भाग 14 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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अभियोग लिखाकर क्या तीर मार लिया?

वर्ष 1971 में जब मेरी नियुक्ति एस.पी.बस्ती के पद पर हुई, तो मुझे अपने स्कूली दिनों में खरीदी हुई एटलस निकालकर और उस पर जमी गर्द साफकर बस्ती की भौगोलिक स्थिति ज्ञात करनी पड़ी थी। फिर जब बस्ती पहुँचकर मैंने उसके विषय में अपनी अज्ञानता का जिंक्र किया तो वहाँ के लोगों ने मुझे सांत्वना देते हुए बताया था कि प्रथम बार जब भारतेंदु हरिश्चंद्र भी वहाँ आए थे तो इस नगर के विषय में उन्होंने अपने उद्गार इस प्रकार प्रकट किए थे :

'बस्ती को बस्ती कहें, तो का को कहें उजाड़?'

बस्ती की यह स्थिति आश्चर्यजनक थी क्योंकि वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार बस्ती प्रदेश भर में सबसे अधिक आबादी वाला जनपद था। वहाँ चौदह विधायक थे, जिनमें कुछ मतलबपरस्ती में निपुण अवश्य थे परंतु कोई नामी अपराधी नहीं था। उन दिनों हमारी राजनैतिक पार्टियाँ जातियों के नाम पर बँटी हुईं नहीं थीं और जनता बेईमानों को तो विधायक बना देती थी परंतु आजकल की तरह मतदान करते समय उसकी वरीयता कुख्यात हत्यारों, अपहर्ताओं एवं माफियाओं के लिए नहीं होती थी। उन विधायकों में से एक 'पा' का पैसा कमाने का तरीका था - मिडिल स्तर के अधिकारियों को धमकाना और धमकी में न आने पर शिकायत कर उनके विरुद्ध जाँच प्रारम्भ करवा देना। साम-दाम-दंड-भेद में निपुण होने के कारण उसने लखनऊ के राजनैतिकों में उच्चतम स्तर पर एवं गोरखपुर में नियुक्त मेरे डी.आई.जी. पर अपनी अच्छी पकड़ बना रखी थी।

एक दिन जब मैं अपने आफिस में कार्य कर रहा था, उपाधीक्षक पुलिस श्री पाठक, जो एकाउंट्स का कार्य देखते थे, मेरे कमरे में सूखा-सा चेहरा लेकर प्रवेश हुए और कहने लगे, 'सर, 'पा' विधायक जी अभी मुझसे अकड़ रहे थे कि उनके शैडो का टी.ए. बिल पास करने में क्यों देर हो रही है? मेरे यह कहने पर कि वह आपत्तिजनक प्रतीत होता है, विधायक जी मुझे देख लेने की धमकी देकर गए हैं।'

मेरे यह पूछने पर कि बिल में क्या गड़बड़ी है, उपाधीक्षक ने बताया, 'शैडो का मासिक वेतन तो सवा सौ रुपए है और मासिक टी.ए. बिल हजा़र रुपए के आसपास का आता है, जो सही हो ही नहीं सकता है और मैं डरता हूँ कि उसे पास कर देने पर आडिट में मैं न पकडा़ जाऊँ। पिछले माह मेरे द्वारा बिल पास करने में देर होने पर डी.आई.जी. साहब ने फोन कर कहा था कि जब बिल एम.एल.ए. द्वारा सत्यापित है तो मुझे तुरंत पास कर देना चाहिए। पिछले माह तो मैंने बिल पास कर दिया था, पर अब बिल और बढ़कर आया है और मेरी पास करने की हिम्मत नहीं पड़ रही है, अतः आप बताएँ कि इस बिल का मैं क्या करूँ।'

मैंने बिल को ध्यान से पढ़ा और पाया कि शैडो द्वारा कई दिवसों पर विधायक जी के साथ बस्ती रेलवे स्टेशन से फर्स्ट क्लास में यात्राएँ की गई दिखाई गई थीं। उन दिनों बस्ती जैसे छोटे स्टेशन पर यदा-कदा ही कोई फर्स्ट क्लास का टिकट बिकता था। अतः मैंने उपाधीक्षक को बिल को लेकर स्टेशन मास्टर के पास जाने और पूछने को कहा कि उन दिवसों पर फर्स्ट क्लास का कोई टिकट बस्ती स्टेशन से बिका था या नहीं। स्टेशन मास्टर ने लिखकर दिया कि उन दिनों कोई फर्स्ट क्लास का टिकट बस्ती स्टेशन से नहीं बिका था। स्पष्ट हो गया कि बिल फर्जी था जो विधायक जी द्वारा प्रमाणित किया गया था। अतः मैंने विधायक सहित शैडो के खिलाफ धोखाधड़ी, गबन का प्रयास और आपराधिक षड्यंत्र का मुकदमा कायम करा दिया।

विधायक जी को जब उनके विरुद्ध मुकदमा कायम होने की बात पता चली, तो उन्होंने मुझे बस्ती जनपद से दण्डित कर हटाने हेतु एक अनोखी योजना गढ़ डाली। उन्होंने एक टेलीग्राम स्पीकर, चीफ मिनिस्टर और आई.जी. के नाम भेजा जिसमें आरोप लगाया, 'कल शाम छह बजे जब मैं अपने विधान सभा क्षेत्र में सायकिल से /शेडो के बिना अकेला/ जा रहा था तो एक पुलिस जीप ने आकर मुझे घेरा और चार सिपाहियों ने उतरकर मुझ पर लाठियों से हमला करना चाहा कि मैंने अपनी रिवाल्वर निकालकर उन पर फा़यर कर दिया, जिससे वे सिपाही पुनः जीप में चढ़कर भाग गए। उस जीप में आगे कप्तान साहब बैठे हुए थे।'

दूसरे दिन विधायक जी ने लखनऊ पहुँचकर विधान सभा में रो-रो कर अपनी व्यथा कथा बखानी और आगे जोड़ा कि भगवान की विशेष कृपा है कि विधायकगण आज उन्हें जीवित देख रहे हैं अन्यथा कप्तान साहब का इरादा तो उन्हें जान से मारने का था। इतना सुनते ही विधान सभा में एकमत माँग हुई कि जब तक कप्तान को निलम्बित नहीं किया जाएगा, विधान सभा नहीं चलने दी जाएगी और विधान सभा स्थगित हो गई। फिर आई.जी. ने फोन पर मुझसे पूछा कि कल शाम तुम्हारे जनपद में 'पा' विधायक पर हमला हुआ था? मेरे यह कहने पर कि ऐसी किसी घटना की सूचना नहीं है, उन्होंने कहा कि विधायक का आरोप है कि शाम छह बजे उनके क्षेत्र में जीप पर सवार चार सिपाहियों ने उन पर हमला किया और उस जीप पर मैं भी बैठा था। इस पर मैंने उत्तर दिया कि कल शाम छह बजे तो मैं श्री अब्बासी, मंत्री के घर उनकी भाभी की मृत्यु हो जाने के कारण सम्वेदना प्रकट करने गया हुआ था और वहाँ लगभग आधा घंटा उपस्थित रहा था। आई.जी. साहब मेरी बात से आश्वस्त हो गए और तदनुसार उन्होंने मुख्य मंत्री को अवगत करा दिया। परंतु विधायकगण इस पर भी संतुष्ट नहीं हुए और अंत में प्रकरण में 'जुडीशियल इन्क्वाइरी'कराये जाने पर फैसला हुआ। छह-सात माह की जाँच के बाद जज साहब ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि विधायक जी को जब लगा कि वह अपने विरुद्ध लिखाए गए मुकदमे में बंदी बना लिए जाएँगे तो कप्तान साहब को स्थानांतरित कराकर मामला टालने के उद्येश्य से उन्होने षड्यंत्र कर मनगढ़ंत आरोप विधान सभा में लगाया। यह रिपोर्ट विधान सभा के निर्देशानुसार जज साहब द्वारा वहाँ भेजी गई; परंतु रिपोर्ट पर माननीय विधान सभा द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई।

इस बीच मेरे द्वारा लिखाए गए मुकदमे की विवेचना सी.आई.डी. को सौंपी जा चुकी थी और मेरा स्थानांतरण जनपद सहारनपुर को हो चुका था। फिर विधान सभा अपना कार्य काल पूरा करने के बाद भंग हो गई और पुनः चुनाव हुआः तत्कालीन जनता आपराधिक कार्यों के प्रति आज की तरह असम्वेदनशील नहीं थी और 'पा' महोदय चुनाव हार गए।

परंतु नाटक का नाटकीय पटाक्षेप अभी शेष था। उस चुनाव के अगले चुनाव 'पा' महोदय दल बदलकर चुनाव जीत गए। इस बीच सी.आई.डी. ने मुकदमे चार्ज-शीट दाखिल कर दी थी और लखनऊ की विशेष अदालत में मुकदमा चलने लगा था। चूँकि 'पा' और उनके शैडो के विरुद्ध समस्त गवाही लिखित रूप उपलब्ध थी, अतः सजा से बचने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। तभी तत्कालीन सत्ताधारी जनता पार्टी फूट पड़ गई और श्री बनारसीदास, मुख्य मंत्री, के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव आ गया। 'पा' महोदय के लिए तो जैसे बिल्ली के भाग से छींका टूटा। वह अविलम्ब मुख्य मंत्री से मिले और उनके सामने प्रस्ताव रखा कि यदि शासन उनके विरुद्ध चलने वाला मुकदमा वापस ले ले तो वह अविश्वास प्रस्ताव मतदान के समय उनके पक्ष वोट दे देंगे। बस क्या था - उसी दिन 'जनहित' मुकदमा वापस लेने का प्रार्थना-पत्र न्यायालय प्रस्तुत कर दिया गया और न्यायालय ने उसे 'जनहित' स्वीकार कर लिया।

'पा' महोदय बेदाग बरी हो गए और कुछ वर्ष बाद बीसवीं सदी के दसवें दशक में जब शासन अपराधियों की चाँदी होने लगी, तो 'जनहित' 'पा' महोदय प्रदेश के मंत्री पद पर विराजमान कर दिए गए। उन्होंने अविलम्ब अपने साथ फँसे उस शैडो केा 'जनहित' में प्रोन्नति दिला दी। मैं यह तो आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि शासन का धन बन करने वालों को दंड से बचाने में किस प्रकार से जनहित होता है; हाँ, इतना अवश्य समझ गया हूँ कि हमारे देश के नेता न्यायिक प्रक्रिया से ऊपर की चीज हैं और उन्हें उनके अपराधों के लिए दण्डित कराने का प्रयत्न करने की अपेक्षा अपना सिर पत्थर टकरा लेने अधिक बुद्धिमानी है।