भाग मिल्खा भाग, यही तेरा भाग्य है / जयप्रकाश चौकसे

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भाग मिल्खा भाग, यही तेरा भाग्य है
प्रकाशन तिथि : 06 दिसम्बर 2012


आमिर खान की फिल्म 'तलाश' के साथ राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फरहान अख्तर अभिनीत 'भाग मिल्खा भाग' की झलक दिखाई जा रही है और दर्शक की रुचि मार्च में प्रदर्शित होने वाली फिल्म के प्रति अंगड़ाई ले रही है। यह फिल्म के लिए अच्छा संकेत है। 'फ्लाइंग सिख' के नाम से मशहूर सरदार मिल्खा सिंह ने अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत को सम्मान दिलाया। वे एक जुझारू धावक रहे हैं। मिल्खा सिंह ने फिल्म की शूटिंग के लिए फरहान अख्तर को अपने जूते भी दिए थे, जिन्हें पहनकर वे उड़ते-से लगते थे। बहरहाल इस तरह के 'बायोपिक' में प्राय: यथार्थ के साथ कुछ काल्पनिक घटनाएं भी जोड़ी जाती हैं, परंतु इस फिल्म से मिल्खा सिंह प्रसन्न हैं और इसे विश्वसनीय भी कह चुके हैं।

इस खुशी के साथ ही एक दुख की खबर यह भी है कि ओलिंपिक आयोजन करने वाली संस्था ने भारत की सदस्यता निलंबित कर दी है, क्योंकि हमारी ओलिंपिक कमेटी के वार्षिक चुनाव में राजनीतिक दखलंदाजी खेल भावना के विपरीत है। विगत कई माह से संस्था भारतीय संगठन को पत्र लिख रही थी कि वे अपना कार्य नियमों के तहत करें, अन्यथा उन्हें निलंबित किया जा सकता है। हमारी संस्था ने चेतावनी को अनदेखा किया। संस्था यह मानकर चल रही थी कि उन्हें भंग नहीं किया जा सकता और यह मात्र गीदड़ भभकी है। उनको लगा कि जैसे भारत में अपनी राजनीतिक मांसपेशियां दिखाकर और चंद मुट्ठियां गरम करके अपनी अनियमितता को कायम रखा जा सकता है, वैसा ही यहां भी चलेगा। संसार के अधिकतम कार्य राजनीति के दायरे से परे होते हैं, परंतु भारत में सरकारें व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के मूल काम को छोड़कर अन्य सभी काम करती है। हमारे यहां जैसे सड़कों पर अवैध गतिरोधक बनाए जाते हैं, वैसे ही सरकारें प्रगति में गतिरोधक ही होती हैं।

अधिकांश औद्योगिक घरानों ने व्यवस्था में मौजूद भ्रष्टाचार का भरपूर लाभ उठाया है और भारतीय विकास भवन की नींव में ही भ्रष्टाचार है। दुनिया के अन्य देशों में उच्च स्तर पर रिश्वत दी जाती है, परंतु भारत में इसकी परचून की दुकानें हैं और हाथठेला पर भी यह काम होता है, इसलिए यहां आम आदमी का जीवन उससे प्रभावित है।

भारत में अनेक भूतपूर्व क्रिकेट खिलाड़ी पूरी तरह स्वस्थ एवं सक्षम हैं, परंतु संगठन राजनेता या दोयम दर्जे के खिलाड़ी चला रहे हैं। क्रिकेट संगठन में भी नेताओं की घुसपैठ है। जहां भी मांस का टुकड़ा है, राजनीतिक गिद्ध पहुंच ही जाते हैं। इसी तरह अन्य खेल संगठनों में भी नेता घुसे हैं और ऐसे लोगों के हाथ में बागडोर है, जिन्होंने बचपन में कोई खेल नहीं खेला है। खेलविहीन बचपन ही कुंठाग्रस्त युवा के रूप में सामने आता है। खेल भावना जीवन का ऊंचा मूल्य है। क्या वजह है कि हमारे देश में सारी गैर-राजनीतिक संस्थाओं पर भी राजनेताओं के अंकुश हैं? यह देश इस कदर फिल्ममय और राजनीति से ग्रस्त है कि कहीं भी सामान्य व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है और दुख की बात यह है कि इसी सामान्य व्यक्ति की कायरता के कारण अयोग्य लोग शीर्ष पर बैठे हैं।

सदियों की गुलामी ने हमारी आत्मा को ही गुलाम बना दिया है। अदूर की एक फिल्म में क्रांति के बाद तलवार एक सेवक के हाथ में है और निहत्था, लंपट जमींदार गिड़गिड़ा रहा है। वह सदियों से सेवक बना व्यक्तिनिहत्थे जमींदार को नहीं मार पाता। उसके हाथ कांपने लगते हैं। हम सब अपनी इसी मानसिकता के कारण अपनी खस्ता हालत के लिए जिम्मेदार हैं। हम 'जागते रहो' कहते-कहते ऊंघने लगते हैं।

भारत की ओलिंपिक कमेटी में मिल्खा सिंह नहीं हैं, पीटी उषा नहीं हैं, बेचारे पान सिंह तोमर तो चंबल की घाटी में ही मार दिए गए। आज हमारी संस्था का निलंबन राष्ट्रीय शर्म का मामला बन चुका है और सत्ता में बैठा कोई व्यक्ति शर्मसार नहीं है। उनका ख्याल है कि वे अपना ओलिंपिक प्रारंभ करेंगे और अन्य देशों की सदस्यता भंग कर देंगे। इसी तरह प्रांतीय क्षत्रप अपने प्रांत की भाषा, उसकी संस्कृति की गुहार लगाकर चुनाव हड़पकर राष्ट्रीय शीर्ष नेता बनने के सपने देख रहे हैं और संकीर्णता के इस दौर में वे कामयाब भी हो जाएंगे, क्योंकि आम आदमी स्वयं संकीर्णता का शिकार है। मिल्खा सिंह जैसे परिश्रमी और प्रतिभाशाली लोगों को संदेश दिया जा रहा है कि देश से भाग जा...पैरों में पंख लगाकर उड़ जा।