भाग 8 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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कमांडेंट को बटालियन में सींक खड़ी करके रखना चाहिए

मैंने आई.पी.एस. में आने के बाद दो वर्ष एवं तीन माह का समय विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों में एवं उसके पश्चात केवल एक वर्ष सर्किल ऑफीसर के पद पर पूरा किया था कि अक्टूबर, 1966 में एस.पी. के रैंक में प्रोन्नति देकर कमांडेंट 23 बटालियन पी.ए.सी., मुरादाबाद के पद पर मेरी नियुक्ति का आदेश आ गया। इस पर मेरे श्वसुर श्री राधेश्याम शर्मा, एस.एस.पी., आगरा, ने हँसते हुए कमेंट किया था, 'तलवार चलाना चाहे न आया हो, कर्नल तो बन गए।'

उनकी इस बात में कितना तथ्य था, यह बात मेरी समझ में कुछ और अनुभव प्राप्त करने के बाद आ पाई थी, और मैं तब से सदैव इस विचार का रहा हूँ कि आई.पी.एस., पी.पी.एस., सब-इंस्पेक्टरों एवं कांस्टेबलों के सेवा सम्बंधी नियमों में ऐसे परिवर्तन किए जाने चाहिए कि उच्चस्तरीय सेवाओं के अधिकारियों को प्रोन्नति पर्याप्त अनुभव के उपरांत ही मिले। इसका यह लाभ भी होगा कि निम्नस्तरीय सेवाओं को प्रोन्नति के अवसर अधिक मिलेंगे और उनकी निष्ठा एवं मनोबल बढ़ेंगे। परंतु जिस प्रकार हर सामाजिक बुराई के पीछे किसी न किसी प्रभावशाली वर्ग का प्रश्रय होता है जिसके कारण उसे मिटाना दुरूह कार्य होता है, उसी प्रकार शासकीय सेवाओं में प्रोन्नति के पक्षपातपूर्ण नियमों में परिवर्तन करना भी अत्यंत कठिन है। पहले तो अधिकतर आई.पी.एस.अधिकारी ही ऐसे परिवर्तन के विरोधी हैं, और दूसरे शासकीय प्रक्रिया के अनुसार नियम-परिवर्तन का कार्य सचिवालयों में विराजमान आई.ए.एस. अधिकारियों की सहमति के बिना सम्भव नहीं है। चूँकि आई.ए.एस. अधिकारी वर्तमान नियमों से न केवल पी.सी.एस. की तुलना में वरन अन्य सभी समकक्ष सेवाओं की तुलना में भी प्रोन्नतियों में अत्यधिक लाभान्वित होते हैं, अतः वे नियमों में ऐसे परिवर्तन क्यों कराने लगे?

पी.ए.सी. बटालियन के सर्वोच्च पद पर नियुक्त मैं आयु में केवल 25 बर्ष का था और कुछ सिपाहियों को छोड़कर सबसे छोटा था। वहाँ मिलिटरी कल्चर व्याप्त होने के कारण अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा बिन-माँगी सलाह देना वर्जित था। अतः मैं मुरादाबाद में स्थित 24 बटालियन और 9 बटालियन के कमांडेंट से ही कुछ सीख सकता था। मेरे डी.आई.जी. लखनऊ में रहते थे और वह भी एक बार आए तो मुआयने के नाम पर एक-दो घंटा फूँ-फाँ करके चले गए थे। बटालियन में अपने रुतबे एवं अन्य कमांडेंट्स के साथ होने वाली गुफ्तगू से मेरी समझ में आ रहा था कि :

1. कमांडेंट को बटालियन में सींक खड़ी करके रखना चाहिए, जिसका मेरी समझ में यह अर्थ आया था कि भय का वातावरण कायम रखना चाहिए।

2. कमांडेंट को बटालियन में सख्त अनुशासन कायम रखना चाहिए, जिसका मेरी समझ में अर्थ आया था कि उच्चाधिकारी द्वारा अधीनस्थ के प्रति किए गए हर व्यवहार का समर्थन करना चाहिए।

23वीं और 24वीं दोनों बटालियनें नई बनीं थी और टेम्पोरेरी थीं, इसलिए उनके लगभग सभी सिपाही टेम्पोरेरी थे। उन्हीं दिनों 24वीं वाहिनी में एक पी.पी.एस. से प्रोन्नत होकर खरदिमाग कमांडेंट आ गए, जिन्हें छोटी से छोटी शिकायत पर सिपाहियों को डिस्चार्ज करने की खब्त थी। उन्होंने कुछ महीनों में ही 40-50 टेम्पोरेरी सिपाहियों को बिना किसी विभागीय कार्यवाही के डिस्चार्ज कर दिया। यह देखकर मुझे लगा कि इनकी सींक मेरी सींक से ज़्यादा खड़ी हो रही है और मैंने भी उनकी देखादेखी चार-पाँच सिपाहियों को डिस्चार्ज कर दिया। मुझे अपनी गलती का भान तब हुआ जब एक दिन उनकी बटालियन की दीवालों पर उनके खिलाफ अनेकों पोस्टर चिपकाए हुए पाए गए और उन्हें उच्चाधिकारियों से चेतावनी भी मिली।

इसी तरह एक असिस्टेंट कमांडेंट की इस शिकायत पर कि मेस हवलदार ने कम्पनी का कुछ किलो आटा चुराया है, मैंने विभागीय कार्यवाही कर उस हवलदार को डिस्मिस कर दिया। बाद में मुझे पता चला कि वह असिस्टेंट कमांडेंट स्वयं घोर बेईमान था और सम्भवतः उसकी भली भाँति आवभगत न किए जाने पर उसने शिकायत की थी। फिर प्रदेश शासन के निकट सम्पर्क में कार्य करने पर जब मैंने यह पाया कि करोड़ों डकारने वाले अधिकारियों को शासन डिस्मिस करने के बजाय कमाऊ पूत मानकर ऐसे पद देता है, जिन पर वे निर्द्वंद्व होकर और कमाई करें और मंत्रियों की जेबें भरें, तब से मुझे उस कुछ किलो आटा चुराने के आरोपी हवलदार को डिस्मिस कर देना अपनी ऐसी निर्दयता और अपरिपक्वता लगी कि वह आज तक मेरे दिल को कचोटती रहती है।

यद्यपि उन दिनों पी.ए.सी. में भर्ती हेतु केवल आठवें पास की अर्हता थी, परंतु काफी पढ़े-लिखे और स्वाभिमानी लड़के भी पी.ए.सी. में आने लगे थे। जिन दिनों 24 बटालियन के कमांडेंट की देखादेखी मुझे भी डिस्चार्जोमैंनिया हो रहा था, उन्हीं दिनों एक नवयुवक सिपाही को मैंने किसी शिकायत पर दलेल ( एक्स्ट्रा परेड ऐज पनिशमेंट) दे दी। उसने दलेल नहीं की और दूसरे दिन अपना इस्तीफा लेकर प्रस्तुत हो गया कि चूँकि उसने कमांडेंट साहब का हुक्म मानने से इन्कार कर दिया है, अतः उसे पी.ए.सी. से निकाल दिया जाए। मेरे ऊपर उस समय भी सींक खड़ी रखने का भाव हावी रहा और मैंने बिना उससे विस्तार में बात किए इस्तीफा स्वीकार कर लिया।

पर मैं आज तक अपने को उसका गुनहगार मानता हूँ और मैं समझता हूँ कि यदि मुझे पुलिस सेवा का दो-चार साल का और अनुभव रहा होता तो मैं बिना उसकी बात सुने और समझे ऐसा कदापि न करता।