भाग - ग्यारह से तेरह / दिनकर कुमार
ग्यारह
भूपेन को भीषण आर्थिक संघर्ष करना पड़ रहा था। प्रियम बीच-बीच में आती थी और वापस बड़ौदा चली जाती थी। एक फिल्म में संगीत देने के बदले चार हजार रुपये मिलते थे। तब तक गीत गाने के बदले भूपेन पैसे नहीं लेते थे।
सन् 1960 में कलकत्ता में पोस्टर लगाया गया - ‘भूपेन हजारिका का खून चाहिए।' असम में चल रहे बांग्ला विरोधी आन्दोलन की प्रतिक्रिया में कलकत्ता में असमिया लोगों के खिलाफ घृणा का वातावरण तैयार हो रहा था। असम से सूर्य बोरा ‘शकुन्तला' फिल्म के सिलसिले में कलकत्ता गये थे और भूपेन के घर में ठहरे थे। बाहर निकलने पर उनकी हत्या कर दी गयी। उत्तम कुमार ने भूपेन को सन्देश भेजा कि जरा भी असुविधा महसूस हो तो वे उनके घर आकर रह सकते हैं। ज्योति बसु तब मंत्री नहीं बने थे। उन्होंने भूपेन को लाने के लिए गाड़ी भेज दी थी।
भूपेन जहां रहते थे, उस इलाके में ‘मस्तान' टाइप लड़कों ने उनसे कहा - ‘हम आपका बाल भी बांका होने नहीं देंगे। हमारी लाश पर चढ़कर ही कोई आप तक पहुंच सकता है। असम से भागे बंगाली सियालदह पहुंच चुके हैं। आपको असली खतरा उन लोगों से ही है।' भूपेन के खिलाफ पोस्टर चिपका रहे एक लड़के को ऋत्विक घटक ने थप्पड़ मारकर पूछा था - ‘किसने सिखाया है तुझे भूपेन हजारिका के खिलाफ पोस्टर लगाने के लिए ?' बाद में पता चला था कि एक संगीतकार के इशारे पर वैसा किया गया था।
एक दिन भूपेन बाहर से घूमकर घर लौटे तो नौकर ने बताया कि पैंतीस आदमी आये थे। कह रहे थे कि वक्त ठीक नहीं है। भूपेन दा से कहना रात नौ बजे के बाद कहीं गाने के लिए न जाएं।
20 अगस्त 1960 को असम के खिलाफ कलकत्ता की सड़कों पर जुलूस निकला था। उस दिन भूपेन महाजाति सदन के पास खड़े थे। उनके साथ कृष्णफली चाय बागान के समर सिंह थे। जुलूस आगे बढ़ रहा था। समर सिंह ने कहीं छिपने के लिए कहा। भूपेन ने कहा कि उन्हें कोई डर नहीं है। मगर समर सिंह नहीं माने। दोनों सोनागाछी चले गये। एक वेश्या के कोठे पर गये। वेश्या स्नान कर बाहर निकली। उसने कहा कि यह सब क्या हो रहा है। आज तो पूरा बाजार बन्द है, आप लोग कैसे आये ?
भूपेन ने अपना परिचय नहीं दिया। उन्होंने कहा कि वे रात गुजारना चाहते हैं। वेश्या ने उनके लिए भोजन का प्रबन्ध किया। फिर वह बोली - ‘आप लोग बैठिए, मैं जरा बाहर से आ रही हूं।' भूपेन को आशंका हुई कि कहीं गुण्डों को बुलाने के लिए तो नहीं जा रही है ! कुछ देर बाद वह ढेर सारे रिकार्ड लेकर लौटी। रिकार्ड प्लेयर पर वह रिकार्ड बजाने लगी। पहला गाना था भूपेन का ‘सागर संगमत', दूसरा गाना था भूपेन का, तीसरा और चौथा गाना भी भूपेन का ही था। वेश्या ने कहा - ‘सुना है असमिया-बंगाली के बीच कुछ हुआ है ? ऐसी हालत में आपलोग यहां क्यों आये हैं ? मैं यह धंधा जरूर करती हूं पर आपको दूर से देखने के लिए महाजाति सदन में जाती हूं। आफ गाने मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं असम जा चुकी हूं। एक चाय बागान के मालिक के साथ। नाम नहीं बताऊंगी। असम इतना प्यारा है। यह सब क्या हो रहा है।'
सुबह पौ फटते ही भूपेन ने महिला से विदा मांगी और अपने घर लौट आये। 1960 में असमिया विरोध का जो माहौल बना, उसका गहरा प्रभाव भूपेन पर पड़ा। उनको फिल्म का काम मिलना बन्द हो गया। प्रियम बड़ौदा में थी। भूपेन और नौकर को गुजारे के लिए हर महीने पांच सौ रुपये की जरूरत होती थी। पांच सौ रुपये का जुगाड कर पाना कठिन हो जाता था। काफी कर्ज हो गया था। गुवाहाटी में भी परिवार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था।
इसी दौरान भूपेन ने ‘आमार प्रतिनिधि' में स्तम्भ लिखना शुरू किया। मासिक दो सौ रुपये मिल जाते थे। भूपेन ने सोचा कि किसी तरह पैसों का जुगाड कर ‘शकुन्तला' बनायी जाए। उधार लेकर उन्होंने ‘शकुन्तला' का निर्माण किया। फिल्म काफी सफल हुई। ‘शकुन्तला' को श्रेष्ठ आंचलिक फिल्म का पुरस्कार मिला। इस फिल्म के चलने से भूपेन को आर्थिक रूप से कुछ राहत मिली। एक साल तक के लिए भूपेन निश्चिन्त हो गये।
भूपेन ने कम बजट में एक हास्य आधारित फिल्म ‘लटिघटी' बनायी, जिसकी शूटिंग उन्होंने तेरह दिनों में पूरी की। भूपेन को प्राग जाने का निमंत्रण मिला। प्राग से लौटने के बाद भूपेन असम गये और हेमांग विश्वास के साथ सांस्कृतिक टोली बनाकर जगह-जगह घूमते हुए असमिया-बंगाली सद्भाव का सन्देश देने लगे। तत्कालीन मुख्यमंत्री विमला प्रसाद चालिहा ने लगभग रोते हुए भूपेन से कहा था कि वे स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं और उनके जैसे कलाकार ही कुछ कर सकते हैं। भूपेन को कई तरह की धमकियों का भी सामना करना पड़ा, परन्तु धैर्य खोए बिना उन्होंने अपना सांस्कृतिक अभियान जारी रखा। उत्पल दत्त ने ‘न्यू एज' में लिखा -‘भूपेन हजारिका की तरह कौन कलाकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए सड़क पर उतरता है ? क्या हम उतरते हैं ? क्या हमने कलकत्ता में ऐसा कोई प्रयास किया है ?'
बारह
‘लटीघटी' बनाने के बाद भूपेन ने खासी समुदाय की पृष्ठभूमि पर ‘प्रतिध्वनि' फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म को पेरिस फिल्म महोत्सव में दिखाया गया। पैसे की कमी के कारण भूपेन फ्रेंच में फिल्म के सबटाइटल की व्यवस्था नहीं कर पाए।
इस बीच भूपेन के दाम्पत्य जीवन में दरार बढ़ता जा रहा था। दस सालों के अन्तराल के बाद अचानक भूपेन की प्रेमिका को प्रियम अपने साथ घर लेकर आयी। उस दिन भूपेन को बुखार था। तब बड़ौदा से प्रियम आयी थी। उस दिन कलकत्ता के एक क्लब में एक असमिया परिवार ने दावत दी थी और भूपेन को आमंत्रित किया था। भूपेन जा नहीं पाए। दावत में प्रियम गयी थी। वहीं प्रियम की मुलाकात भूपेन की पूर्व प्रेयसी से हुई, जो किसी और की पत्नी थी। दोनों में घनिष्टता हो गयी। प्रियम के साथ वह अक्सर भूपेन के घर आने लगी। भूपेन प्रथम प्रेम को भूल नहीं पाये थे और इतने दिनों के बाद उसे पाकर पिघलने लगे थे।
इसी तरह बम्बई की एक मशहूर कलाकार जब कलकत्ता आती थी तो भूपेन के घर में ठहरती थी। उसने प्रियम से कहा कि वह भूपेन जैसे जीनियस कलाकार की देखभाल ठीक से नहीं कर पा रही है। एक दिन भूपेन और प्रियम उस कलाकार को विदा करने हवाई अड्डे पर गये। कलाकार ने प्रियम के साथ एकान्त में बातचीत की और विमान पर सवार हो गयी। प्रियम रोने लगी। भूपेन ने रोने की वजह पूछी तो प्रियम ने बताया - ‘वह कह रही थी कि मुझसे ज्यादा वह तुमसे प्यार करती है।'
पूर्व प्रेमिका के साथ भूपेन का मेलजोल बढ़ता गया। उसके पति को भी मामला समझ में आ गया। उसने दोस्ती का सम्मान किया। चारों एक साथ फिल्म देखने जाने लगे, होटल में खाना खाने लगे।
सन् 1950 में भूपेन ने प्रियम से विवाह किया था। 1963 में दोनों ने तय किया कि विवाह बन्धन से मुक्त हो जाना उचित होगा। भूपेन ने सिद्घार्थ शंकर राय को अपना वकील बनाया। दोनों ने तलाक ले लिया। भूपेन ने मुस्कराते हुए हावड़ा स्टेशन पर प्रियम को अलविदा कहा। प्रियम कनाडा में रहती है। भूपेन जब भी जाते हैं, प्रियम से जरूर मिलते हैं।
तलाक के बाद प्रियम का छोटा भाई यादवपुर विश्वविद्यालय में पढ़ने आया तो वह भूपेन के साथ ही रहने लगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में उच्च पढ़ाई करने चला गया, जहां से उसने भूपेन को खत लिखा कि वह भूपेन की छोटी बहन रूबी से ब्याह करना चाहता है। भूपेन ने प्रियम के साथ सलाह-मशविरा किया। प्रियम ने अपनी सहमति दे दी और कहा कि रूबी को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। भूपेन ने रूबी का ब्याह प्रियम के भाई के साथ करवा दी।
दाम्पत्य जीवन से मुक्त होने के बाद भूपेन खुद को काफी एकाकी महसूस करने लगे और काफी शराब पीने लगे। रात-रात भर घर से बाहर रहने लगे।
सन् 1965 तक भूपेन कहीं गाने जाते थे तो उसके लिए पैसे नहीं लेते थे। उनकी आदत-सी बन गयी थी कि हर कार्यक्रम के लिए एक नये गीत की रचना जरूर करनी है। सन् 1965 में जोरहाट के इण्टर कॉलेज में गायन प्रस्तुत करने के बाद भूपेन को हवाई यात्रा के अलावा पारिश्रमिक के रूप में पांच सौ रुपए मिले थे।
भूपेन को बार-बार यह अहसास सालता था कि अपने परिवार को वे कुछ ठोस मदद नहीं दे पा रहे थे। मां को लकवा मार गया था। भूपेन की मां पहले सामाजिक कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाती थी। उन्होंने असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से हिन्दी की पढ़ाई भी की थी।
छोटा भाई अमर हजारिका दो बार टीबी का शिकार हो चुका था। भूपेन ने अमर को एक छोटा प्रेस खोलने में सहायता की थी। एक और भाई प्रवीण हजारिका नेफा में नौकरी करते थे। बाद में लन्दन में अध्यापक की नौकरी मिल गयी। छोटे भाई-बहनों को भूपेन कलकत्ता के घर में बुलाकर रखते थे और सबकी पढ़ाई-लिखाई और रोजगार की चिन्ता करते थे।
भूपेन के छोटे भाई जयन्त हजारिका ने गायक के रूप में जबर्दस्त प्रसिद्घि हासिल की थी। अल्पायु में जयन्त की मौत हो गयी। जयन्त की दर्दीली आवाज के प्रशंसक असम के लोग आज भी हैं।
सन् 1966 में भूपेन के पिता का देहान्त हो गया। श्राद्घ में विष्णुप्रसाद राभा, फणि बोरा आदि आये थे। विष्णुप्रसाद राभा ने भूपेन से कहा था - ‘क्या तू लेटर टू एडीटर ही बना रहेगा ? आर्ट के क्षेत्र में कुछ करने के लिए विधानसभा के भीतर जाना होगा। वहीं अपनी बात को कानून बना सकोगे।' फणि बोरा ने नाउबैसा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का सुझाव दिया। भूपेन ने कहा कि वे पहले नाउबैसा इलाके का दौरा करेंगे, उसके बाद कोई फैसला करेंगे।
भूपेन जब लखीमपुर पहुंचे तो अनगिनत प्रशंसकों को पाकर अभिभूत हो गये। युवाओं ने कहा कि देवकान्त बरुवा ने जो उम्मीदवार खड़ा किया है, वह एक नम्बर का गुण्डा है, जो बान्ध तोड़कर नये सिरे से बान्ध बनाने का ठेका लेता है। दूसरे प्रतिद्वन्द्वियों ने कहा कि अगर भूपेन चुनाव लड़ना चाहेंगे तो वे भूपेन का समर्थन करेंगे। भूपेन कोई निर्णय लिए बिना कलकत्ता लौट गये। इसी बीच अखबारों में छपा कि भूपेन हजारिका चुनाव लड़ने वाले हैं। माकपा की असम शाखा ने कहा कि वह भूपेन का समर्थन करेगी।
सन् 1967 में भूपेन ने चुनाव लड़ा और देवकान्त बरुवा के उम्मीदवार को चौदह हजार मतों से पराजित किया। उस साल भूपेन के साथ-साथ विष्णुप्रसाद राभा, लक्ष्यधर चौधरी, सतीनाथ देव और महीधर पेगू जैसे साहित्यकार व्यक्ति एम. एल. ए. बनकर असम की तत्कालीन राजधानी शिलांग पहुंचे थे।
सन् 1967 से 1971 तक विधायक रहते हुए भूपेन तीन महीने शिलांग में गुजारते थे। शेष नौ महीने संगीत और फिल्म में व्यस्त रहते थे। वे निर्दलीय उम्मीदवार थे और उन्होंने शुरू में ही कह दिया था कि विपक्ष में रहकर वे जनहित के सवालों को उछालते रहेंगे।
तेरह
अपने बारे में भूपेन हजारिका ने लिखा है - ‘असम की मिट्टी मुझे गलत तो नहीं समझेगी' - यह संवाद मैंने जयन्त दुवरा नामक एक काल्पनिक चरित्र के मुंह से कहलवाया था ‘एरा बाटर सुर' फिल्म में। चरित्र मेरा ही था। मैंने स्वाभिमान के साथ कहा था - गलत तो नहीं समझेगी, क्योंकि मैं कुछ दिनों के लिए असम से बाहर जाऊंगा। जो असुविधा हो रही थी, वह दिखा दिया गया था। जाने के रास्ते में कुछ बाधाएं थीं, उन्हें हटाकर वह क्षितिज की ओर चला गया। वैसा रूठकर मैंने लिखा था। असम की मिट्टी ने मुझे कभी गलत नहीं समझा। असम की मिट्टी ने जवाब दिया है, करोड़ों लोगों ने जवाब दिया है, स्वीकार किया है, स्नेह दिया है। वैसा मैंने यूं ही कहा था। जिस तरह मां से रूठकर कहा जाता है। वैसा कहने में कोई घृणा का भाव नहीं था।
... मैंने 13 साल की उम्र में ‘अग्नियुगर फिरिंगति' गाना लिखा था और दस साल की उम्र में शंकरदेव के बारे में गाना लिखा था। जब सन् 1946 में ‘अग्नियुगर फिरिंगति' को ज्योतिप्रसाद आगरवाला ने फिल्म में स्थान दिया तो मुझे प्रोत्साहन मिला। ज्योतिप्रसाद आगरवाला ने मुझसे कारेंगर लिगिरी, शोणित कुंवरी के गाने गवाए, ‘इन्द्र मालती' फिल्म में मुझे अपना गीत ‘विश्व विजयी न जबान' गवाया। मुझ पर प्रभाव पड़ा कि अपनी मिट्टी की गन्ध से प्यार करना चाहिए। ज्योतिप्रसाद आगरवाला एवं विष्णुप्रसाद राभा ने बचपन में मुझे यह प्रेरणा दी। जब मैं विदेश गया तो वहां भी देखा, पॉल राबसन जैसे कलाकार नये-नये प्रयोग कर रहे हैं। वहां से लौटकर ‘डोला हे डोला' और ‘सागर संगमत' जैसे गीतों की मैंने रचना की। मैं खुद ही गीत लिखता हूं, खुद ही धुन तैयार करता हूं, खुद ही गाता हूं, इसीलिए अपने गीत की शैली के बारे में खुद ही कोई राय नहीं दे सकता। अगर मेरी रचना में किसी को विशेष शैली नजर आती है तो शायद विषयवस्तु के कारण नजर आती है।
मैंने कई गीत फिल्मों या नाटकों के किरदारों को ध्यान में रखकर लिखा है। उन गीतों से मेरे दर्शन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
... मैं एक सफल गायक हूं या नहीं, कह नहीं सकता। मेरी आवाज जन्मजात देन है। संगीत सीखे बिना मैं बचपन में गाने लगा था -तोते की तरह। पांच साल की उम्र से ही लोग मेरे गीत की सराहना करते रहे हैं। जब मैं युवावस्था में पहुंचा, तब मैंने महसूस किया कि मुझे बहुत कुछ सीखना है। और मैंने लगातार सीखने का प्रयास किया है।
जब मैं मंच पर गाता हूं, भावुक हो जाता हूं, ऐसे लोगों का कहना है। तब मैं अपने-आप को भूल जाता हूं। गाते समय मैं इस कदर रम जाता हूं कि सब कुछ भूल जाता हूं। गीत के एक-एक शब्द को मैं अनुभव करता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैं उन शब्दों को महसूस कर पाऊंगा तो श्रोता भी उनको अच्छी तरह महसूस कर पाएंगे।
मैं जीवन भर सीखता रहा हूं। एकलव्य की तरह कई लोगों से मैंने प्रेरणा ग्रहण की है। बहस करता रहा हूं और सीखता रहा हूं। मैंने पॉल राबसन से पूछा था-- आपने अमुक जगह वह गाना गाया था, यहां क्यों नहीं गाया ? पॉल राबसन ने कहा था-- ‘गीत मेरे लिए हथियार है। जहां जिस हथियार की जरूरत होती है, उसी का इस्तेमाल करता हूं।'
मैं जब गीत लिखता हूं तो उसमें तत्कालीन समय का चित्र होता है। तब मैं यह मानकर नहीं चलता कि गीत भविष्य में भी उतना ही प्रासंगिक रहेगा। गीत रचने का नियम पता हो तो नियम तोड़ने का साहस किया जा सकता है। मुझे ऐसे गीत अच्छे लगते हैं, जिसमें मिट्टी की गन्ध और आम आदमी के दिल की बात शामिल हो। जिन धार्मिक गीतों में भगवान कृष्ण हम जैसे मनुष्य बन गये हैं, वैसे गीत मुझे पसन्द हैं। फिल्म के संगीतकार के रूप में मेरा मानना है कि संगीत के जरिए मुझे फिल्म को नियंत्रित नहीं करना है। फिल्म की गति को आगे बढ़ाने के लिए मैं संगीत का इस्तेमाल करता हूं।
जब कोई घटना या व्यक्ति का कोई पल मुझे सोचने के लिए मजबूर करता है तो मैं उसे पकड़ने की कोशिश करता हूं। जब तक ऐसा कर नहीं लेता, काफी मानसिक परिश्रम करना पड़ता है। प्रत्येक गीत का आदि, मध्य और अन्त होता है। मोती की तरह किसी गीत को चमकाने के लिए सोचने का वक्त चाहिए। हर तरह का सृजन प्रसव वेदना के समान होता है।
मैं अपने गीत ‘सागर संगम' को अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानता हूं। पूरी दुनिया के बारे में सोचते हुए मैंने इस गीत की रचना की थी। इस गीत की रचना मैंने स्वदेश लौटते हुए की थी। मगर इसे सम्पूर्ण करने में काफी समय लगा था।
पर्फार्मिंग आर्टिस्ट के रूप में मुझे जनता का अपार स्नेह मिलता रहा है। रात-रात भर हजारों लोग मुझे सुनने के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं। दमदम स्टेशन पर अन्धे भिखारी मेरे गीत गाकर भीख मांगते हैं। मेरे लिए यह स्वीकृति सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के स्वर्ण पदक से कहीं बढ़कर है।
भूपेन हजारिका के नाम पर गुवाहाटी में 2001 में ‘भूपेन हजारिका ट्रस्ट' की स्थापना हुई। यह ट्रस्ट भूपेन संगीत का संरक्षण का काम करेगा। संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में भूपेन हजारिका ने असम के सत्रीया नृत्य को भारतीय शास्त्रीय नृत्य के रूप में मान्यता दिलवायी है।
जैसा कि प्रत्येक किंवदन्ती पुरुष के साथ होता है, भूपेन हजारिका के खिलाफ भी असम के अखबारों में काफी कुछ लिखा जाता रहा है। कल्पना लाजमी के साथ उनके सम्बन्ध को लेकर इन अखबारों ने हमेशा आक्रामक तेवर अपनाया है। सन् 1971 में भूपेन आत्माराम की फिल्म ‘आरोप' में संगीत देने के लिए मुम्बई गये थे। कल्पना लाजमी गीता दत्त की बहन की बेटी है। तभी उससे उनका परिचय हुआ था। पहले श्याम बेनेगल की सहायक थी। बाद में भूपेन हजारिका की ‘स्थायी सचिव' बन गयी। ‘एक पल', ‘रूदाली', ‘दमन' जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाली कल्पना लाजमी ने ‘सानन्दा' को दिये एक साक्षात्कार में कबूल किया था कि वह भूपेन हजारिका के साथ ‘लिव टूगेदर' के सिद्घान्त के तहत जीवन यापन कर रही है। असम के कला समीक्षक मानते हैं कि कल्पना लाजमी ने भूपेन हजारिका को असम से दूर करने का प्रयास किया है और भूपेन हजारिका का ‘अधिकाधिक व्यावसायिक उपयोग' वह करती रही है।
गुवाहाटी में एक संवाददाता सम्मेलन में कल्पना और पत्रकारों के बीच झड़प भी हो चुकी है। कल्पना अपने साक्षात्कार में कह चुकी है कि वह भूपेन हजारिका की सेहत को ध्यान में रखते हुए कुछ बंदिशें लगाती रही है, जिसे लेकर असम के लोग बुरा मानते रहे हैं।
भूपेन हजारिका के जिन गीतों का अनुवाद नरेन्द्र शर्मा एवं गुलजार ने हिन्दी में किया है, वे गीत देश-विदेश में काफी लोकप्रिय हुए हैं। भूपेन ने अपने पुराने गीतों के धुनों को कल्पना की फिल्मों में इस्तेमाल किया है। समीक्षक मानते हैं कि ‘दमन' और बाद के म्यूजिक एलबमों में अनुवाद का स्तर सही नहीं है, क्योंकि स्तरीय गीतकारों ने उनका अनुवाद नहीं किया है।
किंवदन्ती पुरुष भूपेन हजारिका आज असम की जनता के हृदय में वास करते हैं। अपने बारे में भूपेन हजारिका ने कहा भी है-- ‘मुझे बुढापे का अहसास सताता नहीं है। मेरी जीवन-लालसा अभी भी खत्म नहीं हुई है। मैं इस धरती पर बहुत दिनों तक जीवित रहना चाहता हूं। पहले सोचता था गाते-गाते जब पचास साल पूरे हो जाएंगे तो गाना छोड दूंगा। किसी एकान्त में जाकर बैठ जाऊंगा। मगर मनुष्य के जीवन की राह पहले से निर्धारित नहीं होती, यह बात मैं आज महसूस कर रहा हूं। अब सोचता हूं, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए सेवानिवृत्त होना जरूरी नहीं है।' अगला भाग >>