भाग 16 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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झगड़े की जड़

मैं एक ठेठ देहाती गाँव का रहने वाला हूँ जहाँ छोटे-छोटे अभावों से ग्रस्त व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर रोजा़ना लड़ा करते हैं। बचपन में मैं व मेरे भाई लोग समझते थे कि शहरों के पढ़े-लिखे बड़े घरानों के लोग आपस झगड़ते नहीं होंगे। एक दिन मेरे भाई साहब ने किसी ऐसे घराने से सम्पर्क में आने के बाद हमारे इस भ्रम को तब तोड़ दिया था जब उन्होंने कहा, 'बड़े घरों में भी लोग खूब लड़ते हैं - और नहीं तो इसी बात पर लड़ते हैं कि देवदास में दिलीप कुमार की ऐक्टिंग ज्यादा अच्छी है कि सुचित्रा सेन की।'

फिर आई.पी.एस. के सेवा काल मैंने पाया कि बड़े अफसर भी लड़ते हैं और छोटी और बड़ी दोनो तरह की बातों पर - हाँ, इतना अवश्य है कि उनकी लडा़ई प्रायः खुलेआम न होकर लुकछिपकर होती है। इस लडा़ई के प्रायः बड़े 'ठोस' कारण होते हैं, जैसे :


1. मनभावन पद : 1971 सेंट्रल पुलिस ट्रेनिंग कालेज, माउंट आबू सीनियर आफिसर्स कोर्स पूर्ण कर लखनऊ लौटने पर कई दिनों की प्रतीक्षा के उपरांत मेरी नियुक्ति एस.पी., बस्ती के पद पर कर दी गई थी, अतः आदेश मिलने की दूसरी शाम 27 मार्च को मैं कार से बस्ती के लिए चल पड़ा था। बाराबंकी में मेरे साढ़ू भाई डी.एम. नियुक्त थे, अतः रात्रि उनके साथ बिताने के इरादे से वहीं रुक गया। दूसरी सुबह जब मैं वहाँ से बस्ती के लिए चलने वाला था तो श्री सिंह, एस.पी., बस्ती का फोन आया कि मैं अभी बस्ती न आऊँ, दो-चार दिन बाद आऊँ। मैंने इसके पीछे अंतर्निहित कारण समझे बिना ही कह दिया,

'ठीक है, पर मैं फर्स्ट अप्रैल को चार्ज नहीं लेना चाहूँगा, अतः 31 तारीख को सुबह चलकर अपराह्न चार्ज ले लूँगा।'

31 तारीख को मेरे बस्ती पहुँचने पर श्री सिंह ने मुझे चार्ज सौंप दिया और मेरी आवभगत भी की, परंतु उनके बस्ती से जाने के बाद वहाँ के कई ब्राह्मणों, जो मेरे आने से प्रसन्न थे, ने मुझसे कहा, 'आप ने आने में देर क्यों कर दी, इस बीच उन्होंने कई एम.एल.एज. को अपना स्थानांतरण रुकवाने हेतु दौड़ा रखा था।'

मुझे तब तक यह भान नहीं था कि जनपद का एस.पी. बनने के लिए अन्य नियुक्तियों की अपेक्षा बड़ी मारकाट रहती है, पर बाद में मैंने पाया कि जिले के चार्ज के लिए न केवल मारकाट रहती है वरन आने वाले एस.पी. अथवा कलक्टर से जाने वाले एस.पी. अथवा कलक्टर की अनबन भी प्रायः हो जाती है क्योंकि जाने वाला यह सोचता है कि आने वाले ने उसे सप्रयत्न अपदस्थ कर दिया है। मुझे स्वयं यह स्थिति तब झेलनी पड़ी जब 1978 मैं एस.एस.पी., बरेली के पद पर तैनात हुआ। मेरे पूर्वाधिकारी अपना परिवार एस.एस.पी. के बँगले में छोड़कर नवनियुक्ति पर चले गए थे, अतः मैं सर्किट हाउस में रह रहा था। मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि मेरे पूर्वाधिकारी यानी म साहब की पत्नी अपने पति के बरेली से स्थानांतरण का दोषी मुझे मान रही हैं, अतः एक शाम मैं सौजन्यवश एस.एस.पी. बँगले पर अपने पूर्वाधिकारी के परिवार से मिलने चला गया। म साहब जरा कड़क मिजाज की निकलीं और उन्होंने मुझे बँगले, जो नियमानुसार मेरा हो चुका था, में अंदर आने को ही नहीं कहा; वरन म साहब की माँ बाहर निकलकर खा जाने वाली निगाहों से मुझे घूरते हुए बोलीं, '...... साहब तो गोरखपुर में हैं।' माता जी म साहब से अधिक कड़क मालूम पड़ीं और मैं उल्टे पाँव वापस सर्किट हाउस आ गया।

अभी कुछ माह पूर्व बदायूँ जनपद में डी.एम. के स्थानांतरण पर बडा़ रोचक प्रसंग घटित हुआ था। जनपद में एक्साइज के ठेके की नीलामी की तिथि निश्चित हो चुकी थी और पता नहीं शासन को क्या सूझी कि उस तिथि के ठीक दो दिन पहले वहाँ के डी.एम. का स्थानांतरण कर दिया। यह सर्वविदित है कि एक्साइज के ठेके में लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं। नए डी.एम. साहब राकेट की स्पीड से कार चलवाकर रातों रात बदायूँ पहुँच गए और दूसरे दिन दस बजते ही चार्ज लेने की उत्कंठा डाक बँगले में डेरा डाल दिया। फिर सुबह होते ही डी.एम. के बँगले पर फोन पर फोन घुमवाना शुरू किया - पर डी.एम. साहब से सम्पर्क कैसे हो जब बँगले की सारी टेलीफोन लाइनें पहले ही काट दी गई थीं। जब नए डी.एम. साहब की बेचैनी बढ़ने लगी, तो वह बँगले के लिए रवाना हो गए,पर वहाँ से अपना-सा मुँह लेकर वापस होना पड़ा जब चपरासी से यह कहलवा दिया गया कि साहब वहाँ हैं नहीं और पता नहीं कि कहाँ गए हैं। पुराने डी.एम. साहब ठीक नीलामी के समय कलेक्टोरेट अवतरित हो गए और उन्होंने 'पूर्व-निर्धारित' ठेकेदारों के पक्ष में नीलामी करवा दी। तत्पश्चात उसी दिन नए डी.एम. को चार्ज मिल गया। कहते हैं कि एक्साइज के उन ठेकेदारों ने चपरासी से लेकर डी.एम. तक सभी का 'हक' पहले ही अदा कर दिया था, और नए डी.एम. के चार्ज ले लेने पर ठेकेदारों को दुबारा हक का भुगतान करना पड़ता, जिससे बचाने का 'नैतिक' दायित्व निभाने हेतु पुराने डी.एम. दो दिन के लिए अंतर्ध्यान हो गए थे।

कुछ वर्ष पूर्व अखबारों प्रदेश के अधिकारियों हेतु एक बड़ा मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायक प्रसंग छपा था - 'एक महामहिम की राज भवन से रुखसती पर वहाँ रखे हुए कई बहुमूल्य तोहफे गा़यब पाए गए'। स्पष्ट है, कभी-कभी स्थानांतरण बड़े-बड़ों के लिए बड़ी मुफीद चीज साबित होते है।

2 . आलू की फसल : डी. एम., एस.पी. आदि जनपदीय अधिकारियों के बँगलों में काफी खाली जमीन हुआ करती है जो सरसों, गेहूँ, आलू आदि पैदा करने के काम आती है। इन फसलों के बोने में लगी लागत का उद्गम प्रायः डी.एम. साहब को ज्ञात नहीं होता है वरन जनपद के कृषि विभाग के अधिकारियों को ज्ञात होता है क्योंकि स्थापित प्रथा के अनुसार जोतने-बोने, खाद-पानी लगाने से फसल कटवाने और उसे ऊँचे भाव पर बिकवाने का 'प्रशासनिक कर्तव्य' कृषि विभाग के अधिकारियों का बनता है। अन्य विभागों के जनपदीय स्तर के अधिकारियों के प्रकरण भी प्रायः उस विभाग के अधीनस्थ अधिकारियों का ही यह 'हक' समझा जाता है कि वे जुताई-बुआई से लेकर कटाई-धुनाई तक और उसके बाद खराब से खराब माल का बाजार भाव से उच्चतर दरों पर बिकवाली का प्रबंध करें। मैंने अपने सेवा काल कई बार देखा है कि गेहूँ, आलू आदि की फसल जाने वाले और आने वाले अधिकारियों के बीच झगड़े का मुद्दा बन जाती है। सरकार को हर वर्ष अच्छा मजाक सूझता है कि वह ऐन उसी वक्त तबादले का आदेश भेज देती है जब गेहूँ पक रहा होता है अथवा आलू खुदने को तैयार होने लगता है। फिर नया अधिकारी पद पर काबिज होने के कारण फसल पर अपना अधिकार समझता है और पुराना उस पर लगी लागत को स्वयं की गाढ़ी कमाई बताने लगता है। कभी-कभी तो बँटवारे के टर्म्स शांतिपूर्वक तय हो जाते हैं, पर कभी-कभी इस बँटवारे में साहिबान ऐसा भड़क जाती हैं कि दोनों अधिकारियो के रिश्तों के बीच आलू की फसल ताजिंदगी खड़ी होकर उन्हें चिढ़ाती रहती है। भड़काने के इस 'नेक' काम में अर्दली-चपरासी बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

वर्ष 1985 डी.आई.जी., बरेली के पद पर नियुक्त होने पर मुझे एक नई बात पता चली कि 'समझदार' किस्म के अधिकारियों की माली सेहत के लिए आलू-गेहूँ की फसल एक नए ढंग से भी मुफीद होती है। मेरे परिक्षेत्र के एक एस.एस.पी. का पुत्र मेरे बेटे का क्लास-फेलो था। एस.एस.पी. ने अपने बेटे से मेरे बेटे को कहलवाया कि इस बार उनके बँगले की आलू की फसल पचीस हजा़र की हुई है। मेरे बेटे के लिए पचीस हजा़र की रकम सदैव बड़ी रकम रही थी, अतः उससे नहीं रहा गया और उसने घर आकर अपनी मम्मी को यह बात बताई, जिन्होंने आश्चर्य में पड़कर मुझसे कहा कि आप जब उस जनपद के एस.एस.पी. थे तब तो आलू की फसल दो हजार की ही हुई थी और अब के एस.एस.पी. ने तो उसी जमीन पर पचीस हजार की फसल की है। मैं जानता था कि एस.एस.पी. साहब सरकारी काम तो बड़े ढीले हैं, पर उनकी कृषि उत्पादन की योग्यता का कायल हुए बिना मेरे पास चारा ही क्या था। इस घटना के एक सप्ताह बाद मैं एक अन्य जनपद का मुआयना करने गया, तो वहाँ के एस.पी. मेरे बिना पूछे बातों-बातों कहने लगे कि इस वर्ष उनके बँगले का गेहूँ एक लाख का बिका है। तब मैं सचमुच अपनी कृषि उत्पादन की अयोग्यता को सोचकर हीन भावना से ग्रस्त हो गया क्योंकि मैं उस जनपद का भी एस.पी. रह चुका था और मेरा गेहूँ केवल छह हजार का बिका था। पर मुझे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि बिना मेरे पूछे मेरे परिक्षेत्र के अपनी 'समझदारी' के लिए 'विख्यात' उन दोनों एसपीज ने यह सूचना मुझे क्यों दी। इस गुत्थी का रहस्य तब खुला जब मुझे पता चला कि उन्होंने अपने इन्कम टैक्स रिटर्न में वेतन की आय से कहीं अधिक बँगले की खेती की आय दिखाई थी। प्रायः अधिकारीगण बँगलों की खेती की आय इन्कम टैक्स रिटर्न दिखाते ही नहीं हैं, परंतु असल वे दोनों अधिकारी औरों से कहीं अधिक 'समझदार' अधिकारी थे और उन्होंने खुलेआम अपनी काली कमाई को दूधधुला सफेद कर लिया था।

3 . अर्दली - चपरासी : यद्यपि एस.पी., डी.एम. जैसे अधिकारियों के आवास हर जनपद इयरमार्क्ड हैं और उन्हें नई पोस्टिंग पर आवास की कठिनाई प्रायः नहीं होती है, तथापि कभी-कभी स्थानांतरण पर जाते समय कुछ अफसर बच्चों की पढ़ाई, आलू की खुदाई अथवा गेहूँ की कटाई के लिए अपने परिवार को कुछ दिनों के लिए पुराने बँगले पर छोड़ जाते हैं। वैसे इसके अन्य मजेदार कारण भी हो सकते हैं जैसे मेरी एक पोस्टिंग के दौरान एक अधिकारी ने स्थानांतरण पर जाते समय बँगला इसलिए खाली नहीं किया था क्योंकि जब उनका स्थानांतरण हुआ था उन्हीं दिनों म साहब को अपने पुरुष मित्र के साथ नैनीताल घूमने जाना था। ऐसी स्थिति में नए अधिकारी का परिवार मजबूरी बँगले के बजाय डाक बँगले मे रुकता है - और फिर शुरू हो जाता है अर्दलियों-चपरासियों के बँटवारे पर शीत युद्ध, जो कभी-कभी अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर महाभारत भी बदल जाता है।

4 . जाति - पाँति - हमारे देश के राजनीतिबाजों ने झगड़े का एक सर्वव्यापी कारण और पैदा कर दिया है जिससे अधिकारी अब एक नवीन नीति वाक्य के अनुगामी हो गए हैं :

जाति - पाँति पूछै सब कोई ,

सगो हमारी जाति को होई

यद्यपि समस्त समाज की भाँति सरकारी कर्मचारी प्रायः अपने सजातीय को ही सगा मानते हैं,, परंतु जातियों के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था हो जाने के उपरांत देखा गया है कि प्रायः किसी भी आरक्षित वर्ग (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अथवा अन्य पिछड़ा वर्ग) से आरक्षण प्राप्त कर नियुक्त हुए अधिकारी अनारक्षित जातियों के अधिकारियों से एकमुश्त वैमनस्य रखते हैं - सम्भवतः इसके पीछे उनके मन में निहित हीन भावना इसका कारण होती है। उनमें बहुत-से आरक्षण के जातीय वर्गीकरण को अपने दुष्कर्मों के परिणाम से बचने का हथियार भी बनाते हैं। एक आई.पी.एस. अधिकारी, जो अपनी अकर्मण्यता एवं बेईमानी के लिए कुख्यात थे, का मजबूर होकर बार-बार स्थानांतरण किया गया तो उन्होंने तत्कालीन आई.जी., पुलिस के विरुद्ध ही शिकायत कर दी कि अनुसूचित जाति का होने के कारण उन्हें बार-बार स्थानांतरित किया जा रहा है। उनके अनेक सजातीय अधिकारियों ने उनके इस प्रकार के घोर अनुशासनहीन आचरण की भर्त्सना करने के बजाय गुपचुप रूप से उनकी मदद ही की और अपने अघीन नियुक्त होने पर उन्हें सर्वोत्तम वार्षिक टिप्पणी दी।

मैं तो सदैव यही मनाता रहा हूँ और आज भी मनाता हूँ कि हे ईश्वर, तू मुझे अधिकारियों के झगड़े से बचा।