भागलपुर: एक सगंध वृक्ष / बुद्धिनाथ मिश्र
भागलपुर का नाम लेते ही मेरा रोमांचित हो उठना स्वाभाविक है। वहाँ के बरारी स्टेट का उस नगर के साहित्यिक-सांस्कृतिक विकास में इतना बड़ा योगदान है कि भागलपुर का इतिहास उसके जिक्र के बिना पूरा ही नहीं हो सकता। उसी बरारी स्टेट का बनारस में सावित्रीश्वरी काली मंदिर और उसके साथ जुड़ा छात्रावास है,जिसमें मिथिला के गरीब छात्रों के पढ़ने के लिए आवास-भोजन की निःशुल्क व्यवस्था थी।इसके लिए पर्याप्त कृषि-भूमि रियासत की ओर से उत्सर्ग की गयी थी। मैं जब उस छात्रावास में पहुँचा,तब तक रियासत के महल की झाड़-फानूस की लौ बुझ चुकी थी,जिससे छात्रावास भी लगभग बन्द हो गया था।मैं उसका आखिरी छात्र था,जो बाद में ‘आज’ की नौकरी करने पर पहला किरायेदार भी बना।रियासत के उत्तराधिकारी ठाकुर परिवार के लोग वर्ष में एक बार कालीपूजा के अवसर पर आते थे। मंदिर के प्रबंध का असह्य दायित्व-भार मेरे असहाय कन्धों पर था। इसलिए भागलपुर मैं प्रायः जाता रहता था,कवि सम्मेलन के बहाने। ठाकुर परिवार की ‘बड़ी माँ’ पद्मावती ठकुरानि मुझे भी बेटे का दर्जा देती थी,इसलिए मैं जब भी भागलपुर जाता था,बड़ीमाँ से जरूर मिल लेता था। अन्तिम बार भागलपुर मैं मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद की अध्यक्षता और डॉ. बेचन के संचालन में आयोजित एक महाविद्यालय के कवि सम्मेलन में गया था।तबसे,लगभग दो दशक बीत चुके हैं। इस बीच मुझे भागलपुर या बरारी स्टेट के कार्य-कलाप के बारे में कोई समाचार नहीं मिला।पिछले जून मास में ताशकन्द में भागलपुर की लेखिका और सात्विक मन से समाज-सेवा करनेवाली डॉ. सुजाता चौधरी और उनके जनप्रिय चिकित्सक पति डॉ. चौधरी मिले तो भागलपुर और बरारी स्टेट की बात छिड़ गयी। बातों-बातों में ही वहाँ का कतरनी चावल और कतरनी धान का चूड़ा,वहाँ का टसर सिल्क, वहाँ का गंगा घाट और बरारी घाट से सटकर बने नये ऐतिहासिक पुल की चर्चा छिड़ी। बातों-बातों में ही चौधरी दम्पति ने भागलपुर आने का निमन्त्रण दिया और मैंने हाँ भी कर दिया था,एक अनुरोध के साथ कि मुझे बरारी परिवार से मिलवा दीजियेगा। और यह मेरी भागलपुर यात्रा उसी के अनुसरण में थी।
पटना से भागलपुर जानेवाली इंटरसिटी के एसी चेयर कोच में मैने इसलिए आरक्षण कराया कि द्वितीय श्रेणी के कोच में इतनी भीड़ हो जाती है कि आपका सीट आरक्षित होने के बावजूद आपको बैठने को नहीं मिलेगा।जमालपुर (मुंगेर) जंक्शन पर यह ट्रेन मात्र पाँच मिनट रुकती है। एसी कोच आगे था। दौड़कर किसी तरह कोच तक पहुँचा,मगर भीतर की हालत देखकर साँप सूँघ गया।उसमें लोग इतने ठुँसे हुए थे कि पाँव रखने की जगह नहीं थी।जितने लोग सीटों पर बैठे थे, उनसे दुगुने खड़े थे।सबके सब द्वितीय श्रेणी के मासिक पास धारक थे। उन पासधारकों की दबंगई ऐसी कि सीट पर बैठे लोग अपनी स्थिति असहज अनुभव कर रहे थे। मुझे ट्रेन में चढा़ने आये बंधुगण कोच के दरवाजे पर ही मुझे छोड़कर वापस भाग गये। मुझे अपनी सीट तक पहुँचने और उसपर अनधिकृत बैठे पासधारक को उठाने में दस मिनट लग गये! किसी एसी कोच में इस तरह की दुर्व्यवस्था का पहली बार अनुभव बिहार ने कराया था,जिसके लिए मैं अपने राज्य का शुक्रगुजार हूँ। जिस राज्य के आम आदमी की सोच ही पूरी तरह अराजक हो गयी हो,उस राज्य के सुशासन के मुख पर कितना भी अनुलेपन करें,कोई खास फ़र्क पड़नेवाला नहीं है।एक घंटे में ही भागलपुर आने को था।सोचा कि वहाँ लोग उतर जायेंगे,तब मैं भी उतर जाऊँगा, मगर वे लोग टस से मस नहीं हुए और मुझे धक्कामुक्की करते हुए भागलपुर स्टेशन पर उतरना पड़ा। वहाँ बाहर डॉ. चौधरी की कार मेरी प्रतीक्षा में थी। कहीं बाहर जाने पर यदि स्टेशन पर कोई आप्त व्यक्ति प्रतीक्षारत मिल जाए तो सारी थकान दूर हो जाती है। डॉक्टर दम्पति ने जो आवभगत की,वह मुझे अभिभूत कर गया।
शाम को उनके आवास पर ही छत पर मेरे एकल काव्यपाठ का कार्यक्रम था,जिसमें नगर के सभी साहित्यकार मित्र एकत्र हो गये थे।तमाम वे मित्र, जिनसे बरसों से कोई सम्पर्क नहीं हुआ।यह एक विचित्र स्थिति है,कि कविसम्मेलनों में हजारों रुपये पारिश्रमिक लेकर जाता हूँ,मगर तीन-चार गीत से अधिक नहीं सुना पाता हूँ। निम्न स्तरीय कवियों की संख्या अधिक रहने के कारण वरिष्ठता क्रम में अपने लिए समय भी कम मिल पाता है और श्रोताओं के मिजाज पर भरोसा न होने के कारण काव्यपाठ को ज्यादा लम्बा करना भी नहीं चाहता। इसलिए आर्थिक दृष्टि से स्वास्थ्यकर होते हुए भी ऐसे कविसम्मेलनों से एक अव्यक्त यातना,एक अव्यक्त ग्लानि लेकर लौटता हूँ। मगर इस तरह की गोष्ठी में आत्मा पूरी स्वतन्त्रता से मुखर होती है। लगभग यही सुख गोकुल में कृष्ण को ‘छछिया भर छाछ पर’ नाचने में मिलता होगा।इसी गोष्ठी में मुझसे मिलने सुप्रसिद्ध कथा-वाचिका श्रीमती कृष्णा मिश्र भी सपरिवार आ गयी थीं।उनके साथ उनकी वह पौत्री भी आयी थी जिसने टीवी चैनल पर अपने संगीत-नृत्य के कार्यक्रम देकर दस लाख का पुरस्कार जीता था। डॉ.चौधरी के घर के पास ही बरारी के ठाकुर परिवार के भगिनमान और मेरे परम आत्मीय मित्र अजित कुमार झा का घर है। उन्हें जब गोष्ठी में भाग लेकर लौट रहे लोगों ने बताया तो रात के दस बजने के बावजूद दौड़े चले आये।उसके बाद जो बातों का सिलसिला शुरू हुआ,तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।अजित जी अभी अपने नगर के प्रमुख न्यूज़ फोटोग्राफर हैं। विदेशी पर्यटकों को भागलपुर नगर और उसके आसपास के पुरातात्विक स्थलों के बारे में जानकारी एकमात्र वही दे सकते हैं। मुझे भी कहा कि एक सप्ताह रुकिये तो आसपास के मनोरम स्थलों का परिचय कराऊँ,मगर मेरा कार्यक्रम सिर्फ़ एक दिन भागलपुर रहने का था।इसलिए तय हुआ कि कल सबेरे वे आकर मुझे नगर के महत्वपूर्ण स्थलों का भ्रमण करायेंगे।
अगले दिन उनके साथ,उनकी कार में बैठकर सबसे पहले बरारी स्टेट के महल आनन्दगढ़ गये। वहाँ परिवार का कोई सदस्य नहीं रहता है। बड़ीमाँ,उनका पुत्र,पुत्रवधू--सब संसार से विदा हो चुके हैं। अगली पीढ़ी के उत्तराधिकारी महानगरों में शरण ले चुके हैं।मुझे मालूम है कि इस महल में ऐसी-ऐसी दुर्लभ पेंटिंग हैं,जिनमें एक-एक का मूल्य अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में करोड़ो डॉलर होंगे। पता नहीं,उनकी सुरक्षा के लिए क्या व्यवस्था की गयी है! बिहार में आनन्दगढ़ जैसे न जाने कितने भव्य महल चिर उपेक्षा के कारण जार-जार रो रहे हैं। राजस्थान होता तो इन महलों में हेरिटेज होटल खुल जाते। देहरादून के पास ही नरेन्द्रनगर में टेहरी राज का महल था,जिसे ‘आनन्दा’ नाम से हेरीटेज होटल खोल दिया गया,जिसके सामान्य कमरे का किराया भी बीस हजार रु. है,फिर भी वह साल भर भरा रहता है।मगर बिहार की सारी रियासतों के महलों का भाग्य उनके अकर्मण्य उत्तराधिकारियों के भरोसे छोड़ दिया गया है। यदि बिहार सचमुच अपना आर्थिक विकास करना चाहता है,तो पर्यटन के इस विकल्प की असीम सम्भावनाओं पर विचार-मंथन करना ही पड़ेगा।इसके लिए राज्य सरकार को विशेष प्रयत्न करना पड़ेगा।मुख्यमन्त्री नीतीश गुजरात के विकास-पुरुष नरेन्द्र मोदी के नाम से कितना भी भड़कें,मगर बिहार को गुजरात की तरह खुशहाल बनाने के लिए मोदी की तरह विकासोन्मुख उद्यम अपनाना पड़ेगा।बिहार का सबसे बड़ा राज दरभंगा का ‘राजनगर’ महल विदेशी पर्यटकों के लिए बहुत ही आकर्षक स्थल हो सकता है,जहाँ वे बैठकर मिथिला की चित्रकला,वहाँ के जट-जटिन आदि लोकनाट्य, वहाँ के विद्यापति संगीत,वहाँ के विलक्षण ग्राम्य जीवन का आनन्द उठा सकते हैं। मगर बिहार सरकार में बैठे राजनेताओं की संकीर्ण दृष्टि पूरे बिहार को नहीं देख पाती और इसलिए मिथिलांचल के ये वैशिष्ट्य किसी को दिखाई नहीं देते।इसलिए अभी भी बिहार राज्य सम्पूर्ण विकास के राजमार्ग से कोसों दूर है।
मुझे यह देखकर हार्दिक कष्ट हुआ कि बरारी स्टेट के अनेक कलात्मक महल, जहाँ देश-विदेश के तमाम गायक-गायिकाएँ और अपने समय की प्रख्यात नर्तकियाँ अपने कला-प्रदर्शन से भागलपुर के कला-प्रेमियों को आह्लादित की थीं, राज्य सरकार को सौंपे जाने के बाद राजपशुओं का शौच-स्थल बन गये हैं!उन ऐतिहासिक और स्थापत्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण भवनों में सरकारी पशुपालन जैसे विभाग खोलने के बजाय उन्हें संस्कृतिक केन्द्र आदि बनाकर संरक्षित किया जाए, यह बेहद जरूरी है।मुझे बिहार प्रशासन की इस कृतघ्नता पर भी ग्लानि हुई कि आनन्दगढ़ से प्राप्त जिस विशाल परिसर युक्त भवन को जिलाधिकारी निवास बनाया गया है,उसके किसी कोने में भी दानदाता के नाम का उल्लेख नहीं है। सत्ता में बैठे लोग किस तरह दूसरे की सम्पत्ति को अपनी सम्पत्ति समझ लेते हैं ,इसका यह ज्वलन्त उदाहरण है। भागलपुर जैसे महत्वपूर्ण शहर में हवाई अड्डा अब तक न होना बिहार के लिए कलंक ही है। इससे पर्यटन के तमाम आयाम खुलते!
भागलपुर की सड़कों पर अजित भाई जैसे जानकार के साथ घूमते हुए मुझे उस नगर की सामान्य जन-संस्कृति बनारस की तरह ही लगी। वही पारस्परिक सौहार्द,वही साहित्य और कला के प्रति अनन्य सहजात प्रेम,वही धर्मप्राणता,वही सहज जीवन जीने की कला।अजित मुझे माठघाट ले गये,जिसके मन्दिर की मुख्य बेशकीमती प्रतिमा चोरी के डर से हटा लिया गया है,और भक्तजन उसके स्थान पर रखी एक पाषाण प्रतिमा को पूजकर ही तृप्त है। उसी घाट के बगल में बरारी स्टेट का वह अस्पताल है,जिसमें बंगला उपन्यासकार ‘बनफूल’ आजीवन कम्पाउण्ड की नौकरी करते रहे।आज वह अस्पताल खंडहर में बदल चुका है और अड़ोस-पड़ोस के लोग उसमें गाय-भैंस बाँधते हैं या अपनी कारों की पार्किंग करते हैं।उसका चित्र लेते समय मुझे बहुत कष्ट हुआ। भागलपुर बंगला साहित्यकारों का शुरू से मुख्य सृजन केन्द्र रहा है। कोलकाता के बाद सबसे ज्यादा बंगला साहित्यकार यहीं रहे हैं। मैने वह मकान भी देखा,जहाँ एक अपूर्व सुन्दरी विधवा रहती थी,जिसकी एक झलक पाने के लिए शरत चन्द्र घंटों झाड़ी में छिपकर बैठे रहते थे। यहाँ के टिल्ला कोठी में रवि बाबू ने ‘गीतांजली’ के अनेकों गीत रचे थे।शरत बाबू की पहचान यहीं पर किशोरावस्था में लिखे उपन्यासों से बनी।प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस, प्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार, उपन्यासकार सुचित्रा भट्टाचार्य, लेखक दिव्येन्दु पालित,आशीष और प्रीतीश नन्दी आदि न जाने कितने बंगाली महापुरुषों का जन्म भागलपुर की धरती पर हुआ है,मगर आज इनमें से किसी के परिचय के साथ भागलपुर का नाम नहीं जुड़ा है। इसी लिए मैने भागलपुर को एक ऐसा सगंध वृक्ष कहा है,जिसकी डालों पर बने घोसलों में सदियों से प्रतिभा के पक्षी आस्रय पाते रहे हैं,मगर यहाँ से उड़कर जाने के बाद फिर कभी इसका नाम भी नहीं लेते।