भविष्य की घटनाओं का आकल्पन और यथार्थ / जयप्रकाश चौकसे

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भविष्य की घटनाओं का आकल्पन और यथार्थ
प्रकाशन तिथि : 05 जुलाई 2018


इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय 92 वर्ष की हो गई हैं। वे प्राय: बीमार रहती हैं। इंग्लैंड में उनकी शवयात्रा की व्यवस्था के लिए कुछ उच्च अधिकारियों को उत्तरदायित्व दिया गया है। भारत में ऐसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि किसी जीवित व्यक्ति की मृत्यु एवं शवयात्रा पर विचार करना भी गलत माना जाता है। जब तक सांस है तब तक आस है, से प्रेरित लोग शवयात्रा की व्यवस्था के बारे में कैसे सोच सकते हैं। दरअसल नियोजित व्यवस्था को ही हम अस्वीकार करते हैं। व्यवस्थाहीनता हमारे स्वभाव का हिस्सा है। हमें टाइम टेबल बनाने और उस पर अमल करने से चिढ़ है। हम पर दार्शनिक होने का भूत सवार है। हम यथार्थ को कल्पना और कल्पना को यथार्थ की तरह मानते हैं। भारत में बहुत कम लोग अपनी वसीयत बनाते हैं और वकील तथा गवाह के सामने बनाई वसीयत को पंजीकृत करते हैं। मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकारियों के बीच विवाद प्राय: अदालत तक जाता है।

यूरोप के प्रतिष्ठित अखबार प्रसिद्ध लोगों की मृत्यु पर प्रकाशित होने वाली सामग्री पहले ही तैयार कर लेते हैं। विंस्टन चर्चिल की शवयात्रा का रेडियो पर विवरण दिया जा रहा था तो उसमें चर्चिल के भाषणों के अंश भी सुनाए जाते थे। बाद में इस विवरण के टेप और रिकॉर्ड्स भी बाजार में उपलब्ध कराए गए। यह संभव हो सका, क्योंकि उन्होंने पूर्व तैयारी की हुई थी।

युधिष्ठिर से दक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्नों में एक का उत्तर इस तरह था कि यह जानते हुए भी कि मृत्यु अवश्यम्भावी है, कोई उस पर विचार नहीं करता और न ही उसकी कोई पूर्व तैयारी की जाती है। पश्चिम में कुछ लोग अपने दफन किए जाने वाली जगह का आरक्षण भी करा लेते हैं। रेल के एक डिब्बे के लिए कोई पूर्व आरक्षण नहीं किया जाता, क्योंकि किसी को एकाएक कहीं भी जाना पड़ सकता है। मृत्यु के मामले में भारत उसी रेल के डिब्बे की तरह है, जिसमें आरक्षण नहीं किया जाता। स्वर्ग में आरक्षण के लिए पूजा-पाठ और कर्मकांड किया जाता है। इस तरह हम यथार्थ को अनदेखा करके उस विषय में जागरूक हैं, जो शायद है ही नहीं।

हमारे विलक्षण अभिनेता दिलीप कुमार अब 94 वर्ष के हैं। उनसे 22 वर्ष छोटी पत्नी सायरा बानो उनकी देखभाल करती हैं। वे अपनी स्मृति खो चुके हैं। चित्रगुप्त के खाते में सबका लेखा-जोखा मौजूद होता है परंतु स्मृति खो देने वाला व्यक्ति तो अपने बारे में कुछ नहीं बता पाएगा, तब उसका खाता कैसे देखा जाएगा। यहां का आधार कार्ड, वहां शायद निराधार माना जाए। हमने धरती को जिस तरह बांटा है, यह बंटवारा वहां अमान्य होगा। वहां कोई वोट बैंक भी नहीं है और न ही बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक का झमेला है। चुनाव विशेषज्ञ भी वहां एक ही कतार में खड़े पाए जाएंगे।

शेखर कपूर एलिजाबेथ प्रथम के जीवन से प्रेरित एक फिल्म अंग्रेजी भाषा में बना चुके हैं। लंबे समय से उनकी गतिविधियों की कोई जानकारी नहीं मिल रही है। फिल्म निर्देशन में आने से पहले वे लंदन में सीए थे। संभवत: पुन: उसी विभाग में कार्यरत हो गए हों। अपनी 'पानी' नामक फिल्म के आधे-अधूरे आकल्पन से संभवत: अभी भी जूझ रहे हों। यह भी संभव है कि अपनी अधूरी छोड़ी फिल्मों का लेखा-जोखा कर रहे हों। ज्ञातव्य है कि वे देव आनंद की बहन के सुपुत्र हैं।

एक फिल्म में एक अमेरिकन फिल्मकार लोकेशन की तलाश में चीन जाता है। एक पूंजी निवेशक उसकी फिल्म में पूंजी निवेश करता है परंतु हृदयाघात से फिल्मकार की मृत्यु हो जाती है। चीनी पूंजी निवेशक उसकी शवयात्रा की तैयारी करता है। वह व्यापारियों को समझाता है कि इस अमेरिकन फिल्मकार की शवयात्रा विश्व के सभी टीवी चैनल प्रसारण करेंगे। अत: शवयात्रा के मार्ग पर जो दुकानें हैं, उन पर फोकस करने के लिए धन मांगता है। इस तरह वह चीनी व्यापारी एक शवयात्रा का भी व्यापार करता है और फिल्म में लगाई अपनी पूंजी भरपूर लाभ सहित वसूल कर लेता है। आज पश्चिम के अनेक उद्योगों में चीन का पूंजी निवेश है और मुनाफे की सारी लहरें चीन की ओर ही जा रही हैं। भारतीय महानगरों में चीनी भोजन के रेस्तरां हैं परंतु वहां भारतीय तड़का लगा हुआ चीनी भोजन मिलता है। अमेरिकन स्टेक भी भारतीय तड़का लगाकर हमारे महानगरों में परोसा जा रहा है।

सर रिचर्ड एटनबरो ने अपनी फिल्म 'गांधी' में गांधीजी की शवयात्रा की शूटिंग के पूर्व विज्ञापन दिया था कि सादे कपड़ों में लोग इस दृश्यांकन में भाग लें। उन्हें पारिश्रमिक भी दिया जाएगा। उस शवयात्रा के फिल्मांकन में अनगिनत लोगों ने भाग लिया। पूरी शूटिंग इस आस्था के साथ की गई कि शूटिंग के बाद कोई भी व्यक्ति अपना पारिश्रमिक लेने के लिए नहीं आया। यह उनके महात्मा गांधी के प्रति आदर के कारण हुआ कि वे पारिश्रमिक की बात भी टाल गए। रिचर्ड एटनबरो को भारतीय सामूहिक अवचेतन का ज्ञान फिल्म बनाते हुए हुआ।

ज्ञातव्य है कि 1958 में सर रिचर्ड एटनबरो ने अपनी गांधी पटकथा नेहरूजी को दी थी और पढ़ने के बाद उन्होंने उन्हें अनेक सुझाव भी दिए परंतु पूंजी निवेशक नहीं मिलने के कारण फिल्म उस समय नहीं बनी। कई वर्ष बाद सर रिचर्ड एटनबरो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले और उनके पूरे सहयोग से ही फिल्म बन पाई। इंदिराजी ने ही राष्ट्रीय फिल्म वित्त निगम को सहयोगी निर्माता बनाया था और संस्था को भारी लाभ मिला।