय रे, जौ का पहिरे हैं ब्रजराज! जे पहरावा तो हम कबहूँ नाय देख्यो। कउन गत को नाहीं, मोटमोट टाट जइस कपरा, मार उड़ोसो रंग और हाथन में जे का है? बाँसुरी तो लगत नाहीं।, , ’
जौ का पहिरायो है ब्रज राज को? एक मोटे कपड़े का फटुल्ला-सा चिपका-चिपका पाजामा,
ऊपर से अजीब शक्लोंवाली सदरी, सदरी भी नहीं, गले पर कुछ उठा-उठा, और कमर से कुछ ही नीचे तक।।
न पीतांबर, न बाँसुरी, न वैजयन्ती माला, एक कान में बाली सी पहने, अरे इनके मकराकृति कुंडल कौनो चुराय लै गया का?’
अंदर से आवाज़ उठी-
'जीन्स, टी-शर्ट, हाथ में ये सेल-फ़ोन है न।
भक्तों ने नई धज बनाई है ब्रजराज की।’
चक्क रह गए सूर!
जे जीन्स और सर्ट पहराय दई है। आजकल के लौंडन की नाईं और हाथ में फ़ोन पकड़ाय दीन्हों।'
'फोन, ई का होत कौनो नई बाँसुरी है का?’
'जनतै ई नाईँ कुछू... इह में मुँह धर के कोई कित्तेऊ दूर होय बात करि सकत है।’
सूर चकित!
मन में उठा - हमसे बात कर सकित हैं?
समझ गये आचारज जी की बात-
नहीं, नहीं सहन हो रहा। नहीं देखा जा रहा।।
'ई सब देखन से अपनी आँखिन को फोड़िबो भलो।।।।’
पास पड़ी एक सींक उठा कर आँख फोड़ने को तत्पर होगए सूर,
अचानक ही हाथ पकड़ लिया किसीने।’ई का करत हो?'
खुल गए नेत्र।
तन्द्रा में चले गए थे सूर। कैसा अनुभव - परम विचित्र।
चाह की प्रबलता धरती पर खींच ले गई थी क्या।
नहीं, नहीं अब नहीं जाना है, नहीं देखना है कुछ।
पर कैसे बदल गया यह सब।
इहै तो चिरंतन लीला है! काल का दाँव नहीं चलता इस पर... फिर कैसे?
इस भौतिक संसार में कहाँ ढूँढ रहे हो सूर? चिरंतन लीला है -- पर मनोमय-कोश की।
कौन समझाए तुम्हें! यहाँ कुछ नहीं मिलेगा।
नहीं! कुछ नहीं!