भविष्यवाणियों के आईने में भ्रम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :03 सितम्बर 2016
'आज शत्रु से सावधान रहे, एक चम्मच चीनी में दो बूंद शहद डालकर पीपल के नीचे रखें, नीले वस्त्र पहनने से दिन सुखद रहेगा, उड़द और मंूग मिलाकर नदी, कुंए या नाले में डालें, आज व्यवसाय ठंडा व स्वास्थ्य गरम रहेगा, घर से बाहर पहले बांया कदम रखने से लाभ होगा, किसी स्त्री पक्ष से सहयोग लाभप्रद'- ऐसी बातें अधिकतर चैनलों पर भविष्यफल के नाम पर प्रतिदिन प्रसारित होती हैं। अंधविश्वास और कुरीतियों के कारखाने चौबीसों घंटे उत्पाद निर्माण करते हैं, क्योंकि इनकी बाजार में मांग है। बनता वही है, जो बिकता है। कम्युनिज़्म से प्रेरित प्रचार माध्यमों में भी इस बकवास को स्थान मिलता है। अपनी कब्र में मार्क्स कितने बेचैन होंगे? सचिवालय में कालचक्र के समय के बिना आईएएस अफसर कदम नहीं रखता। हर काम के लिए मुहूर्त निकाला जाता है। सारी फिल्मों के प्रारंभ में पूजा-पाठ किया जाता है और प्रतिदिन शूटिंग में पहला शॉट ओके होते ही नारियल का प्रसाद बांटा जाता है। फिल्म की एक रील प्रदर्शन पूर्व मंदिर या दरगाह ले जाते हैं। कैटरीना कैफ विदेश में जन्मी हैं परंतु अजमेर शरीफ की दरगाह पर साल में कम से कम तीन बार जाती हैं।
भारत महान में यह सब होता रहा है और कभी रुक भी नहीं सकता। धर्म के भवन को जिन लोगों ने दिन में खुले दिमाग से देखा है, उन्होंने उसे हवादार अौर प्रकाशवान पाया है परंतु इसी भवन को रात के अंधेरे में देखने वालों को वहां अंधविश्वास के चमगादड़ उलटे लटकते नज़र आए हैं और जहां-तहां भ्रम के जाले बन गए हैं। अखबार और पत्रिकाएं भी इन सब बातों को लगातार प्रकाशित करके मजबूती देती है, क्योंकि उन्हें सत्य से अधिक लाभ अंधिवश्वास को बलशाली बनाने में मिलता है। क्या सचमुच में 'सत्य' उबाऊ है अौर 'झूठ' सनसनीखेज तथा मनोरंजक? हमने अपनी सुविधानुसार ऐसी व्यवस्था अौर जीवनशैली गढ़ ली है कि हम सत्य से किनारा करके चलने को ही निरापद समझते हैं परंतु अंधेरे का चुनाव हमारा अपना है। भीतर का प्रकाश या अंधेरा ही बाहरी जगत को रचता है। मनुष्य शरीर के सारे कार्यकलाप ही प्रकृति के आईने में उभरते हैं। हमारे अंधविश्वास पहाड़ों की शक्ल लेते हैं, हमारे भीतर की प्रेमहीनता रेगिस्तान रचती है और आनंद नदियों को जन्म देता है। क्या खूब लिखा है मजाज ने, 'सिकुड़े तो दिले अाशिक है, फैले तो जमाना है, हम खाकनसीनों की ठोकर में जमाना है।' वैज्ञानिक और साहित्यकार दोनों ही सत्य को देख पाते हैं परंतु उनकी अभिव्यक्तियां अलहदा ढंग से होती हैं। अनगिनत आम आदमी भी अपनी नज़र और नज़रिये से यही सब देखते हैं और लोकप्रिय अवधारणाओं का जन्म होता है।
मीडिया ने अपना फोकस कुछ अनावश्यक और प्रसिद्ध लोगों के व्यक्तिगत जीवन पर केंद्रित किया है। सलमान खान का 'बिइंग ह्यूमन ट्रस्ट' कितने लोगों का इलाज कराता है, कितने बच्चों की फीस भरता है जैसी ठोस बातों से अधिक उनके विवाह की खबरों को उछालता है। देश का शिखर कुंआरा कभी विवाह करेगा या पहले किया है तो उस 'सीता' को कौन-सा वनवास दिया है, इससे अधिक महत्व सलमान खान के विवाह को दिया जा रहा है। ताज़ा शिगूफा है कि अपनी मौजूदा अन्यतम सखी रूमानिया में जन्मी लूलिया से सलमान 18 नवंबर को शादी करेंगे। ज्ञातव्य है कि उनके पिता सलीम खान ने भी सलमा से बावन वर्ष पूर्व 18 नवंबर को ही विवाह किया था। सलमान खान के संभावित विवाह को राष्ट्रीय महत्व की खबर बनाया जा रहा है, जबकि देश का अवाम विकट समस्याओं से जूझ रहा है।
स्वतंत्रता-संग्राम के समय मीडिया ने देशप्रेम में किए गए त्याग की प्रेरक बातें प्रकाशित कीं परंतु स्वतंत्रता पश्चात विशेषकर विगत दो दशकों में उसने अपना फोकस ही बदल दिया है, जिसका कुछ दोष पाठक वर्ग को भी जाता है, जो इन खबरों को चटखारे लेकर पढ़ता है।
प्रतिदिन की भविष्यवाणियों में रुचि लेना और विश्वास करना तथा सलमान खान के विवाह के प्रति जिज्ञासा रखना एक ही बीमारी के दो लक्षण हैं। 'बजरंगी भाईजान' या 'एक था टाइगर' से उनकी अभिनय क्षमता निखरी है अन्यथा उनकी सितारा अदाएं ही फिल्में सफल बनाती थीं। अब बतौर अभिनेता उनका विकास हो रहा है। इन बातों को कभी मीडिया अौर पाठक वर्ग महत्व नहीं देता। सभी क्षत्रों में हमने साधन से अधिक महत्व साध्य को दे दिया है। हमें नेता भी वैसे ही मिलते हैं जैसे नेता हमारा अंतस चाहता है। हमारे सुविधाभोगी स्वरूप को ही वे साकार करते हैं। सारे संसार में ही यह 'एज ऑफ मीडियोक्रिटी' है। आस्था के युग बीते, तर्क का कालखंड सुनहरा भूतकाल हो चुका है और अब फूहड़ता समय के दर्पण में दिखाई पड़ती है। मीडिया की भविष्यवाणियों को हम जी रहे हैं और मूर्ख लोगों के हाथ पंचाग लग गया है।