भानमती के भान / प्रतिभा सक्सेना

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संत कबीर ने कहा था-

देस-विदेसे मैं फिरा गाँव-गाँव की खोर
ऐसा हियरा ना मिला लेवे फटक-पछोर

भानमती ने सुना, तुरंत बोल उठी,' दीदी जी, किसउ आदमी को फटक- पछोर करते देखा है कभी?'

'नहीं, कभी नहीं' - उत्तर भाविनी ने दिया।

शोध-छात्रा भाविनी से संतों-भक्तों की चर्चा चल रही थी।भानमती अपने खेत की मूँगफली लाई थी, वहीं बैठ गई कान लगा कर सुनने लगी।

'तुलसी ने ग्राम-वधुओं और सीता का कितना मनमोहक चित्र खींचा है -

बहुरि बदन बिधु आँचल ढाँकी,
पिउ तन चितै भौंह करि बाँकी।
खंजन मंजु तिरीछे नैननि।
निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि।'

भानमती खिलखिला कर हँस पड़ी।

चौंक कर मैंने पूछा,'क्या हुआ?'

'देख लेओ, भगत जी का हाल, सारा धियान मेहरुअन पर लगाये रहे- ऊ कइसे पूछिस ई कइसे बताइस,। तुम देखो ई मरद लोग इहै सब तो तकत रहत हैं।'

सिर में खुजली-सी हुई। फिर ज्ञान-चक्षु खुलने लगे।भाविनी ने सचेत हो कर पैंतरा बदल लिया था।

वैसे भी भानमती जो है सो है ही, इस लड़की भाविनी को उसकी नाम-कहानी से जान लीजिये -

माता-पिता ने चाव से नाम रखा था मन-भावनी। चलते-फिरते लड़के बोल जाते 'ओ मन-भावनी!'

सो हाई स्कूल में 'मन' उड़ा कर उसने भावनी कर लिया (भला हुआ भवानी नहीं किया)। फिर और समझ आई तो इ की मात्रा और जोड़ ली - भाविनी बन गई।

हाँ, बात हो रही थी फटक-पछोरवाली।

मैं भी गाँवों में घूमी, शहरों में घूमी, देश-देशान्तर देखे, पुराने से ले कर नए ज़माने तक। पर आज तक किसी आदमी को फटक-पछोर करते नहीं देखा।

'अउर गजब देखो, कबीर इन्हइ से आस लगाये कि वे फटक-पछोर कर लेवें।किसी को सूप पकड़ना भी न आता होगा, वो तो औरतें ही हैं सारी फटक- पछोर, बीनना-चुनना, पिसना-कुटना कर राँध-पका कर उन लोगन का पापी पेट भरती हैं।

आदमी-जन तो पान चबाते , नशा करते, बीड़ी पीते खैनी रगड़ते हैं। और फिर दुनिया के रंग देखते पंचायत करते या फिर संतई छाँटत, भाँग-गाँजा, चिलम के दम लगाय के उपदेश पियावत हैं।'

उसने बड़ी हैरत से यह भी पूछा,' ई संत लोग मेहरारुन को हमेसा काहे कोसत रहत हैं?

'उन्हें लगता है औरतों ने सारी दुनिया को बिगाड़ रखा है।'

'अपना संत हुई जात हैं कच्ची गिरस्थी मेहरिया के सिर। काहे से कि गिरस्थी की जिम्मेदारी इन केर बस की नाहीं। 'अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम 'ठाली बैइठे इन केर धियान तहूँ औरतन में परा रहत है। '

भाविनी ने ऊपर से जड़ा, 'उन्हें चक्की पीसते देखते हैं खुद ज्ञान-लाभ करते हैं।'

'ऊ दही-मही बिलगावे तौन निरीच्छन ई करें उजलापन-कालापन कुरूपता का जिकर करें। '

ये साधु-संत चैन से नहीं रह पाते।उन्हें तो यही चिन्ता खाये जाती है कि औरतें क्या कर रही हैं? क्यों कर रही हैं?।।उनका विचार है औरतों को सुधार देंगे तो दुनिया सुधर जायेगी। और आदमी? उसे सुधारने का तो सोचना ही बे-कार। गृहस्थी को जंजाल कह कर निकल जाते हैं। और घूम-घूम कर वहीं चारों ओर मँडराते हैं। इनका अच्छी-बुरी औरत का भेद कितना स्वार्थभरा। ।।केवल पति की सेव करे अपने को पूरी तरह नकार दे, तब औरत सच्ची पतिव्रता है,नहीं तो डायन। कबीर ही क्यों, सारे संत एक हैं इस मामले में।'

'चुनरी में लगा दाग़ इन्हें फौरन दिखाई दे जाता है।' भाविनी कहाँ चुप रहनेवाली।

'भानमती, अपने मर्यादाशील तुलसीदास जी तो उदाहरण सामने रख कर सिखाते हैं। उद्दंड, अहंकारी पति से पत्नी कैसे बात करे, पूरा खाका खींच दिया -

रहसि जोरि कर पति पद लागी, बोली बचन नीति रस पागी।

नीति-संगत बात, पति का भला हो जिसमें, कहो ज़रूर।पर तुम्हारा दर्जा बराबरी का नहीं किसी के सामने कभी मत कहना, पति की शान घटेगी। मौका देख कर कहीं अकेले में, पहले उस के हाथ जोड़ना फिर झुक कर चरण स्पर्श करना। आज्ञा पाकर परम विनीत हो स्वामी,नाथ कह के शुरुआत करना।

और भी देखो-

हिमाचल की पत्नी के मन में द्विधा है, विवाह योग्य पुत्री की जननी, पर पति के सामने एकदम गऊ -

'पतिहिं एकान्त पाइ कहि मैना,

नाथ, न मैं समुझे मुनि बैना। '

'हमने सब सुनी है, बोलो भला नारद की बात बे समुझी नायँ होंयगी? औरत में ई सब समझै का माद्दा आदमी से जियादा होवत है।'

'पर नीति कहती है, पति के सामने मूर्ख बने रहने में ही हित है। अक्लमंदी देख कहीं वह कुंठित न हो जाय। मन ही मन चाहे हँसी आ रही हो,जानबूझ कर बेतुके सवाल पूछे। पति का उत्साह बढ़ेगा।उसका मनोबल ऊँचा होगा। पत्नी के अनुकूल रहेगा, यहाँ तो बेटी का मामला है। कहीं ज़िद पर अड़ गया जड़ आदमी (पर्वत है न )तो मुश्किल हो जायेगी।'

वे दोनों मुखर, मैं सुने जा रही चुपचाप।

'इहां बसब रजनी भल नाहीं'

कह कर इनने सीता जी को एक रात माता-पिता के पास रुकने नहीं दिया,

रत्नावली के साथ का अनुभव था। सो सावधान कर दिया।'

अब भाविनी मेरी ओर घूमी -

'और जायसी हैं संत आदमी, पर नख-शिख और शृंगार के क्या अपरंपार वर्णन - दंग रह जाते हैं हम तो ! कोई तो प्वाइंट नहीं छोड़ा। '

हमारी भानमती विशेष पढ़ी-लिखी नहीं पर, लोक की सारी सामर्थ्य समाए है। भाषा भदेस हो जाये भले, अभिव्यक्ति-कौशल के सामने बड़े-बड़े पानी भरें।

'औरत, रांड भई तौन बिन मालिक की गइया, सबै दुहन को,जुलम करन को तैयार। अउर मरद रँडुआ होय, चाहे घर-छोड़ा, बैल से साँड हुई जात है- हर जगह मुँह मारन को उतारू। संत होय चाहे साधारन मरद लच्छन उहै रहत हैं। आदमी भए से चैन कहाँ परत, मेहरारू होवन का शौक चर्रावत है।। '

भाविनी और मैं एक दूसरे का मुँह तक रहे हैं,

कहती तो ठीकै है हमारे कबीर, संत-शिरोमणि, कौन कम रहे? लौट-लौट कर सिन्दूर, काजल, चुनरी, पर कविताई करते ऐसे मगन हुए कि , खुद सजने लगे और राम की दुल्हनिया बन कर ही तृप्त हुए।

एक और देखे थे, जिनने पुरुष देह पर राधा रूप धर लिया, घघरी-उढ़निया ओढ़, चूड़ी- टिकुली कर आफिस में जा बैठते थे। बाकी दुनिया के लोगन का देखि लेओ, होरी माहियाँ साल भर की भड़ास निकार लेत हैं। '

पढ़ी नहीं तो क्या हुआ, कढ़ी है हमारी भानमती! ओहिकी बातन का जवाबै नहीं हमरे पास!