भारतदुर्दशा / चौथा अंक / भारतेंदु हरिश्चंद्र

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(कमरा अँगरेजी ढंग से सजा हुआ, मेज, कुरसी लगी हुई। कुरसी पर भारत दुर्दैव बैठा है)

(रोग का प्रवेश)

रोग (गाता हुआ) : जगत् सब मानत मेरी आन।

मेरी ही टट्टी रचि खेलत नित सिकार भगवान ।।

मृत्यु कलंक मिटावत मैं ही मोसम और न आन।

परम पिता हम हीं वैद्यन के अत्तारन के प्रान ।।

मेरा प्रभाव जगत विदित है। कुपथ्य का मित्र और पथ्य का शत्रु मैं ही हूँ। त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जिस पर मेरा प्रभुत्व नहीं। नजर, श्राप, प्रेत, टोना, टनमन, देवी, देवता सब मेरे ही नामांतर हैं। मेरी ही बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने, पंडित, सिद्ध लोगों को ठगते हैं। (आतंक से) भला मेरे प्रबल प्रताप को ऐसा कौन है जो निवारण करे। हह! चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है, यह नहीं जानती कि जितनी सड़क चैड़ी होगी उतने ही हम भी ‘जस जस सुरसा वदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा’। (भारतदुदैव को देखकर) महाराज! क्या आज्ञा है?

भारतदु. : आज्ञा क्या है, भारत को चारों ओर से घेर लो।

रोग : महाराज! भारत तो अब मेरे प्रवेशमात्रा से मर जायेगा। घेरने को कौन काम है? धन्वंतरि और काशिराज दिवोदास का अब समय नहीं है। और न सुश्रुत, वाग्भट्ट, चरक ही हैं। बैदगी अब केवल जीविका के हेतु बची है। काल के बल से औषधों के गुणों और लोगों की प्रकृति में भी भेद पड़ गया। बस अब हमें कौन जीतेगा और फिर हम ऐसी सेना भेजेंगे जिनका भारतवासियों ने कभी नाम तो सुना ही न होगा; तब भला वे उसका प्रतिकार क्या करेंगे! हम भेजेंगे विस्फोटक, हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी। भला इनको हिंदू लोग क्या रोकेंगे? ये किधर से चढ़ाई करते हैं और कैसे लड़ते हैं जानेंगे तो हई नहीं, फिर छुट्टी हुई वरंच महाराज, इन्हीं से मारे जायँगे और इन्हीं को देवता करके पूजेंगे, यहाँ तक कि मेरे शत्रु डाक्टर और विद्वान् इसी विस्फोटक के नाश का उपाय टीका लगाना इत्यादि कहेंगे तो भी ये सब उसको शीतला के डर से न मानंगे और उपाय आछत अपने हाथ प्यारे बच्चों की जान लेंगे।

भारतदु. : तो अच्छा तुम जाओ। महर्घ और टिकस भी यहाँ आते होंगे सो उनको साथ लिए जाओ। अतिवृष्टि, अनावृष्टि की सेना भी वहाँ जा चुकी है। अनक्य और अंधकार की सहायता से तुम्हें कोई भी रोक न सकेगा। यह लो पान का बीड़ा लो। (बीड़ा देता है)

(रोग बीड़ा लेकर प्रणाम करके जाता है)

भारतदु. : बस, अब कुछ चिंता नहीं, चारों ओर से तो मेरी सेना ने उसको घेर लिया, अब कहाँ बच सकता है।

(आलस्य का प्रवेश1)

आलस्य : हहा! एक पोस्ती ने कहा; पोस्ती ने पी पोस्त नै दिन चले अढ़ाई कोस। दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूँड़ी के उस पार या इस पार ठीक है। एक बारी में हमारे दो चेले लेटे थे ओर उसी राह से एक सवार जाता था। पहिले ने पुकारा "भाई सवार, सवार, यह पक्का आम टपक कर मेरी छाती पर पड़ा है, जरा मेरे मुँह में तो डाल।" सवार ने कहा "अजी तुम बड़े आलसी हो। तुम्हारी छाती पर आम पड़ा है सिर्फ हाथ से उठाकर मुँह में डालने में यह आलस है!’’ दूसरा बोला ठीक है साहब, यह बड़ा ही आलसी है। रात भर कुत्ता मेरा मुँह चाटा किया और यह पास ही पड़ा था पर इसने न हाँका।’’ सच है किस जिंदगी के वास्ते तकलीफ उठाना; मजे में हालमस्त पड़े रहना। सुख केवल हम में है ‘आलसी पड़े कुएँ में वहीं चैन है।’

(गाता है)

(गश्जल)

दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।

मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा ।।

बिस्तर प मिस्ले लोथ पडे़ रहना हमेशा।

बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा ।।

”रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।“

छेड़ो न नक्शेपा है मिटाना नहीं अच्छा ।।

उठा करके घर से कौन चले यार के घर तक।

‘‘मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा ।।

धोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे।

उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा ।।

सिर भारी चीज है इस तकलीफ हो तो हो।

पर जीभ विचारी को सताना नहीं अच्छा ।।

फाकों से मरिए पर न कोई काम कीजिए।

दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा ।।

सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।

दोजष्ख ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा ।।

मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।

ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा ।।

और क्या। काजी जो दुबले क्यों, कहैं शहर के अंदेशे से। अरे ‘कोउ नृप होउ हमें का हानी, चैरि छाँड़ि नहिं होउब रानी।’ आनंद से जन्म बिताना। ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।’ जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, तो न पढतव्यं सो भी मरतव्यं तब फिर दंतकटाकट किं कर्तव्यं?’ भई जात में ब्राह्मण, धर्म में वैरागी, रोजगार में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना, न कहीं जाना और न कहीं आना सब खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, तान मारना और मस्त रहना। अमीर के सर पर और क्या सुरखाब का पर होता है, जो कोई काम न करे वही अमीर। ‘तवंगरी बदिलस्त न बमाल।’1 दोई तो मस्त हैं या मालमस्त या हालमस्त

(भारतदुर्दैव को देखकर उसके पास जाकर प्रणाम करके) महाराज! मैं सुख से सोया था कि आपकी आज्ञा पहुँची, ज्यों त्यों कर यहाँ हाजिर हुआ। अब हुक्म?

भारतदु. : तुम्हारे और साथी सब हिंदुस्तान की ओर भेजे गए हैं।, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जोगनिंद्रा से सब को अपने वश में करो।

आलस्य : बहुत अच्छा। (आप ही आप) आह रे बप्पा! अब हिंदुस्तान में जाना पड़ा। तब चलो धीरे-धीरे चलें। हुक्म न मानेंगे तो लोग कहेंगे ‘सर सरबसखाई भोग करि नाना समरभूमि भा दुरलभ प्राना।’ अरे करने को दैव आप ही करेगा, हमारा कौन काम है, पर चलें।

(यही सब बुड़बुडाता हुआ जाता है)

(मदिरा2 आती है)

मदिरा : भगवान् सोम की मैं कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई। तंत्रा तो केवल मेरी ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं, हिंदू बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी चार पवित्र प्रेममूर्ति विराजमान हैं। सोमपान, बीराचमन, शराबूनतहूरा और बाप टैजिग वाइन। भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध? या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहनेवालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी संकड़े दस हांगे, जगत् में तो हम व्याप्त हैं। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं। फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्रा भूषण हैं।

दूध सुरा दधिहू सुरा, सुरा अन्न धन धाम।

वेद सुरा ईश्वर सुरा, सुरा स्वर्ग को नाम ।।

जाति सुरा विद्या सुरा, बिनु मद रहै न कोय।

सुधरी आजादी सुरा, जगत् सुरामय होय ।।

ब्राह्मण क्षत्राी वैश्य अरू, सैयद सेख पठान।

दै बताइ मोहि कौन जो, करत न मदिरा पान ।।

पियत भट्ट के ठट्ट अरु, गुजरातिन के वृंद।

गौतम पियत अनंद सों, पियत अग्र के नंद ।।

होटल में मदिरा पिएँ, चोट लगे नहिं लाज।

लोट लए ठाढे़ रहत, टोटल दैवे काज ।।

कोउ कहत मद नहिं पिएँ, तो कछु लिख्यों न जाय।

कोउ कहत हम मद्य बल, करत वकीली आय ।।

मद्यहि के परभाव सों, रचन अनेकन ग्रंथ।

मद्यहि के परकास सों, लखत धरम को पंथ ।।

मद पी विधिजग को करत, पालत हरि करि पान।

मद्यहि पी कै नाश सब, करत शंभु भगवान् ।।

विष्णु बारूणी, पोर्ट पुरुषोत्तम, मद्य मुरारि।

शांपिन शिव गौड़ी गिरिश, ब्रांड़ी ब्रह्म बिचारि ।।

मेरी तो धन बुद्धि बल, कुल लज्जा पति गेह।

माय बाप सुत धर्म सब, मदिरा ही न सँदेह ।।

सोक हरन आनँद करन, उमगावन सब गात।

हरि मैं तपबिनु लय करनि, केवल मद्य लखात ।।

सरकारहि मंजूर जो मेरा होत उपाय।

तो सब सों बढ़ि मद्य पै देती कर बैठाय ।।

हमहीं कों या राज की, परम निसानी जान।

कीर्ति खंभ सी जग गड़ी, जब लौं थिर सति भान ।।

राजमहल के चिन्ह नहिं, मिलिहैं जग इत कोय।

तबहू बोतल टूक बहु, मिलिहैं कीरति होय ।।

हमारी प्रवृत्ति के हेतु कुछ यत्न करने की आवश्यकता नहीं। मनु पुकारते हैं ‘प्रवृत्तिरेषा भूतानां’ और भागवत में कहा है ‘लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्य यास्ति जंतोः।’ उसपर भी वर्तमान समय की सभ्यता की तो मैं मुख्यमूलसूत्रा हूँ।

विषयेंद्रियों के सुखानुभव मेरे कारण द्विगुणित हो जाते हैं। संगीत साहित्य की तो एकमात्रा जननी हूँ। फिर ऐसा कौन है जो मुझसे विमुख हो?

(गाती है)

(राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार)

मदवा पीले पागल जीवन बीत्यौ जात।

बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात ।।

पी प्याला छक छक आनँद से नितहि साँझ और प्रात।

झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात ।।

हाथी मच्छड़, सूरज जुगुनू जाके पिए लखात।

ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात ।।

(राजा को देखकर) महाराज! कहिए क्या हुक्म है?

भारतदु. : हमने बहुत से अपने वीर हिंदुस्तान में भेजे हैं। परंतु मुझको तुमसे जितनी आशा है उतनी और किसी से नहीं है। जरा तुम भी हिंदुस्तान की तरफ जाओ और हिंदुओं से समझो तो।

मदिरा : हिंदुओं के तो मैं मुद्दत से मुँहलगी हँू, अब आपकी आज्ञा से और भी अपना जाल फैलाऊँगी और छोटे बडे़ सबके गले का हार बन जाऊँगी। (जाती है)

(रंगशाला के दीपों में से अनेक बुझा दिए जायँगे)

(अंधकार का प्रवेश)

(आँधी आने की भाँति शब्द सुनाई पड़ता है)

अंधकार : (गाता हुआ स्खलित नृत्य करता है)

(राग काफी)

जै जै कलियुग राज की, जै महामोह महराज की।

अटल छत्र सिर फिरत थाप जग मानत जाके काज की ।।

कलह अविद्या मोह मूढ़ता सवै नास के साज की ।।

हमारा सृष्टि संहार कारक भगवान् तमोगुण जी से जन्म है। चोर, उलूक और लंपटों के हम एकमात्रा जीवन हैं। पर्वतों की गुहा, शोकितों के नेत्रा, मूर्खों के मस्तिष्क और खलों के चित्त में हमारा निवास है। हृदय के और प्रत्यक्ष, चारों नेत्रा हमारे प्रताप से बेकाम हो जाते हैं। हमारे दो स्वरूप हैं, एक आध्यात्मिक और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध हैं। सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने को मुझे मेरे परम पूज्य मित्र दुर्दैव महाराज ने आज बुलाया है। चलें देखें क्या कहते हैं (आगे बढ़कर) महाराज की जय हो, कहिए क्या अनुमति है?

भारतदु. : आओ मित्र! तुम्हारे बिना तो सब सूना था। यद्यपि मैंने अपने बहुत से लोग भारत विजय को भेजे हैं पर तुम्हारे बिना सब निर्बल हैं। मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है, अब तुमको भी वहाँ जाना होगा।

अंध. : आपके काम के वास्ते भारत क्या वस्तु है, कहिए मैं विलायत जाऊँ।

भारतदु. : नहीं, विलायत जाने का अभी समय नहीं, अभी वहाँ त्रोता, द्वापर है।

अंध. : नहीं, मैंने एक बात कही। भला जब तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के क्या करूँगा? गैस और मैगनीशिया से मेरी प्रतिष्ठा भंग न हो जायेगी।

भारतदु. : हाँ, तो तुम हिंदुस्तान में जाओ और जिसमें हमारा हित हो सो करो। बस ‘बहुत बुझाई तुमहिं का कहऊँ, परम चतुर मैं जानत अहऊँ।’

अंध : बहुत अच्छा, मैं चला। बस जाते ही देखिए क्या करता हूँ। (नेपथ्य में बैतालिक गान और गीत की समाप्ति में क्रम से पूर्ण अंधकार और पटाक्षेप)

निहचै भारत को अब नास।

जब महराज विमुख उनसों तुम निज मति करी प्रकास ।।

अब कहुँ सरन तिन्हैं नहिं मिलिहै ह्नै है सब बल चूर।

बुधि विद्या धन धान सबै अब तिनको मिलिहैं धूर ।।

अब नहिं राम धर्म अर्जुन नहिं शाक्यसिंह अरु व्यास।

करिहै कौन पराक्रम इनमें को दैहे अब आस ।।

सेवाजी रनजीत सिंह हू अब नहिं बाकी जौन।

करिहैं वधू नाम भारत को अब तो नृप मौन ।।

वही उदैपुर जैपुर रीवाँ पन्ना आदिक राज।

परबस भए न सोच सकहिं कुछ करि निज बल बेकाज ।।

अँगरेजहु को राज पाइकै रहे कूढ़ के कूढ़।

स्वारथपर विभिन्न-मति-भूले हिंदू सब ह्नै मूढ़ ।।

जग के देस बढ़त बदि बदि के सब बाजी जेहि काल।

ताहू समय रात इनकी है ऐसे ये बेहाल ।।

छोटे चित अति भीरु बुद्धि मन चंचल बिगत उछाह।

उदर-भरन-रत, ईसबिमुख सब भए प्रजा नरनाह ।।

इनसों कुछ आस नहिं ये तो सब विधि बुधि-बल हीन।

बिना एकता-बुद्धि-कला के भए सबहि बिधि दीन ।।

बोझ लादि कै पैर छानि कै निज सुख करहु प्रहार।

ये रासभ से कुछ नहिं कहिहैं मानहु छमा अगार ।।

हित अनहित पशु पक्षी जाना’ पै ये जानहिं नाहिं।

भूले रहत आपुने रँग मैं फँसे मूढ़ता माहिं ।।

जे न सुनहिं हित, भलो करहिं नहिं तिनसों आसा कौन।

डंका दै निज सैन साजि अब करहु उतै सब गौन ।।

(जवनिका गिरती है)