भवन भी 'चरित्रवान' होते हैं / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भवन भी 'चरित्रवान' होते हैं
प्रकाशन तिथि :20 फरवरी 2018


यह सुखद आश्चर्य है कि 1958 में आइन रैंड के उपन्यास 'फाउंटेनहेड' पर बंगाली भाषा में फिल्म बनी थी, जिसका नाम है 'सूर्य तोरण।' सुचित्रा सेन ने नायिका डोमनिक की भूमिका अभिनीत की थी। गैरी कूपर अभिनीत हॉलीवुड की फिल्म 1947 में बनी थी। लेखिका आइन रैंड का जन्म 1905 में पोलैंड में हुआ था परंतु कुछ लोग उनका जन्म स्थान रूस बताते हैं और अगर यह सही है तो नियति का व्यंग्य देखिए कि पूंजीवादी व्यवस्था की हिमायत करने वाली लेखिका का जन्म कम्युनिज्म में आस्था रखने वाले देश में हुआ! उनका विचार इस तरह भी समझा जा सकता है कि एक शराबी, वेश्यागमन करने वाला ठेकेदार एक मकान दस लाख में पंद्रह महीनों में बनाता है और एक लोकप्रिय मानदंड पर चरित्रवान ठेकेदार बाहर लाख में दो वर्ष में बनाता है और दोनों इमारतों की मजबूती समान है तो 'चरित्रहीन' ठेकेदार से ही मकान बनवाना पसंद किया जाएगा। वह अपना काम जानता है और यही योग्यता उसका एकमात्र परिचय है।

आइन रैंड का यह भी विश्वास था कि प्रतिभावान व्यक्ति के लिए अदालती मानदंड भी अलग होने चाहिए गोयाकि वह कत्ल भी कर दे तो उसे जेबकतरे की सजा दी जाए। यह भी विचित्र संयोग है कि फ्योदोर दोस्तोव्हस्की ने भी अपने उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेंट' में ऐसा ही विचार अभिव्यक्त किया है। इसी उपन्यास से प्रेरित फिल्म रमेश सहगल की 'फिर सुबह होगी' भी थी, जिसमें साहिर लुधियानवी ने गीत लिखे थे और खय्याम साहब ने संगीत दिया था। इसमें एक गीत की कुछ पंक्तियां थीं, 'रहने को घर नहीं है, कहने को सारा जहां हमारा, जितनी भी इमारतें थीं, सेठों ने बांट ली हैं, जेबे हैं अपनी खाली, वरना क्यों देता गाली, वह पासबां (नौकर) हमारा, वह संतरी हमारा।' आज भी हुक्मरान सारे जहां को अपना बता रहे हैं और आज भी लाखों लोग बेघरबार हैं। पांचवें, छठे दशक में भी अनगिनत युवा बेरोजगार थे और आज भी लोगों के पास काम नहीं है। भारत में युवा वर्ग की संख्या विश्व में सबसे अधिक है और बेरोजगारी भी सबसे अधिक है।

बहरहाल, प्रतिभावान व्यक्ति के लिए अलग दंड विधान समानता के महान आदर्श के विरुद्ध जाता है। अत: दंडविधान का श्रेणीकरण नहीं किया जा सकता।

उपन्यास की पृष्ठभूमि वास्तु विज्ञान है। इमारतों में सजावटी तत्व के खिलाफ है, नायक जिसका मानना है कि भवन का आरामदायक होना आवश्यक है। उसका विश्वास है कि जैसे धरती से पौधे उगते हैं वैसे ही इमारत भी स्वाभाविक होनी चाहिए। आजकल महानगरों में गगनचुंबी इमारतें ऐसी लगती है मानो धरती की छाती पर खंजर धंस गए हैं। आजकल राजनीतिक दलों के दफ्तर भी श्रेष्ठि वर्ग के घरों की तरह हो गए हैं। उनकी महंगी इमारतों में किन लोगों का धन लगा है? बहरहाल, 'फाउंटेनहेड' के प्रारंभ में ही नायक हार्वड रॉक को वास्तुकला महाविद्यालय से निष्कासित किया जाता है, क्योंकि वह इमारत बनाने के पारम्परिक नियमों को स्वीकार नहीं करता। उसका विश्वास है कि भवन बनाने के सामान में लगातार विकास हुआ है और नए साधन साध्य को भी तय करते हैं। सीमेंट और इस्पात महज सामान नहीं हैं। वे भवन का डिज़ाइन भी तय करते हैं। इस बात से एक अनाम शायर की पंक्ति याद आती है, 'तोप के दहाने (मुंह) पर एक नन्ही चिड़िया ने अपना घोंसला बनाया है।'

आइन रैंड की मृत्यु 1982 में हुई। उन्होंने 'एटलस श्रग्ड,' 'वी द लिविंग' जैसे उपन्यास लिखे परंतु उनकी कीर्ति का आधार हमेशा 'फाउंटेनहेड' ही रहेगा, जिसके अनगिनत संस्करण मुद्रित हो चुके हैं और भवन बाने वालों की वह 'बाइबिल' बनी हुई है। विचित्र बात यह है कि साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित फिल्मकार राज कपूर भी उपन्यास में प्रस्तुत पात्रों को पसंद करते थे। उपन्यास में लोकप्रियता गढ़ने के सारे उपायों का जमकर मखौल उड़ाया गया है। लोकप्रियता गढ़ने के भी कारखाने होते हैं। इस क्षेत्र के विशेषज्ञ शिगूफे गढ़ने में माहिर होते हैं। वे किस्सागोई की कला भी जानते हैं। अफसानों को हकीकत का लिबास पहनाया जाता है। इसी तर्ज पर नेता भी उत्पाद हैं।

स्टीवन स्पिलबर्ग ने 'जुरासिक पार्क' नामक फिल्म की पूरी तैयारी कर ली थी परंतु फिल्म निर्माण के पहले उन्होंने एक लेखक से इसी विषय पर उपन्यास लिखवाया। उपन्यास को सबसे अधिक बिकने वाला बनाया गया। बाद में सगर्व उपन्यास के फिल्म अधिकार खरीदे गए। इतना ही नहीं फिल्म के प्रदर्शन के बहुत पहले डायनासोर खिलौनों का निर्माण कर लिया गया था। स्टीवन स्पिलबर्ग प्रतिभाशाली हैं और साथ ही वे बाजार शास्त्र में भी प्रवीण हैं। उन्हें बनाना और बेचना दोनों का भरपूर ज्ञान है।