भारतीय-सनातन जीवन मूल्यों से विभूषित हो शिक्षा और साहित्य / कविता भट्ट

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आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक युग में नैतिक मूल्यों का निरंतर अवनयन हो रहा है। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति ने भारतीय समाज को भी भौतिकता की ओर धकेला। प्रायः हमारे द्वारा इसका दोष लार्ड मैकाले की थोपी गयी शिक्षा व्यवस्था को दिया जाता है। मैकाले की शिक्षा पद्धति ने भारतीय वातावरण में पले- बढ़े युवाओं को भी को यंत्रात्मक बना दिया। पूर्वजों द्वारा प्रदत्त संस्कारों का विरोध करते हुए युवा पीढ़ी निरंतर तथाकथित आधुनिक और शिक्षित कहलाना चाहती है। अनेकशः इसके लिए वह बड़े मोल भी चुका रही है। बड़ों की आज्ञा का पालन करना आजकल की पीढ़ी को अपने अस्तित्व पर बड़ा प्रश्नचिह्न जैसा प्रतीत होता है। सहानुभूति, अहिंसा, सत्य, प्रेम और दया इत्यादि उसे अति आदर्शवादी होने का आवरण ओढ़ने जैसा लगता है। सार यह है कि यह पीढ़ी खाओ, पियो और मौज करो को अपने जीवन का उद्देश्य मानने लगी है। इसी का परिणाम है कि वह संस्कारों को भी बोझ मानती है। संस्कार का अर्थ हैं मन, वचन और कर्म से व्यक्तित्व की शुद्धि करना। जो कुछ भी व्यक्ति करता है, व्यक्तित्व के प्रत्येक पक्ष पर उसका गहरा प्रभाव होता है। हम सभी जानते हैं कि भारतीय समाज में वैदिक काल से संस्कारों को जीवन पद्धति का अभिन्न अंग माना गया। यों तो भारतीय वांग्मय में 48 संस्कारों तक को समाहित किया गया है; किन्तु 16 संस्कार (गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन्न, चूड़ाकर्म, विद्यारम्भ, कर्णवेध, उपनयन (यज्ञोपवीत), वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह और अंतेष्टि) मुख्यधारा में रहे। संस्कार व्यक्तिपरक और सामाजिक अनुशासन का पालन करते हुए पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) के निमित्त जीवन शैली में सम्मिलित किए गए। तात्पर्य यह है कि विवाह संस्कार धर्म और अर्थ के साथ काम जैसे उद्देश्यों हेतु निर्धारित है। यह केवल शारीरिक वासना की पूर्ति का साधन न होकर, व्यापक मानवीय लक्ष्य हेतु जीवन में सम्मिलित संस्कार है। यह व्यवस्था इसलिए भी की गई थी कि मानव समाज वर्णसंकर संतान से अभिशप्त न हो।

पिछले कुछ समय से संस्कारों के अभाव में आधुनिकता और संबंधों के नाम पर ‘लिव इन रिलेशन’ जैसी विकृति ने मानसिक, सामाजिक और नैतिक पतन ही दिया। कुसंस्कारों के कटु परिणामस्वरुप जघन्य हत्या जीवन की समाप्ति ने भारतीय समाज का आधार ध्वस्त करने में कोई कमी नहीं रखी।

स्थिति चिंतनीय नहीं अपितु भयावह है। शिक्षाविदों और साहित्यकारों का दायित्व और भी अधिक बढ़ गया है। शिक्षा और साहित्य का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है; इस दृष्टि से शिक्षा पद्धति के साथ ही शिक्षाविद् और साहित्यकारों की भूमिका समाज की दिशा और दशा के लिए उत्तरदायी है। जीवन मूल्यों को भारतीय दृष्टिकोण से शिक्षा और साहित्य में अपनाने और व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। यदि पाश्चात्य सभ्यता से प्राप्त विकृतियों से समाज को बचाना है, तो शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन आवश्यक है। इसके साथ ही उसमें भारतीय जीवन मूल्यों से विभूषित और सनातन परंपरा के समृद्ध साहित्य का समावेश अनिवार्य है। साथ ही साहित्यकारों का भी दायित्व है कि सस्ती लोकप्रियता की चिंता किए बिना दार्शनिक दृष्टि से युक्त गंभीर साहित्य का सृजन करें। ऐसा करके ही हम सभी साहित्य को समाज का दर्पण नहीं अपितु मार्गदर्शक बना सकेंगे।

आधुनिक परिदृश्य में उपर्युक्त समस्त तथ्य इसलिए और भी अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं; क्योंकि भारतीय संस्कृति और सभ्यता में विवेचित विवाह नामक संस्कार समाज को एक मजबूत ढाँचा प्रदान करता है। आज इसके प्रति युवाओं में उपेक्षा का भाव निरंतर बढ़ रहा है। आज उच्च शिक्षा ग्रहण कर चुके युवा, जो कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पढ़े हुए होते हैं, वे अच्छी अंग्रेजी बोलने जीवन में अच्छी नौकरी, तथाकथित आधुनिक जीवन- शैली और दिखावे की अंधी दौड़ में निरंतर लगे हुए हैं। यह बहुत ही दु:ख की बात है कि ऐसे युवाओं के जीवन जीने का ढंग सामाजिक व्यवस्था का विरोध करता है, जिसमें संस्कार परिवार से शुरू होकर समाज को कल्याण की ओर उन्मुख करते हैं।

‘लिव इन रिलेशन’ जैसी प्रवृत्ति सामाजिक ढाँचे को ध्वस्त कर देगी; इसलिए हमें इस पर और पश्चिम से आयातित ऐसी अन्य कुप्रवृत्तियों पर गंभीरता पूर्वक चिंतन करके शिक्षा और साहित्य के माध्यम से इनका प्रबल विरोध करना चाहिए।

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