भाग 18 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
ऑनेस्टाइटिस

हम सभी को बचपन में सिखा़या जाता है 'ऑनेस्टी इज दी बेस्ट पालिसी'; परंतु हम से अधिकतर लोग समझदार होते-होते इसे बचकाना हरकत मानने लगते हैं - कुछ ठस किस्म के लोग अवश्य ऐसे 'अलाभकारी' आदर्शों से चिपके रहते हैं। गहन शोध के उपरांत इन ठस लोगों में निम्नांकित तीन कमजोरियों में कम से कम एक का होना अवश्य पाया गया है :

1. निर्बल के साथ न्याय करने की अदम्य मानसिक बाध्यता

2. बेईमानी करते हुए पकड़े जाने पर नाक कट जाने का 'अनावश्यक' भय

3. बेईमानी से कमाने की चतुराई का अभाव

इसलिए हमारे समाज के 'समझदार किस्म' के लोगों में ईमानदारी उन व्यक्तियों की मानसिक दुर्बलता मात्र मानी जाती है, जो या तो स्वार्थ को आदर्श से अधिक ग्राह्य होने का विवेक ही नहीं रखते हैं अथवा 'प्रान जाय पर बचन न जाई' के सुइसाइडल सिद्धांत को ओढ़े रहते हैं। चूँकि यह मानसिक दुर्बलता ऑनेस्टी नामक वाइरस के मस्तिष्क में प्रवेश कर जाने के कारण उत्पन्न होती है, अतः मेरे साथ के एक आई.पी.एस. अधिकारी इसे 'ऑनेस्टाइटिस' के नाम से पुकारते थे। ऐसा नहीं है कि आज ही हम ईमानदारी को एक दिमागी कमजोरी मानने लगे हों; पहले भी 'समझदार' लोग ईमानदारी को सिर्फ एक हिमाकत के अतिरिक्त कुछ और नहीं समझते थे। मुझे याद है कि पैंतीस साल पहले जब मैं पुलिस सेवा में नया था, तो मेरे एक परिचित ने अपने मित्र से मेरा परिचय कराते समय कह दिया था कि यह बड़े ईमानदार पुलिस ऑफीसर हैं, तो उनका वह मित्र अनायास बोल पडा़ था 'आजकल ईमानदार तो सिर्फ बुद्धू ही होते हैं।'

ईमानदार व्यक्ति को मानव सेवा करने की संतुष्टि मिलती है या नहीं अथवा ईमानदार का परलोक सुधरता है या नहीं, यह विषय निश्चित रूप से विवादग्रस्त है; परंतु कोई भी दो आँख-कान वाला व्यक्ति यह देख-सुन सकता है कि बेईमानी से अपना एवं अपनी आने वाली पीढ़ियों का इहलोक अवश्य सुधर जाता है बशर्ते बेईमानी होशियारी के साथ की जाए और भरपूर की जाए: होशियारी के साथ इसलिए कि पकड़े न जाओ और भरपूर इसलिए कि पकड़े जाने पर काका हाथरसी द्वारा प्रतिपादित थ्योरम 'घूस लेते पकड़ा गया घूस देकर छूट गया' को सार्थक कर सके। स्वतंत्रता के उपरांत गत पैंसठ वर्षों में हमारे नौनिहालों के सामान्य ज्ञान में इतना इजाफा हो गया है कि पहले लोग सरकारी सेवा का अनुभव होने के बाद ही उपर्युक्त सत्य का ज्ञान प्राप्त कर पाते थे परंतु आज के खुले माहौल में वे इस ज्ञान को छात्र जीवन ही प्राप्त कर लेते हैं। मेरा बेटा जब विश्वविद्यालय का छात्र था तो उसने एक दिन ईमानदारी पर बात छिड़ जाने पर मुझसे कहा था कि इस विषय में अधिकतर सहपाठियों को कोई कन्फ्यूजन नहीं है और उनके 'फंडाज' क्लियर हैं कि उन्हें सरकारी नौकरी मिलते ही कमाने के एकसूत्री कार्यक्रम अविलम्ब जुट जाना है।

घूस लेना एक कला है जिस सफलता हेतु सही तकनीक के ज्ञान, उचित सहयोगियों के चयन एवं बचाव के मंत्रों के इंटेलीजेंट प्रयोग की आवश्यकता होती है। मेरी नियुक्ति के पूर्व एक जनपद के होशियार कप्तान साहब सारा 'लेन-देन का काम' अपने स्टेनो के माध्यम से चुपचाप निष्कंटक चलाते रहे थे, क्योंकि रँगे हाथों पकड़ा जाता तो स्टेनो पकड़ा जाता और बदनामी होती तो स्टेनो पर थोपने का अवसर उपलब्ध रहता; वहीं एक दूसरे जनपद के कप्तान की जल्दी ही बदनामी इसलिए उड़ गई थी कि उनकी मेम साहब दरोगाओं से सीधा सौदा करतीं थीं और चोरी-डकैती के माल की बड़ी बरामदगी होने पर 'समुचित' हिस्सा बाँट हेतु कप्तान साहब से पहले ही केस की काग्नीजेन्स ले लेती थीं।

घूस के मामले में इक्के-दुक्के स्कोर करने के बजाय चौवे-छक्के लगाना अधिक लाभप्रद एवं सुरक्षाप्रद पाया गया है क्योंकि घूस से अर्जित धन की एक क्रिटिकल लिमिट होती है, जिसे पार कर लेने के बाद घूस लेने वाला व्यक्ति सारे नियम-कानून से ऊपर की चीज हो जाता है। एक क्रिटिकल लिमिट पार किए हुए आई.ए.एस. अधिकारी के यहाँ इन्कम टैक्स वालों ने छापा मारने की हिमाकत कर दी और अथाह सम्पत्ति एवं तत्सम्बंधी कागजात बरामद किए। काले घन की बरामदगी से संधित जाँच आय कर विभाग ने ली और आय से अधिक सम्पत्ति होने के अपराध की जाँच सतर्कता विभाग को सौंपी गई। बस तुरंत सरकार की सारी ताकत इस अधिकारी को बचाने जुट गई -

1. सरकार ने 'विचारोपरांत' अधिकारी को निलम्बित न करने का निर्णय लिया।

2. इस अधिकारी के सजातीय लोकायुक्त ने शासन को पत्र लिख दिया कि चूँकि प्रकरण एक उच्च अधिकारी से संबंधित है अतः सभी जाँचें केवल उनके द्वारा कराई जाएँ। (यह उल्लेखनीय है कि तत्कालीन व्यवस्था के अनुसार लोकायुक्त की जाँच का अर्थ होता था प्रकरण को ठंडे बस्ते में डाल देना, क्योंकि लोकायुक्त को केवल संस्तुति देने का अधिकार था, कोई कार्यवाही करने का नहीं।)

3. जाँच में तेजी दिखाने वाले आय कर अधिकारी का स्थानांतरण कर दिया गया। और

4. इस अधिकारी ने आय कर कार्यालय में चोरी करवा कर उसको फँसाने वाले साक्ष्य गायब करा दिये।

स्वतंत्रता के बाद देश की प्रगति के साथ हमारी इकोनोमी का स्केल यदि बीस गुना बढ़ा है, तो हमारी बेईमानी का स्केल कम से कम बीस सौ गुना बढ़ गया है। वर्ष 1965 एक नवयुवक पी.सी.एस. अधिकारी ने अपने घर पर खाना बनाने वाले एक चपरासी की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा था,

‘यह दिन भर मेरे साथ कचहरी काम करता है और फिर भी बड़े मन से शाम को मेरे घर पर खाना बनाता है - जानते हैं क्यों?... क्योंकि मुझसे मिलवाई कराने अथवा मेरे पेशकार से केस तारीख दिलाने यह हर आदमी से एक-दो रुपए वसूल लेता है।’

अपने इस बयान पर मुझे अवाक हुआ देखकर वह आगे बोल पड़े थे, ‘अरे, यह कोई बेईमानी थोड़े ही है... यह तो इसका हक होता है।’

इस घटना के दस वर्ष बाद मुझे ज्ञात हुआ कि एक इंडियन फॉरेन सर्विस के ऑफीसर द्वारा किए गए एक लाख रुपए का घोटाला पकड़े जाने पर उसके उच्चाधिकारी ने उसकी फाइल यह नोटिंग करके बंद कर दी थी कि

'इतने बड़े अधिकारी को इतनी छोटी रकम के लिए प्रताड़ित करने से सर्विस का मनोबल रसातल को चला जाएगा।'

फिर उस घटना के दस वर्ष बाद भारत विकास का स्वर्ण युग आ गया और प्रत्येक कलेक्टर को जनपद के विकास हेतु प्रति वर्ष दसियों करोड़ रुपए दिए जाने लगे, जिनसे दस प्रतिशत अपने पास रखवा कर ही धनराशि को अवमुक्त करना कलेक्टर का हक मान लिया गया। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक मदों भी प्रशासनिक अधिकारियों के हक निश्चित हो गए, जैसे शराब के ठेके की नीलामी में जनपद की आबादी के अनुसार दस लाख से एक करोड़, डीजल मिट्टी के तेल की मिलावट कराने में तीन पैसे प्रति लिटर, बंदूक के लाइसेंस में पाँच हजा़र प्रति बंदूक आदि। चूँकि ये सर्वविदित एवं सर्वस्वीकार्य रेट हैं, अतः इन रेटों से कमाई करने पर कहीं कोई शिकायत नहीं की जाती है; यदा-कदा शिकायत तब की जाती है जब किसी पावरफुल नेता को उसका हक नहीं मिल पाता है अथवा पुलिस के विरोध के कारण किसी अपराधों में लिप्त उनके चमचे को लाइसेंस नहीं मिल पाता है।

अब ईमानदारी को इतने ऊँचे स्तर पर स्थापित कर दिया गया है कि किसी आई.ए.एस. अधिकारी के विरुद्ध एक करोड़ से कम की जाँच को आई.ए.एस. अधिकारियों का मनोबल गिराने वाला समझा जाने लगा है। इससे अधिक का घोटाला पकड़े जाने पर प्रायः शासन स्वयं उस अधिकारी की क्षमता को पहचान लेता है और उसे ऐसी शक्तिशाली कुर्सी पर बिठा देता है कि वह अपने विरुद्ध जाँच को ऐसा दफना सके कि वह फिर उभरने का नाम न ले। उदाहरणार्थ पिकअप नामक सरकारी प्रतिष्ठान, जो उद्यमियों को ऋण देता है, के मैनेजिंग डाइरेक्टर, जो आई.ए.एस. अधिकारी होता है, को बिना बोर्ड के अनुमोदन के एक व्यक्ति को उद्यम स्थापित करने हेतु अधिक से अधिक एक करोड़ रुपए तक का ऋण देने का अधिकार है। एक मैनेजिंग डाइरेक्टर ने बिना बोर्ड का अनुमोदन लिए एक व्यक्ति को सात बार नब्बे-नब्बे लाख (कुल छह करोड़ तीस लाख) का ऋण दिया। प्रथम बार ऋण प्राप्त करने के बाद वह व्यक्ति तब तक ब्याज की किस्तों की अदायगी करता रहा, जब तक सातों किस्तों की रकम उसे प्राप्त नहीं हो गई। उसके बाद न केवल ऋण की अदायगी बंद हो गई, वरन एक कोठरी स्थापित अपने कार्यालय के साइन बोर्ड सहित वह व्यक्ति भी गायब हो गया। उस समय उस पर साढ़े पाँच करोड़ रुपए की अदायगी शेष थी। जब प्रेसवालों ने मामला उछाला तो प्रकरण की जाँच आर्थिक अपराध शाखा को सौंप दी गई। परंतु यह आई.ए.एस. अधिकारी इस बीच अपनी इस कारगुजा़री के कारण तत्कालीन मुख्य मंत्री की फेवरेबुल नोटिस में आ चुका था और गबन की राशि में से समुचित हक का भुगतान कर उनका प्रिय पात्र बन चुका था, अतः उन्होंने उसे अपना प्रमुख सचिव नियुक्त कर लिया। फिर आर्थिक अपराध शाखा के सर्वेसर्वा उस आई.ए.एस. अधिकारी के एक सजातीय ने उसे आई.जी. बना दिया गया, यद्यपि यह पद ए.डी.जी. स्तर का था। इस आई.जी. ने 'विस्तृत' जाँचोपरांत आख्या दी कि ऋण लेने वाले का कोई पता नहीं चला, क्योंकि उसके घर का पता पिकप के रिकार्ड उपलब्ध नहीं है तथा 'समुचित' विचारोपरांत टिप्पणी दी कि इस प्रकरण में पिकप का कोई अधिकारी भी दोषी नहीं है क्योंकि पिकप के नियमों के अनुसार किसी व्यक्ति को ऋण देते समय उसके घर का पता जानना जरूरी नहीं है, मात्र कार्यालय का पता पर्याप्त है। विशेष कृपालु शासन ने उस मैंनेजिंग डाइरेक्टर से यह पूछना भी आवश्यक नहीं समझा कि यदि आप को अपनी जेब से ऋण देना हो तो क्या छह सौ तीस रुपए भी बिना ऋण लेने वाले का पता जाने देंगे, तथा जब आप को एक करोड़ तक का ही ऋण देने का अधिकार है तब आप ने छह करोड़ तीस लाख का ऋण कैसे स्वीकृत कर दिया? पर जब रानी स्वयं लुटेरी हो जाए, तो देश को कौन बचाए।

मेरा अनुभव है कि लगभग सभी शासकीय कर्मी - चाहे वे स्वयं ईमानदार हों या बेईमान - किसी की बेईमानी पकड़े जाने पर प्रायः उसे बचाने का प्रयत्न करते हैं। चूँकि आई.ए.एस. अधिकारियों के विरुद्ध जाँच की फा़इलें आई.ए.एस. अधिकारियों के पास ही रहती हैं, अतः उनका बचाव बड़ा वृहद एवं प्रभावी होता है। एक खाद्य सचिव के विरुद्ध सतर्कता विभाग द्वारा जाँच कर आख्या भेजी गई कि यद्यपि चावल की खरीद इनके द्वारा घूस लेने का सीधा साक्ष्य नहीं मिल सका है तथापि इनकी दुर्भावना इससे स्पष्ट है कि इस खरीद हेतु केवल कैबिनेट ही सक्षम थी और जब मुख्य मंत्री ने उस प्रकरण को कैबिनेट स्वीकृति हेतु रखने का इनका प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया, तब खाद्य सचिव ने खाद्य मंत्री की अनुमति लेकर खरीद कर ली। सतर्कता विभाग ने इस अनियमितता हेतु खाद्य सचिव के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही करने की संस्तुति दी, जिस पर कोई कार्यवाही न होने पर सतर्कता विभाग शासन को मासिक स्मृति-पत्र प्रेषित करता रहा। तब पाँच साल बाद शासन/आई.ए.एस.अधिकारी का 'सुविचारित' उत्तर आया कि संबंधित अधिकारी को समुचित सलाह दे दी गई है और अब प्रकरण को समाप्त माना जाय।

आई.ए.एस. भी अनेक अधिकारी ऑनेस्टाइटिस के मर्ज से ग्रसित हैं। कतिपय ऐसे ही आई.ए.एस. अधिकारियों ने अपनी एसोसियेशन की मीटिंग में सबसे बड़े बेईमान अधिकारियों को चिह्नित करने हेतु वोटिंग करा दी और टॉप पोजीशन प्राप्त करने वाले तीन आई.ए.एस. अधिकारियों के नाम शासन को उनके विरुद्ध कार्यवाही करने हेतु सौंप दिए। शासन ने उस सूची के किसी अधिकारी के विरुद्ध कोई अन्य कार्यवाही तो नहीं की, परंतु एक मुख्य मंत्री ने उस सूची के एक टॉप के अधिकारी को अपना प्रमुख सचिव नियुक्त कर दिया। फिर जब दूसरे मुख्य मंत्री आए, तो उन्होंने सूची के दूसरे टॉप के अधिकारी को मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। एक सिनिक का कहना है कि आई.ए.एस. एसोसियेशन ने बड़े बेईमानों की सूची देकर मुख्य मंत्रियों को अपना कमाऊ पूत तलाशने की तवालत से बचा लिया है। कुछ अन्य आई.ए.एस. अधिकारियों, जो भविष्य में मुख्य सचिव बनने को लालायित हैं, ने यह जोड़-तोड़ प्रारम्भ कर दी है कि आगे जब बेईमानों की सूची बनाने हेतु वोटिंग हो, तो उनका नाम टॉप पर रहे।

हमारे देश में चाहे अन्य क्षेत्रों में पूर्ण डेमोक्रेसी हो या न हो परंतु यह कोई नहीं कह सकता है कि बेईमानी के क्षेत्र में यह अपनी सम्पूर्णता विद्यमान नहीं है। इस क्षेत्र में यह कहना कठिन है कि नेता बड़ा है या जनता, पुलिस बड़ी है या चोर, और न्याय हनन करने वाला बड़ा है या न्याय का रक्षक। ऑनेस्टाइटिस से ग्रस्त अपवादों को छोड़कर सब निश्शंक होकर देश की संपत्ति को चरने में लगे हुए हैं - अगर अंतर है तो केवल अवसरों का।

मैंने अनेक मीटिंगों एवं सेमीनारों में एक बड़ी मजेदार बात नोटिस की है कि ऑनेस्टी के विषय में सबसे पहले और सबसे अधिक सबसे बड़े बेईमान व्यक्ति ही बोलते हैं। हाल में मंत्री बनी एक महिला, जो कुछ वर्ष पहले एक मुख्य मंत्री से निकट सम्बंधों के कारण घूस इकट्ठा करने के धंधे में माहिर रही हैं, ने अपने विभाग के अधिकारियों की मीटिंग में अपना भाषण यही कहकर प्रारम्भ किया था कि वे बेईमानी कतर्इ बर्दाश्त नहीं करेंगी और बेईमानों की खटिया खड़ी कर देंगी। बाद में उस विभाग के कुछ अधिकारियों ने मुझे गोपनीयता के आश्वासन पर बताया कि माननीया मंत्री का मतलब था कि उनके कार्यभार सम्हालने के एक सप्ताह बीत जाने पर अभी तक सभी अधिकारियों ने चौथ देना प्रारम्भ नहीं किया है, इस गुस्ताखी के लिए वे ईमानदारों को तो नजरअंदाज कर सकतीं हैं, लेकिन बेईमानों की खटिया खड़ी कर देंगी।

समस्या के समस्त पहलुओं पर विचारोपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि शासन को ऑनेस्टाइटिस नामक मर्ज की रोकथाम हेतु वैक्सीन ईजाद करानी चाहिए जिससे कोर्इ्र शासकीय कर्मी भविष्य में इससे ग्रस्त न हो और देश में पूर्ण स्वराज रहे। इसके अतिरिक्त सरकारी कमियों के 'हक' के पुराने नार्म्स को अपग्रेड कर देना चाहिए - अब सिपाही स्तर के कर्मी के लिए दस हजार, दरोगा स्तर के कर्मी के लिए एक लाख, कप्तान के लिए दस लाख, कलक्टर के लिए पचास लाख, प्रमुख सचिव के लिए एक करोड़, मंत्री के लिए दो करोड़ और मुख्य मंत्री के लिए दस करोड़ तक की धनराशि एकमुश्त लेने को घूस न मानकर उनका हक मानना चाहिए। इससे शासकीय कर्मियों का मनोबल ऊँचा रहेगा, और वे और अधिक कमाने के लिए और मनोयोग से कार्य करने जुट जाएँगे।