भाग्य रेखा / भीष्म साहनी

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कनाट सरकस के बाग में जहाँ नई दिल्ली की सब सड़कें मिलती हैं, जहाँ शाम को रसिक और दोपहर को बेरोजगार आ बैठते हैं, तीन आदमी, खड़ी धूप से बचने के लिए, छाँह में बैठे, बीडिय़ाँ सुलगाए बातें कर रहे हैं और उनसे ज़रा हटकर, दाईं ओर, एक आदमी खाकी-से कपड़े पहने, अपने जूतों का सिरहाना बनाए, घास पर लेटा हुआ मुतवातर खाँस रहा है। पहली बार जब वह खाँसा तो मुझे बुरा लगा। चालीस-पैंतालीस वर्ष का कुरूप-सा आदमी, सफेद छोटे-छोटे बाल, काला, झाइयों-भरा चेहरा, लम्बे-लम्बे दाँत और कन्धे आगे को झुके हुए, खाँसता जाता और पास ही घास पर थूकता जाता। मुझसे न रहा गया। मैंने कहा, "सुना है, विलायत में सरकार ने जगह-जगह पीकदान लगा रखे हैं, ताकि लोगों को घास-पौधों पर न थूकना पड़े।"

उसने मेरी ओर निगाह उठाई, पल-भर घूरा, फिर बोला, "तो साहब, वहाँ लोगों को ऐसी खाँसी भी न आती होगी।" फिर खाँसा और मुस्कराता हुआ बोला, 'बड़ी नामुराद बीमारी है, इसमें आदमी घुलता रहता है, मरता नहीं।'

मैंने सुनी-अनसुनी करके, जेब में से अखबार निकाला और देखने लगा। पर कुछ देर बाद कनखियों से देखा, तो वह मुझ पर टकटकी बाँधे मुस्करा रहा था। मैंने अखबार छोड़ दिया, "क्या धन्धा करते हो?"

"जब धन्धा करते थे तो खाँसी भी यूँ तंग न किया करती थी।"

"क्या करते थे?"

उस आदमी ने अपने दोनों हाथों की हथेलियाँ मेरे सामने खोल दीं। मैंने देखा, उसके दाएँ हाथ के बीच की तीन उँगलियाँ कटी थीं। वह बोला, "मशीन से कट गईं। अब मैं नई उँगलियाँ कहाँ से लाऊँ? जहाँ जाओ, मालिक पूरी दस उँगलियाँ माँगता है," कहकर हँसने लगा।

"पहले कहाँ काम करते थे?"

"कालका वर्कशाप में।"

हम दोनों फिर चुप हो गए। उसकी रामकहानी सुनने को मेरा जी नहीं चाहता था, बहुत-सी रामकहानियाँ सुन चुका था। थोड़ी देर तक वह मेरी तरफ देखता रहा, फिर छाती पर हाथ रखे लेट गया। मैं भी लेटकर अखबार देखने लगा, मगर थका हुआ था, इसलिए मैं जल्दी ही सो गया।

जब मेरी नींद टूटी तो मेरे नजदीक धीमा-धीमा वार्तालाप चल रहा था, "यहाँ पर भी तिकोन बनती है, जहाँ आयु की रेखा और दिल की रेखा मिलती हैं। देखा? तुम्हें कहीं से धन मिलनेवाला है।"

मैंने आँखें खोलीं। वही दमे का रोगी घास पर बैठा, उँगलियाँ कटे हाथ की हथेली एक ज्योतिषी के सामने फैलाए अपनी किस्मत पूछ रहा था।

"लाग-लपेटवाली बात नहीं करो, जो हाथ में लिखा है, वही पढ़ो।"

" इधर अँगूठे के नीचे भी तिकोन बनती है। तेरा माथा बहुत साफ है, धन

ज़रूर मिलेगा। "

"कब?"

"जल्दी ही।"

देखते-ही-देखते उसने ज्योतिषी के गाल पर एक थप्पड़ दे मारा। ज्योतिषी तिलमिला गया।

"कब धन मिलेगा? धन मिलेगा! तीन साल से भाई के टुकड़ों पर पड़ा हूँ, कहता है, धन मिलेगा!"

ज्योतिषी अपना पोथी-पत्रा उठाकर जाने लगा, मगर यजमान ने कलाई खींचकर बिठा लिया, "मीठी-मीठी बातें तो बता दीं, अब जो लिखा है, वह बता, मैं कुछ नहीं कहूँगा।"

ज्योतिषी कोई बीस-बाईस वर्ष का युवक था। काला चेहरा, सफेद कुर्ता और पाजामा जो जगह-जगह से सिला हुआ था। बातचीत के ढंग से बंगाली जान पड़ता था। पहले तो घबराया फिर हथेली पर यजमान का हाथ लेकर रेखाओं की मूकभाषा पढ़ता रहा। फिर धीरे से बोला, "तेरे भाग्य-रेखा नहीं है।"

यजमान सुनकर हँस पड़ा, "ऐसा कह न साले, छिपाता क्यों है? भाग्य-रेखा कहाँ होती है?"

"इधर, यहाँ से उस उँगली तक जाती है।"

"भाग्य-रेखा नहीं है तो धन कहाँ से मिलेगा?"

"धन ज़रूर मिलेगा। तेरी नहीं तो तेरी घरवाली की रेखा अच्छी होगी। उसका भाग्य तुझे मिलेगा। ऐसे भी होता है।"

"ठीक है, उसी के भाग्य पर तो अब तक जी रहा हूँ। वही तो चार बच्चे छोड़कर अपनी राह चली गई है।"

ज्योतिषी चुप हो गया। दोनों एक-दूसरे के मुँह की ओर देखने लगे। फिर यजमान ने अपना हाथ खींच लिया और ज्योतिषी को बोला, "तू अपना हाथ दिखा।"

ज्योतिषी सकुचाया, मगर उससे छुटकारा पाने का कोई साधन न देखकर, अपनी हथेली उसके सामने खोल दी, "यह तेरी भाग्य-रेखा है?"

"हाँ।"

"तेरा भाग्य तो बहुत अच्छा है। कितने बँगले हैं तेरे?"

ज्योतिषी ने अपनी हथेली बन्द कर ली और फिर पोथी-पत्रा सहेजने लगा, "बैठ जा इधर। कब से यह धन्धा करने लगा है?"

ज्योतिषी चुप।

दमे के रोगी ने पूछा, "कहाँ से आया है?"

"पूर्वी बंगाल से।"

"शरणार्थी है?"

"हाँ।"

"पहले भी यही धन्धा या?"

ज्योतिषी फिर चुप। तनाव कुछ ढीला पडऩे लगा। यजमान धीरे से बोला, "हमसे क्या मिलेगा! जा, किसी मोटरवाले का हाथ देख।"

ज्योतिषी ने सिर हिलाया, "वह कहाँ दिखाते हैं! जो दो पैसे मिलते हैं, तुम्हीं जैसों से।"

सूर्य सामने पेड़ के पीछे ढल गया था। इतने में पाँच-सात चपरासी सामने

से आए और पेड़ के नीचे बैठ गए, " जा, उनका हाथ देख। उनकी जेबें खाली

न होंगी। "

मगर ज्योतिषी सहमा-सा बैठा रहा। एकाएक बाग की आबादी बढऩे लगी। नीले कुर्ते-पाजामे पहने, लोगों की कई टोलियाँ, एक-एक करके आईं और पास के फुटपाथ पर बैठने लगीं।

फिर एक नीली-सी लारी झपटती हुई आई और बाग के ऐन सामने रुक गई। उसमें से पन्द्रह-बीस लट्ठधारी पुलिसवाले उतरे और सड़क के पार एक कतार में खड़े हो गए। बाग की हवा में तनाव आने लगा। राहगीर पुलिस को देखकर रुकने लगे। पेड़ों के तले भी कुछ मजदूर आ जुटे।

"लोग किसलिए जमा हो रहे हैं?" ज्योतिषी ने यजमान से पूछा।

"तुम नहीं जानते? आज मई दिवस है, मजदूरों का दिन है।"

फिर यजमान गम्भीर हो गया, "आज के दिन मजदूरों पर गोली चली थी।"

मजदूरों की तादाद बढ़ती ही गई और मजदूरों के साथ खोमचेवाले, मलाई, बरफ, मूँगफली, चाट, चबेनेवाले भी आन पहुँचे और घूम-घूमकर सौदा बेचने लगे।

इतने में शहर की ओर से शोर सुनाई दिया। बाग से लोग दौड़-दौड़कर फुटपाथ पर जा खड़े हुए। सड़क के पार सिपाही लाठियाँ सँभाले तनकर खड़े हो गए।

जुलूस आ रहा था। नारे गूँज रहे थे। हवा में तनाव बढ़ रहा था। फुटपाथ पर खड़े लोग भी नारे लगाने लगे।

पुलिस की एक और लारी आ लगी और लट्ठधारी सिपाही कूद-कूदकर उतरे।

"आज लाठी चलेगी।" यजमान ने कहा।

पर किसी ने कोई उत्तर न दिया।

सड़क के दोनों ओर भीड़ जम गई। सवारियों का आना-जाना रुक गया। शहरवाली सड़क पर से एक जुलूस बाग की तरफ बढ़ता हुआ नजर आया। फुटपाथ वाले भी उसमें जा-जाकर मिलने लगे। इतने में दो और जुलूस अलग-अलग दिशा से बाग की तरफ आने लगे। भीड़ जोश में आने लगी। मजदूर बाग के सामने आठ-आठ की लाइन बनाकर खड़े होने लगे। नारे आसमान तक गूँजने लगे और लोगों की तादाद हजारों तक जा लगी। सारे शहर की धड़कन मानो इसी भीड़ में पुंजीभूत हो गई हो! कई जुलूस मिलकर एक हो गए। मजदूरों ने झंडे उठाए और आगे बढऩे लगे। पुलिसवालों ने लाठियाँ उठा लीं और साथ-साथ जाने लगे।

फिर वह भीमाकार जुलूस धीरे-धीरे आगे बढऩे लगा। कनाट सरकस की मालदार, धुली-पुती दीवारों के सामने वह अनोखा लग रहा था, जैसे नीले आकाश में सहमा अँधियारे बादल करवटें लेने लगें! धीरे-धीरे चलता हुआ जुलूस उस ओर घूम गया जिस तरफ से पुलिस की लारियाँ आई थीं। ज्योतिषी अपनी उत्सकुता में बेंच के ऊपर आ खड़ा हुआ था। दमे का रोगी, अब भी अपनी जगह पर बैठा, एकटक जुलूस को देख रहा था।

दूर होकर नारों की गूँज मंदतर पडऩे लगी। दर्शकों की भीड़ बिखर गई। जो लोग जुलूस के संग नहीं गए, वे अपने घरों की ओर रवाना हुए। बाग पर धीरे-धीरे दुपहर जैसी ही निस्तब्धता छाने लगी। इतने में एक आदमी, जो बाग के आर-पार तेजी से भागता हुआ जुलूस की ओर आ रहा था, सामने से गुजरा। दुबला-सा आदमी, मैली गंजी और जाँघिया पहने हुए। यजमान ने उसे रोक लिया, "क्यों दोस्त, ज़रा इधर तो आओ।"

"क्या है?"

"यह जुलूस कहाँ जाएगा?"

"पता नहीं। सुनते हैं, अजमेरी गेट, दिल्ली दरवाजा होता हुआ लाल किले जाएगा, वहाँ जलसा होगा।"

"वहाँ तक पहुँचेगा भी? यह लट्ठधारी जो साथ जा रहे हैं, जो रास्ते में गड़बड़ हो गई तो?"

"अरे, गड़बड़ तो होती ही रहती है, तो जुलूस रुकेगा थोड़े ही," कहता हुआ वह आगे बढ़ गया।

दमे का रोगी जुलूस के ओझल हो जाने तक, टकटकी बाँधे उसे देखता रहा। फिर ज्योतिषी के कन्धे को थपथपाता हुआ, उसकी आँखों में आँखें डालकर मुस्कराने लगा। ज्योतिषी फिर कुछ सकुचाया, घबराया।

यजमान बोला, "देखा साले?"

"हाँ, देखा है।"

अब भी यजमान की आँखें जुलूस की दिशा में अटकी हुई थीं। फिर मुस्कराते हुए, अपनी उँगलियाँ—कटी हथेली ज्योतिषी के सामने खोल दी, "फिर देख हथेली, साले, तू कैसे कहता है कि भाग्य-रेखा कमजेार है?"

और फिर बाएँ हाथ से छाती को थामे जोर-जोर से खाँसने लगा।