भारतीय अवचेतन में बसी ठुमरी / जयप्रकाश चौकसे

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भारतीय अवचेतन में बसी ठुमरी
प्रकाशन तिथि : 14 जनवरी 2014


डेढ़ इश्किया में संगीतकार विशाल भारद्वाज और गीतकार गुलजार ने अपनी फिल्म की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अनुरूप 'हमरी अटरिया पर आजा रे सांवरिया' का इस्तेमाल किया है परंतु उन्होंने लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह का शुक्रिया अदा नहीं किया है, जिनके दरबार की यह रचना है और ना ही बेगम अख्तर, जिनकी इस साल जन्म शताब्दी मनाई जा रही है, को आदरांजलि दी है जिन्होंने इस महान अवधी रचना की अदाएगी कुछ इस दिलकश अंदाज से की है कि अनेक गायकों द्वारा गाये जाने के बाद भी इसे बेगम अख्तर की रचना ही माना जाता है।

इस रचना का उपयोग 'डेढ़ इश्किया' में किया जाना आवश्यक था और इसे सुनकर अनेक लोग पुरानी ठुमरी के प्रति आकर्षित हुए हैं। फिल्मों की लोकप्रियता ही कुछ ऐसी है कि उसमें इस्तेमाल के बाद आम आदमी की रुचि अन्य पारम्परिक रचनाओं के प्रति भी जागती है। फिल्म में प्रस्तुत संस्करण में मूल की कुछ पंक्तियों में परिवर्तन किया गया है परंतु इस परिवर्तन से आपको इसके सृजनकार होने का अधिकार नहीं मिल जाता।

यह हरकत कमोबेश फिल्म के पात्रों खालू जान और बब्बन की तरह है जो अदव के कायल हैं परंतु हेराफेरी से बाज नहीं आते। इसी तरह इस लेख को प्रस्तुत करते समय मुझे योगेश पवार का शुक्रिया अदा करना नहीं भूलना चाहिए अन्यथा मैं भी भारद्वाज और गुलजार की तरह हो जाऊंगा, बारह तारीख के मुंबई से प्रकाशित डीएनए अखबार में इस विषय पर दो ज्ञानवर्धक लेख योगेश पवार ने लिखे हैं। उन्हें नमन करता हूं।

फिल्मों में ठुमरी का इस्तेमाल दशकों से होता रहा है और केएल सहगल का स्ट्रीट सिंगर का गीत 'बाबुल मोरा मैहर छूटो जाय' मील का पत्थर है। बड़े गुलाम अली खान द्वारा 'मुगले आजम' में प्रस्तुत ठुमरी 'प्रेम जोगन बनके' पूरे देश के अवचेतन में हमेशा गूंजती रहेगी। ज्ञातव्य है कि नौशाद ने बड़ी मिन्नतें करके बड़े गुलाम अली खान साहब को फिल्म में गाने के लिए तैयार किया था और उनकी रजामंदी से उत्साहित होकर के. आसिफ ने खान साहब को दस हजार का नजराना दिया था। सन् 1958 में यह इतनी बड़ी रकम थी कि इससे एक मकान खरीदा जा सकता था। इन रुपयों से कहीं ज्यादा श्रेय आसिफ को इस बात के लिए दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इसका फिल्मांकन अत्यंत कल्पनाशीलता और गहरी संवेदना से किया। अलसभोर में दिलीप कुमार ने मोरपंख से मधुबाला के गाल को सहलाया और उसके रोम-रोम ने इस स्पर्श को महसूस किया और प्रेमल हृदय आज भी उस सिहरन को महसूस कर सकते हैं। फिल्म 5 अगस्त 1960 को प्रदर्शित हुई परंतु गीत दो या तीन वर्ष पूर्व रिकार्ड किया गया था।

लता मंगेशकर ने मदन मोहन की ठुमरी 'नैनों में बदरा छाये' 'मेरा साया' के लिए गाया था। यह एक अमर रचना है। परवीन सुल्ताना की अदा की गई ठुमरी 'कौन गली गए श्याम' फिल्म 'पाकीजा' के लिए थी। जब बिरजू महाराज को 'मुगले आजम' के गीत 'मोहे पनघट' पर के फिल्मांकन के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्हें अपने महान कलावंत परिवार के वे बुजुर्ग याद आए जिन्होंने नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में इस नृत्य की प्रस्तुति में वाजिद अली शाह के साथ सहयोग किया था। यह महान गंगा जमुनी संस्कृति का प्रमाण है कि मुस्लिम नवाब वाजिद अली शाह 'मोहे पनघट' पर प्रस्तुत करते थे।

आज राजनैतिक स्वार्थ के कारण अनेक अभद्र बंटवारे करने वाले लोगों को कभी ये ठुमरियां और उस महान अदब की बातें समझ नहीं आ सकती। 'डेढ़ इश्किया' हमें अदब के उस दौर से परिचित कराती है और इसके लिए अभिषेक चौबे, भारद्वाज और गुलजार को शुक्रिया पर कितना अच्छा होता कि वे भी बेगम अख्तर और नवाब वाजिद अली शाह को आदर देते। इन बातों से आज किसको क्या फर्क पड़ता है।