भाग्यचक्र / आरसी प्रसाद सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन भर कवि शहर की तमाम गलियों में इधर से उधर चक्कर लगाता रहा; किंतु किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। उसने कभी किसी की खुशामद नहीं की थी और न किसी भद्रलोक का स्वागत गान ही बनाया था। न तो उसने किसी राजा की प्रशंसा में कोई कविता की थी और न किसी बाबू साहब के विवाहोत्सव में कोई छंद पढ़ा था। फिर उसे पूछता ही कौन?

वह भूखा था और पेट की ज्वाला से तड़प रहा था। फिर भी किसी के दरवाज़े पर रोटी के एक टुकड़े के लिए हाथ फैलाना उसके लिए कठिन ही नहीं, असंभव था। याचक-वृत्ति उसने सीखी ही नहीं और न किसी पत्र सम्पादक से दोस्ती थी। अधिकांश कविताएँ उसकी प्रेस से लौट ही आती थीं। किसी में लिखा रहता, कोशिश कीजिए- कुछ ही दिनों में अच्छे कवि हो जाइएगा। किसी में लिखा रहता, प्रतिभा है- किंतु ज़रा मौलिकता पर ध्यान दिया कीजिए। और किसी में कुछ, किसी में कुछ। फिर भी वह कवि था। और मौज में आने पर कुछ लिख ही लेता। कविता करना और अपनी फूस की झोंपड़ी में पड़ा रहना; बस दो ही चीज़ें उसने जानी थीं। अड़ोस-पड़ोस के लोगों से उसकी जान-पहचान भर थी; कोई सम्बंध नहीं था। न तो वह किसी के यहाँ जाता और न कोई उसके यहाँ आने का कष्ट करता। उसकी एकांतप्रियता पर सबकी बक्र-दृष्टि रहती। कोई उसे अभिमानी समझता और कोई उसे दुराचारी। मगर कवि को इसकी परवाह नहीं थी। वह सम्भाव से सबके आदर-उपहासों को सहन करता हुआ अपने रास्ते पर चला जा रहा था। उसके विषय में कौन-क्या चर्चा करता है- यह जानने की उसे न तो इच्छा थी और न ही अवकाश। उसका जीवन सरिता के समान था- अपने ही हृदय की तरंगों में लीन और सुख-दुख के दोनों कूलों में मर्यादित। विस्तृत भविष्य उसके सामने था और व्याकुल वर्तमान उसके चरणों के नीचे। हाँ, उसने कभी पीछे लौटकर नहीं देखा।

आज वह भूखा था। कविताओं से किसी का पेट भरा होगा, उसे मालूम नहीं। और अगर वह यह बात जान भी लेता, तो विश्वास नहीं करता। मेहनत-मजदूरी से ही अब तक उसने अपनी भूख बुझाई थी। मुफ्त के पैसे को वह हराम समझता था। और इसीलिए आज जब उसे भूख लगी, तब वह सारे शहर की खाक छान गया। लेकिन बदनसीबी ने कहीं उसका दामन नहीं छोड़ा। आख़िर मिट्टी या काग़ज़ खाकर कोई नहीं जीता। जीने के बाद ही कलम या तलवार की ज़रूरत होती है। और शायद जीने के लिए भी। दौड़ते-दौड़ते वह थक गया। परेशानी से पेशानी पर पसीने की बूँदें झलक उठीं। किंतु, कहीं कुछ प्राप्ति नहीं हुई। किसी ने उस पर खयाल नहीं किया। हलवाई की दुकान पर मिठाइयाँ सजी थीं मगर उन्हें छूने का हक़ उसे नहीं। सेठजी की तिजोरी में रुपए बंद थे; लेकिन उसमें से एक फूटी कौड़ी भी नहीं पा सकता। और चौराहे पर पान वाले ने टेबुल पर एक कतार में शर्बत के कई गिलास भर कर रख दिए; परंतु उसकी प्यास नहीं बुझ सकती। वह अभागा जो था। उसे इन वस्तुओं को स्पर्श करने का अधिकार नहीं था। भले ही क्षुधा और पिपासा से वह वहीं तड़पकर मर जाए।

ट्रामें चल रही थी; मोटरें दौड़ रही थीं और छोटी-बड़ी सभी दुकानों पर ग्राहक-विक्रेताओं में मोल-भाव हो रहा था। तांगे पर बैठे हुई युवक उसकी ओर देखकर मुस्कुरा उठते और रिक्शे पर बैठी हुई युवतियाँ उसकी ओर देखकर हँस पड़तीं। कोई कहता, पागल है। कोई कहता, बदमाश है। लोग उसके फटे-चिथड़े कपड़ों और रुखे बड़े बालों पर खिल्लियाँ उड़ाते। राही उसकी बेढंगी चाल पर क्षण भर के लिए रास्ता भूल कर ठिठक जाते। मगर कवि को जैसे इन बातों का ज्ञान ही नहीं था। वह अपनी ही धुन में मस्त होकर चला जा रहा था। चला जा रहा था।

चलते-चलते शाम हो गई। उसके पैर थर-थर काँपने लगे। थकावट से सारा शरीर चूर हो रहा था। वह सड़क की बगल में पत्थर के एक छोटे-से पुल पर बैठ गया। बैठकर सुस्ताने लगा। शाम हो गई। सुबह ही उसने घर छोड़ा था और अब शाम हो गई! आसपास में रंग-बिरंगे बादल किसी नौसिखिए चित्रकार के समान तूलिका चला रहे थे। पक्षीगण अपने अनंत कलरव से दिशा-मंडल को गुंजित करते हुए नीड़ की ओर लौट रहे थे। पश्चिम से दूर- बहुत दूर भास्कर की लोहित आभा एक वर्तुलाकार पिण्ड के रूप में धीरे-धीरे छिपती जा रही थी। कवि का मानस चंचल हो उठा। उसने पुल के नीचे झाँका- कलकल करती हुई तरंगिणी पत्थर के गोल-गोल टुकड़ों पर उछल रही थी। सामने देखा, छोटे-छोटे पहाड़ों की चोटियाँ सोने के फूलों से लद चुकी थीं। ऊपर की ओर दृष्टि की, बसंत की चिंगारियों की तरह पीली-पीली किरणें सारे आकाश में बिखर थीं। उसकी कल्पना मचल पड़ी। वह चंचल हो उठा। उसने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की; परंतु उसी समय भूख, भूख...

उसके जिगर में एक ठेस-सी लगी। फूस की झोंपड़ी। घड़े का पानी सूख गया होगा। जलावन लाना है। चौका बर्तन भी नहीं किया। जूठी थाली यों ही पड़ी होगी। और कहीं टट्टी में सेंध मारकर कुत्ता भीतर घुस आया हो, तब? दुष्ट ने उस दिन नई कड़ाही में मुँह लगा दिया था। और आज...। उसके अधर एक बार हिलकर ही रह गए। वह उठा और शराबी की तरह लड़खड़ाता हुआ एक ओर निकल पड़ा।

“क्या चाहिए पथिक?” किवाड़ की ओट से किसी रमणी-कंठ का स्वर सुनाई पड़ा।

पथिक को स्वयं नहीं मालूम कि वह वहाँ कैसे पहुंच गया।

“कुछ नहीं।” उसने ज्यों ही चलने का उपक्रम किया, त्यों ही नारी शीघ्रता से बाहर निकल आई।

“तुम्हें कुछ नहीं चाहिए भद्र?”

“नहीं सुंदरी, मैं कुछ भी नहीं चाहता। मुझे किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं।”

“तो ज़रा ठहर जाओ।”

“क्षमा करो शीले, अपराध हो गया।”

वह थोड़ा-सा रुका, पीछे लौट कर देखा और फिर चल पड़ा।

“नहीं ठहरोगे?” रमणी का कंठ-स्वर आर्द्र हो गया। लोचनों में आँसू छलछला उठे।

“नहीं सुंदरी” पथिक के उत्तर में दृढ़ता थी।

रमणी बिजली की द्रुतगति से पथिक के सम्मुख आई और उसका मार्ग अवरुद्ध कर शिला की तरह अचल खड़ी हो गई।

“मेरे द्वार से आज तक कोई याचक निराश होकर नहीं लौटा, भिक्षुक!”

“भिक्षुक!” तीर की तरह यह शब्द पथिक के प्राणों में बिंध गया। अपमान की ज्वाला से उसका मर्मस्थल झुलस गया।

“और, अब यह पहला अवसर है कि तुम मेरी अभ्यर्थना को अस्वीकार कर रहे हो। ठहरो भिक्षा ले लो। फिर कहीं जाना। मैं अभी लिए आती हूँ।”

“भिक्षा!” एक बार फिर पथिक विह्वल हो उठा। उसने रमणी की ओर देखा, आह! उसके नयनों से सच ही मोतियों की वर्षा हो रही थी।

उसने कातर होकर कहा- “आज तुमने मुझे अपने आदर्श से च्युत कर दिया। मैं पतित हूँ। जाओ, शीघ्रता करो।” कवि जब अपनी पर्णकुटी के द्वार पर पहुंचा, एक पहर रात्रि व्यतीत हो चुकी थी। नगर का अनवरत कोलाहल रजनी के प्रशांत अंक में विश्राम कर रहा था। और कर्म-क्लांत वसुंधरा प्रकृति के दिड्मूढ़ तथा नीरव-निश्छल वातावरण में चिर-शांति-लाभ करने की चेष्टा कर रही थी। वह दरवाज़े पर पहुंचा। धीरे से बाँस के फाटक को हटाया और ज्यों ही अंदर प्रवेश करने के लिए अगला पैर बढ़ाया, त्यों ही उसकी प्रियतमा जीवन-सहचरी उसके गले से लिपट गई। षोडशी सुकुमारी कल्पना-प्रिया। चिर यौवना बाला। इंद्रधनुष की स्वर्ण-बल्लरी से उतरकर इठलाती हुई आई और उसके गले से लिपट गई।

वह उल्टे पैर वापस हो गया। कंथा के कोने में रमणी का दिया चावल अब भी ज्यों का त्यों बंधा था। उसकी भूख मर चुकी थी। उसने गठरी खोली और उस चावल को पंसारी के हाथों बेच दिया। कुल दो पैसे मिले। एक पैसे का तेल लिया और दूसरे का काग़ज़। धोती फाड़कर बत्ती बनाई और चिता की राख फूँककर आग जलाई। मिट्टी का दीपक फूस की झोंपड़ी में झलमला उठा। और तब? तब कवि ने दीये की उस धूँधली रोशनी में इधर-उधर टटोलना आरम्भ किया। लोहे की एक पुरानी कील कहीं उंगलियों से छू गई। उसे उठा लिया और मस्तक में, जहाँ पुराणों के कथनानुसार विधाता भाग्यचक्र का निर्माण करता है, इतने जोर से घुसेड़ दिया कि पूरी कील ही अंदर चली गई। लहू का फव्वारा छूट चला। कवि ने पत्ते के एक दोने में सारा रक्त समेट लिया। ख़ून की स्याही बनी और कील की कलम। और फिर इसके बाद?

इसके बाद- कवि लिखता है। उसकी आँखों में आँसू नहीं, हृदय में विषाद नहीं। वह लिखता है और लिख-लिखकर काग़ज़ को हवा में उड़ा देता है। जब एक-एक कर सभी पन्ने समाप्त हो जाते हैं, तो वह उठता है और दीपक को बुझाकर सो रहता है। दुनिया उन गीतों को गाती है और गा-गाकर झूम उठती है; किंतु उन गीतों के रचयिता को वह नहीं जानती। उसकी रचनाओं में किसी को पीड़ा मिलती, किसी को वेदना और किसी को आँसू। कोई अट्टहास कर उठता! उसकी कविताओं के पन्ने जिसके घर में होते, वह अपने को कुबेर ही समझता। उसके संग्रह की हज़ारों कापियाँ हाथों-हाथ बिक जातीं, परंतु उस कवि को कोई नहीं जानता। शायद जानने की ज़रूरत भी नहीं थी।