भाग 15 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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अब एक कत्ल कर सकता है

वर्ष 1969 मेरे एक सहपाठी डिप्टी मिनिस्टर बना दिए गए थे। उनके रिश्ते के एक साले ने एक भैंस चुरा ली थी। पुलिस ने जब उसे पकड़ने को उसके घर पर दबिश दी, तो वह लखनऊ अपने जीजा (उपमंत्री जी) के पास भाग आया और जीजा से थानेदार का अविलम्ब स्थानांतरण करवाने को कहा। डिप्टी मिनिस्टर ने उससे पूछा कि यह बताओ कि भैंस सचमुच चुराई है या नहीं? इस पर वह नाराजगी के साथ बोला,

'जब जीजा मंत्री हुइ गए हैं, तौ हम भैंसऊ नाईं चुराइ सकत हैं?'

साले साहब का यह उत्तर साधारण भारतीय की सोच को प्रदर्शित करता है कि शक्ति प्राप्ति की सार्थकता उसके निर्द्वंद्व दुरुपयोग ही है। मैं अपने गाँव भी कतिपय ग्रामवासियों को ऐसी बातें करते हुए सुना करता था कि बीस हजार रुपए इकट्ठा हो जाने पर एक कत्ल किया जा सकता है। इस धारणा के पीछे न्यायिक व्यवस्था की क्षमता पर अविश्वास भी परिलक्षित होता है। इस धारणा का सत्य मुझे बस्ती जनपद पुलिस अधीक्षक पद पर नियुक्ति के दौरान उजागर हुआ।

एक गाँव में हत्या की सूचना पर मैं मौका मुआयना के लिए वहाँ गया। उस गाँव का एक व्यक्ति सहायक चकबंदी अधिकारी के पद पर जनपद गोंडा नियुक्त था - उन दिनों चकबंदी विभाग के कर्मियों की चाँदी ही चाँदी रहती थी। उस व्यक्ति ने एक नई दुनाली बंदूक खरीदी थी जिसे लेकर वह छुट्टी पर अपने गाँव आया हुआ था। एक दिन पड़ोसी से उसके घरवालों का भैंस बाँधने की जगह को लेकर वाद-विवाद हो गया। चूँकि इस चकबंदी अधिकारी ने बीसियों हजा़र रुपए जमा कर लिए थे, अतः वह कम से कम एक कत्ल कर देने का अपना कानूनी हक समझता था। अतः उसने आव देखा न ताव और अपनी नई दुनाली निकालकर दो गोलियाँ पड़ोसी के सीने झोंक दीं और बंदूक लेकर गाँव से चला गया। यद्यपि दिन की घटना होने के कारण अनेक ग्रामीणों ने घटना देखी थी, पर आतंकवश मृतक के घरवालों को छोड़कर कोई व्यक्ति कुछ कहने को तैयार नहीं था। मैं थानाध्यक्ष को शीघ्र अभियुक्त की गिरफ्तारी करने और अधिक से अधिक साक्ष्य एकत्र करने के निर्देश देकर बस्ती वापस चला आया।

बस्ती आकर मैंने जिलाधिकारी गोंडा को रजिस्टर्ड पत्र लिखा कि उनके अधीनस्थ अभियुक्त (सहायक चकबंदी अधिकारी) को निलम्बित किया जाए और पुलिस के सुपुर्द किया जाए। मेरे दो पत्रों का जिलाधिकारी कार्यालय से कोई उत्तर नहीं आया और पता चला कि जिलाधिकारी द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई है। तब मैंने पुलिस महानिरीक्षक के सहायक को लिखा कि हत्याभियुक्त के विषय जिलाधिकारी, गोंडा के यहाँ न तो निलम्बन की कार्यवाही की जा रही है और न कोई उत्तर आ रहा है, अतः शासन को लिखकर जिलाधिकारी को कार्यवाही करने के निर्देश निर्गत कराये जाएँ। इस पर पुलिस महानिरीक्षक के सहायक ने प्रकरण को शासन को संदर्भित कर दिया। फिर भी सहायक चकबंदी अधिकारी केा निलम्बित नहीं किया गया और लगभग चार माह बाद मेरे पास जिलाधिकारी, बस्ती (गोंडा का नहीं) का पत्र आया कि शासन से प्राप्त पत्र के अनुसार उन्हें उस सहायक चकबंदी अधिकारी के प्रकरण में जाँच सौंपी गई है, अतः मैं बताऊँ कि मुझे उससे क्या शिकायत है। चूँकि नियमानुसार जिलाधिकारी, बस्ती उस सहायक चकबंदी अधिकारी के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही करने हेतु सक्षम नहीं थे और पुलिस द्वारा की जाने वाली विवेचना हस्तक्षेप का भी अधिकार उन्हें नहीं था, अतः मैं समझ गया कि उसके निलम्बन हेतु शासन को संदर्भित पत्र में रुपए के पहिए लगा दिए गए हैं जो उस प्रकरण को गलत दिशा में भटका रहे हैं। जिलाधिकारी, बस्ती को मेरे द्वारा उत्तर लिख दिया गया कि यह जिलाधिकारी, गोंडा द्वारा हत्याभियुक्त को निलम्बित किए जाने का विषय है। सम्भवतः उनके कार्यालय से शासन को तदनुसार लिखकर प्रकरण वापस भेज दिया गया होगा, पंरंतु वह अभियुक्त फिर भी निलम्बित नहीं हुआ।

मरे द्वारा थानाध्यक्ष पर सहायक चकबंदी अधिकारी की गिरफतारी का दबाव डालने पर वह चुपचाप न्यायालय उपस्थित हो गया जहाँ से उसकी बिना 'झगडा़-टंटा' के जमानत हो गई। अभियुक्त की बंदूक बड़े दिनों बाद आर्म्स डीलर के यहाँ से बरामद हुई और सम्भवतः उसके घोड़े में परिवर्तन कर देने के कारण घटनास्थल से बरामद खोखे से उसका मिलान सही नहीं निकला। पुलिस द्वारा घटनास्थल पर मृतक का पंचायतनामा तैयार किया गया था, उस उनके द्वारा देखी गई चोटों का जो वर्णन था, अस्पताल के डाक्टर ने अपनी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उससे भिन्न चोटें होना लिखीं। इस प्रकार कानूनी प्रक्रिया के समस्त कारकुनों ने कर्तव्य की अपेक्षा लक्ष्मी को अधिक सम्मान दिया।

यद्यपि अभियुक्त के विरुद्ध उपलब्ध साक्ष्य काफी कमजोर था, तथापि प्रकरण का व्यक्तिगत ज्ञान होने के कारण मैंने थानाध्यक्ष को चार्ज शीट लगाने का निर्देश दिया। भाग्यवश यह प्रकरण एक ऐसे न्यायाधीश, श्री सिद्दीकी, के न्यायालय में प्रस्तुत हुआ जो बड़े हाजी-नमाजी किस्म के इनसान थे। एक शाम वह अपनी पत्नी के साथ मेरे घर आए और मुझे तब आश्चर्य हुआ जब इस हत्याकांड के विषय उन्होंने स्वयं बातचीत छेड़ दी और मुझसे कहने लगे, 'आप तो इस हत्या के मौके पर गए थे। यद्यपि अभियुक्त के विरुद्ध सारा साक्ष्य बिगाड़ दिया गया है, परंतु मैं आप से जानना चाहता हूँ कि असलियत क्या है।'

मैंने उन्हें समस्त तथ्यों से अवगत करा दिया। पता नहीं अब वह कहाँ हैं, पर मैं आज तक उनकी मन से इज्जत करता हूँ क्योंकि उन्होंने मात्र मृतक के घरवालों के मौखिक साक्ष्य पर अभियुक्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

यह अलग बात है कि उच्च न्यायालय उसे अविलम्ब जमानत मिल गई और अपील करने पर उसे बइज्जत बरी कर दिया गया।

इस प्रकार लक्ष्मी जी की कृपा से वह न तो जेल में निरुद्ध रहा और न निलम्बित हुआ जिससे अनवरत लक्ष्मी अर्जन करता रहा।