भारतीय कथा परम्परा / राधावल्लभ त्रिपाठी

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भारतवर्ष कथा की जन्मभूमि है, यह कहानी का आदि देश है। मनुष्य ने जिस क्षण इस देश की धरती पर पहली बार पाँव रखा होगा, कदाचित् उसी समय से कहानी का भी प्रचलन हमारे यहाँ हुआ होगा। ऋग्वेद विश्व-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है, जिसकी रचना ईसा से कुछ हजार वर्ष पहले हो चुकी थी। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर तत्कालीन समाज में कहानी या किस्सागोई की लोकप्रियता और एक प्रचलित विधा होने के प्रमाण मिलते हैं। इन्द्र उस समय का एक महानायक था। इन्द्र को लेकर ही ऋग्वैदिक समाज में अनेक मिथक या किंवदन्तियाँ गढ़ी जा चुकी थीं। कहानी इन मिथकों और कथाओं में अन्तर्गर्भित थी। इन्द्र की चरितगाथा अपने आप में एक औपन्यासिक विस्तार को समेटे हुए कहानी का ढाँचा सामने रखती है। इस दृष्टि से ऋग्वेद (1/32) का यह अंश पठनीय है :

“मैं इन्द्र के पराक्रमों का वर्णन करता हूँ, जिन्हें उस वज्रधारी ने सबसे पहले किया है। उसने अहि (नामक असुर) को मारा, जल की धारा को प्रवाहित किया और पर्वत पर नदियों के लिए रास्ता खोला। इन्द्र ने उस अहि को मार गिराया, जो पर्वत पर रहता था। त्वष्टा ने इन्द्र के लिए वज्र बनाया था। (इन्द्र ने जैसे ही नदियों का रास्ता खोला,) रँभाती हुई गायों की तरह जल नीचे की ओर बह चला। उसने अपने बल को प्रखर करने के लिए सोमपान किया और वज्र से अहि पर प्रहार किया। इन्द्र ने मायावियों की माया का विरोध किया। उसने सूर्य, उषा और आकाश को अनावृत किया। इसके पश्चात् इन्द्र का कोई शत्रु न रहा। इन्द्र ने वृत्र के अंगों को ऐसे काट डाला, जैसे पेड़ की डालियाँ काटी जाती हैं। वृत्र धरती पर गिर पड़ा। मद्यपान करके वृत्र वीर इन्द्र से लड़ने चला था। इन्द्र सोमपायी है, उसने अनेक शत्रुओं का दमन किया है। वृत्र इन्द्र के प्रहारों को कैसे सह सकता था? वह बुरी तरह से हारा। पर हाथ और पाँव कट जाने पर भी उसने इन्द्र से लड़ाई जारी रखी। इन्द्र ने उसकी पीठ पर वज्र से प्रहार किया। (साधारण) बैल भला साँड के मुकाबले में ठहर सकता है? वृत्र के टुकड़े-टुकड़े हो गये। तब जल का प्रवाह लोगों की प्यास बुझाने के लिए वृत्र के ऊपर से बह उठा। वृत्र ने जल की धारा को जबरदस्ती रोक रखा था। अब वही जल उसे रौंदता हुआ बह रहा था। इन्द्र ने वृत्र की शक्तिहीन माता पर भी प्रहार किया। माता ऊपर थी, वृत्र नीचे पड़ा था। वृत्र की माता ऐसे पड़ी थी, जैसे गाय अपने बछड़े के साथ पड़ी हो। वृत्र का मृत शरीर उस जल-धारा में पड़ा था, जो रुकना नहीं जानती, विश्राम नहीं करती। इसी दास के बस में होकर तो जल अभी तक रुका हुआ था। अहि उसका रक्षक था। जैसे पणि गायों को रोक लेते हैं, वैसे ही उसने जल की धाराओं को रोक रखा था। इन्द्र ने वृत्र को मारकर जल का द्वार खोल दिया। जब वृत्र ने इन्द्र के वज्र पर प्रहार किया, तो इन्द्र घोड़े की पूँछ के समान (फुर्तीला) बन गया और उसके प्रहार का निवारण कर सका।...जिस अवसर पर इन्द्र और वृत्र का युद्ध हुआ, वृत्र के द्वारा प्रयुक्त विद्युत और गर्जन, कोहरा और वज्र सब बेकार हुए। इन्द्र को सदा के लिए विजय मिली।

हे इन्द्र, वृत्र को मारने के पश्चात् तुम्हें उसका कौन-सा सहायक दिख गया जिसके डर से तुम निन्यानबे योजन भागते चले गये? और बाज की तरह आकाश में उड़ गये?”

निश्चय ही इन्द्र विषयक यह सूक्त भारतीय आख्यान-परम्परा की पीठिका प्रस्तुत करता है। आख्यान या भारतीय कहानी का यह एक रूप है, जो पुराकथा के मिथकीय और प्रतीकात्मक पर्यावरण में भी जीवन के स्पन्दन से युक्त है। इन्द्र की चरित-गाथा में कल्पनाशीलता, कथा का रहस्य और रोमांच, किस्सागोई की भंगिमा और मानवीय सम्बन्धों की परिकल्पना मिलती है। उपज के तत्त्व द्वारा कहानी को आकर्षक और रोमांचक भी बनाया गया है। उपर्युक्त उद्धरण का ही अन्तिम वाक्य इसका सुन्दर नमूना है। इन्द्र के विषय में ही ऋग्वेद के एक और सूक्त (4/18) में बताया गया है कि इन्द्र की अपने पिता त्वष्टा के साथ नहीं पटती थी। पिता पुत्र को समाप्त कर देना चाहता था। इन्द्र सोम को पाकर वैभवशाली होना चाहता था। उसकी माता ने उसे सोम दे दिया। माता का चुराकर दिया सोम इन्द्र पा गया, तब पिता और पुत्र में झगड़ा हुआ, और अन्त में इन्द्र ने पिता को मार ही डाला। उसने त्वष्टा को पर्वत से धकेलकर सदा के लिए मृत्यु की गोद में सुला दिया।

इस प्रकार की पुराकथाओं में मिथक के साथ-साथ इतिहास भी मिला हुआ है। वे पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ ऐतिहासिक कथाओं की भी परम्परा का सूत्रपात्र करती हैं। उस समय के पराक्रमी या यशस्वी राजाओं को लेकर आख्यानों या कथाओं की रचना का जो उपक्रम वैदिक काल में हुआ, उसने भारतीय कहानी और प्रबन्ध-साहित्य की उर्वर भूमि तैयार की। पुरूरवा और उर्वशी की प्रणयकथा उस समय की ऐसी ही लोकप्रिय कहानियों में से रही होगी, जिसमें ऐतिहासिकता का पुट भी है, मिथकशास्त्र भी जुड़ा हुआ है और लोककथा का आधार भी है। ऋग्वेद में एक सूक्त में पुरूरवा और उर्वशी का संवाद निबद्ध है, पर यह संवाद जिस प्रसंग में हो रहा है, उसकी पूर्वकथा पर वहाँ प्रकाश नहीं डाला गया है। यह कथा शतपथ ब्राह्मण में बतायी गयी है। ऋग्वेद के उक्त संवादसूक्त और शतपथ ब्राह्मण में उसकी कथा-इन दोनों को मिलाकर वैदिक काल की इस लोकप्रिय कथा का पूरा स्वरूप सामने आ जाता है, जो भारतीय कथा साहित्य की प्राचीनतम धरोहर है। इसलिए इस संकलन में ऋग्वेद और शतपथ ब्राह्मण से अनूदित पुरूरवा और उर्वशी की कथा को सबसे पहले रखा गया है।

पुराकथा के अतिरिक्त सामाजिक सन्दर्भों से जुड़ी ऐसी छोटी-छोटी कहानियों का भी बहुत पुराने जमाने से ही हमारे यहाँ चलन रहा होगा, जिनमें मिथकों के महिमामण्डित अलौकिक विश्व के स्थान पर रोजमर्रा का जीवन है, हमारे घर-द्वार की कथा है या हमारे बीच के किसी व्यक्ति की आप-बीती है। बतरस और गोष्ठी के पर्यावरण में आपबीती से बढ़कर रुचिकर वस्तु और क्या हो सकती है? पर आपबीती कहने की यह परम्परा अपने प्रकृत रूप में तो वाचिक परम्परा में ही फूल-फल सकती थी, साहित्यिक परम्परा में भी इसकी आकर्षक परिणतियाँ धूर्ताख्यान या दशकुमारचरित जैसी कथाकृतियों में हम पाते हैं। पर आपबीती को कथा के रूप में कहने की यह परम्परा कितनी पुरानी है-इसका साक्ष्य भी हमें ऋग्वेद से ही मिलता है। ऋग्वेद का कितव-सूक्त (10/34) एक जुआरी की आपबीती ही तो है। जुआरी अपनी जिन्दगी का हाल बताते हुए कहता है-”मेरी पत्नी (पहले) मुझे डाँटती नहीं थी। मेरे ऊपर रिसाती भी नहीं थी वह। वह मुझ पर और मेरे मित्रों पर दयालु थी। मैंने पासों के चक्कर में अपनी उस साध्वी पत्नी को घर से निकाल बाहर किया। अब तो मेरी सास मुझसे घृणा करती है। मेरी स्त्री अब मुझसे अलग रहती है। दुखियारे का सचमुच कोई सगा नहीं होता। मेरी स्थिति बूढ़े घोड़े की तरह है, जिसे कोई घास नहीं डालता।...बार-बार सोचता हूँ कि अब नहीं खेलूँगा जुआ और जुआरियों की संगत छोड़ दूँगा। पर जब भूरे रंग के पासे (जुआ घर में) फिंकने लगते हैं, तो मैं अपने आपको रोक नहीं पाता, उनकी आवाज सुनते ही चल देता हूँ, जैसे कोई नायिका प्रिय से मिलने चल देती हो।”

इस प्रकार ऋग्वेद के काल से आख्यान या कथा की जो परम्परा हमारे देश में प्रारम्भ हुई, उसमें पौराणिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक पक्षों को बराबर स्थान मिला। इसलिए अथर्ववेद में इतिहास, पुराण, गाथा और नाराशंसी-इन चार लोकप्रिय विधाओं का उल्लेख किया गया है। इनमें से इतिहास का सम्बन्ध अतीत से, पुराण का मिथक या अलौकिक वृत्त से तथा गाथा और नाराशंसी का सम्बन्ध समकालीन मनुष्य-जीवन से है।

वैदिक संहिताओं (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) के पश्चात् आख्यान और इतिहास-पुराण की परम्परा का विस्तार लगभग 1000 ई.पू्. तक ब्राह्मण-ग्रन्थों के द्वारा होता रहा। शाबरभाष्य में ब्राह्मण-ग्रन्थों की दस विधियाँ बतायी गयी हैं, जिनमें उनके वर्ण्य-विषयों का समावेश हो जाता है - हेतु, निर्वचन, निन्दा, प्रशंसा, संशय, विधि, परक्रिया, पुराकल्प, व्यवधारण-कल्पना तथा उपमान। इनमें से निन्दा और प्रशंसा दोनों के लिए अर्थवाद की प्रविधि का उपयोग किया जाता है और अर्थवाद का सम्बन्ध इतिहास, आख्यान और पुराणों से जुड़ता है। इस प्रकार ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञों की विधियाँ बताने के प्रसंग में अर्थवाद की दृष्टि से इतिहास, पुराण या आख्यानों की कहानियाँ प्रस्तुत की गयी हैं, जिनसे कथा कहने की प्राचीन शैली का पहली बार परिचय मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में पुरूरवा और उर्वशी की कथा इसी प्रकार आयी है। इसी तरह मैत्रायणी संहिता में रात्रि और पर्वतों के पंखों को लेकर दो सुन्दर कहानियाँ मिलती हैं। इसमें रात्रि की सृष्टि की कथा इस प्रकार बतायी गयी है -

यम की मृत्यु हो गयी थी। देवता प्रयास कर रहे थे कि यमी उसे भूल जाय। जब कभी यमी से पूछा जाता, वह यही बताती कि यम आज ही मरा है। देवताओं ने कहा कि इस तरह तो वह यम को कभी भी न भूल पाएगी। तो हम लोग रात्रि की सृष्टि करें। तब देवताओं ने रात्रि बनायी। रात्रि के बाद जो दिन आया, वह अगला दिन कहलाया। और यमी यम को भूल गयी। इसलिए लोग कहा करते हैं कि रात और दिन के क्रम से मनुष्य अपना दुःख भूल जाता है।

सृष्टि के बारे में भी अनेक कथाएँ ब्राह्मण-ग्रन्थों में मिलती हैं। इन कथाओं में मनुष्य जाति की जीवन और जगत् के विषय में प्राचीनतम परिकल्पनाएँ सामने आती हैं। दूसरे देशों में प्रचलित सृष्टि और प्रलय के विषय की पुरानी कथाओं से इनकी रोचक तुलना हो सकती है। इस संकलन में शतपथ ब्राह्मण से ली गयी प्रलय की कथा इसी प्रकार की कथा है।

निश्चय ही हमारे देश में कहानी की जो प्राचीन परम्परा पनपी, उसने अन्य देशों की भी यात्रा की। सिन्दबाद और ईसप की कथाओं का मूल भारतवर्ष माना जाता है, और पंचतन्त्र की विश्वयात्रा तो विदित ही है।

वैदिक साहित्य के समानान्तर आख्यान या प्राचीन कथाओं का जो लोकप्रिय साहित्य विकसित हो रहा था, उसकी परिणति रामायण, महाभारत तथा पुराणों के रूप में ईसा से पहले की कुछ सदियों में होने लगी। पाणिनि (500 ई.पू.) ने आख्यान और आख्यायिका का इतिहास और पुराण के साथ उल्लेख किया है। पतंजलि (दूसरी सदी ई.पू.) ने वासवदत्ता, समनोत्तरा और भैमरथी-इन तीन आख्यायिकाओें का नाम-निर्देश किया है। उस युग में ये तीन आख्यायिकाएँ लिखी गयी थीं पर अब ये प्राप्त नहीं होतीं।

आख्यान, उपाख्यान, आख्यायिका आदि उस समय की लोकप्रिय कथाओं के रूप थे, जिन्हें सूत, मागध, चारण या कुशी-लव लोगों के सामने गा-गाकर या कह कर प्रस्तुत करते थे। आगे चलकर जब इन कथारूपों का परिष्कृत साहित्य की विधाओं में उपयोग किया गया, तो संस्कृत साहित्य में कथा और आख्यायिका इन दो कथा विधाओं का विकास हुआ। बाद में आख्यान, उपाख्यान आदि का लक्षण भी कुछ काव्यशास्त्र के आचार्यों ने निर्धारित करने का प्रयास किया। भोज के अनुसार आख्यान, उपाख्यान का भी अभिनय, पाठ और गायन के साथ प्रस्तुत किया हुआ रूप है और इसकी प्रस्तुति किसी ग्रन्थ से इसे पढ़-पढ़कर की जाती है।

भोज ने उपाख्यान का लक्षण बताते हुए कहा है कि किसी प्रबन्ध (सम्पूर्ण ग्रन्थ) के भीतर किसी को उपदेश देने के लिए दृष्टान्त के रूप में कही गयी कथा उपाख्यान है, नल-दमयन्ती की कथा, सावित्री-सत्यवान् की कथा-इस प्रकार की कथाएँ इसके उदाहरण हैं।

महाभारत भारतीय उपाख्यान परम्परा का एक महाकोश है। वाचिक परम्परा में प्रचलित सहस्रों कहानियाँ इसमें समाविष्ट कर ली गयी हैं। इनमें से नलोपाख्यान, सावित्र्युपाख्यान, शकुन्तलोपाख्यान आदि ऐसी कथाएँ हैं, जो अत्यन्त प्राचीन काल से हमारे समाज में बहुत लोकप्रिय रही हैं। इन उपाख्यानों को अनेक पुराणों तथा संस्कृत के बहुत प्रबन्ध-काव्यों में बार-बार प्रस्तुत किया गया है, पर जिस आदिम रस-गन्ध और विशद रूप के साथ ये महाभारत में आये हैं, वह भारतीय कथासाहित्य की अमूल्य निधि है। अतएव भारतीय कथा की परम्परा के इस प्रतिनिधि चयन में महाभारत से ऐसे उपाख्यानों का संकलन उचित ही है।

प्राचीन काल से ही भारतीय-कथा परम्परा असंख्य धाराओं में प्रवाहित होती रही है, और उसके सारे प्रवाह महाभारत के महासागर में भी समा नहीं सके। प्राचीन महापुरुषों या महानायकों को लेकर कहानियाँ कहने की जो परम्परा वैदिक काल में शुरू हुई थी, वह कथा चक्रों के रूप में बाद में और विपुल आयाम धारण करती रही। ईसा पूर्व की सदियों में उदयन, विक्रमादित्य, सातवाहन और शूद्रक (?) ऐसे राजा हुए जिन्हें लेकर कथाओं की कई श्रृंखलाएँ हमारे यहाँ प्रचलित हो गयीं। इनमें कुछ राजाओं की कथाएँ बाद में कुछ महाकवियों ने भी अपने महाकाव्यों या नाटकों के लिए लीं।

महाभारत के पश्चात् भारतीय-कथा परम्परा की महास्रोतस्विनी बृहत्कथा के रूप में प्रवाहित हुई। बृहत्कथा में कहानी ने अपना सहज रूप पाया, वह जन-जन के मन में रमी, समाज में कही-सुनी जाने वाली कथाओं से जुड़कर आगे बढ़ी। रामायण और महाभारत के पश्चात् बृहत्कथा कदाचित् भारतीय साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित और अनुप्राणित करने वाला ग्रन्थ है। इसके लेखक गुणाढ्य अपने आप में एक किंवदन्ती बन गये, और उनकी कृति को रामायण और महाभारत के बाद संस्कृत साहित्य में एक उपजीव्य ग्रन्थ के रूप में सबसे अधिक आदर भी मिला। स्वयं गुणाढ्य को हमारी साहित्यिक परम्परा व्यास और वाल्मीकि के बराबर पूज्य भी मानती आयी है।

कहानियों का यह विराट् संकलन गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में लगभग पहली शताब्दी ईसवी पूर्व में तैयार किया था, जो बाद में लुप्त हो गया। बृहत्कथा की लोकप्रियता का पता इस बात से चलता है कि संस्कृत में इसके अनेक रूपान्तर तैयार किये जाते रहे, और प्राकृत की कदाचित् यही ऐसी कृति है, जिसका संस्कृत में कई रचनाकारों ने अलग-अलग अनुवाद या रूपान्तर प्राचीन काल में किया। बृहत्कथा के कम से कम चार पुराने रूपान्तरों का पता चलता है - क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर, बुधस्वामी का बृहत्कथाश्लोकसंग्रह तथा वामनभट्ट की बृहत्कथामंजरी (अपूर्ण प्राप्त)। इनके अतिरिक्त प्राकृत में ही संघदासगणि ने वसुदेवहिण्डी नाम से बृहत्कथा का एक नया रूपान्तर भी तैयार किया। इन रूपान्तरों में बुधस्वामी का बृहत्कथाश्लोकसंग्रह काफी पुराना (लगभग पाँचवीं सदी ई.) माना जाता है, और संघदासगणि का रूपान्तर उसके कुछ समय बाद का। क्षेमेन्द्र और सोमदेव दोनों कश्मीर के हैं तथा लगभग समकालीन हैं। दोनों का समय ग्यारहवीं-बारहवीं सदी के आसपास है।

बुधस्वामी का रूपान्तर बृहत्कथा के नेपाली संस्करण पर आधारित कहा गया है तथा वामनभट्ट का उसके दक्षिणी संस्करण पर, जब कि क्षेमेन्द्र और सोमदेव के सामने बृहत्कथा का कश्मीर में प्रचलित स्वरूप रहा होगा। ऐसा लगता है कि ईसा के बाद की सदियों में रामायण और महाभारत या पुराणों के ही समान बृहत्कथा के भी देश के अलग-अलग भागों में अलग-अलग प्रारूप चल पड़े थे। सभी रूपान्तरों में बृहत्कथा की मूल कथा योजना एक समान है, पर अवान्तर कथाओं तथा कथाओं के विन्यास की दृष्टि से काफी फर्क है।

बृहत्कथा का हमारी साहित्यिक परम्परा में कितना महत्त्व था, यह गुणाढ्य तथा उनकी रचना के विषय में संस्कृत के अनेक गण्यमान्य कवियों द्वारा प्रकट किये गये उद्गारों से विदित होता है। उद्योतन सूरि ने 779 ई. में रचित अपनी कुवलयमाला कहा के आरम्भ में बृहत्कथा की प्रशंसा करते हुए कहा है - “बृहत्कथा क्या है, साक्षात् सरस्वती है। गुणाढ्य स्वयं ब्रह्म हैं। यह कथा ग्रन्थ समस्त कलाओं की खान है। कविजन इसे पढ़कर रचनाकर्म में प्रशिक्षित होते हैं।” सातवीं सदी के संस्कृत के महान् गद्यकार महाकवि बाण ने बृहत्कथा की तुलना शिवलीला से की है। ग्यारहवीं सदी के कवि धनपाल ने अपनी तिलकमंजरी में बृहत्कथा की उपमा उस समुद्र से दी है, जिसकी एक-एक बूँद से कितनी ही कथाएँ उपजती हैं। बृहत्कथा का अध्ययन करना तथा उसका रूपान्तर तैयार करना प्राचीन काल में गौरव की बात समझी जाती थी। कोल्लार क्षेत्र के गुम्मारेड्डीपुर से प्राप्त एक ताम्रपत्र में छठी सदी के पूर्वार्ध के एक शासक राजा दुर्विनीत के सम्बन्ध में बताया गया है कि उस राजा ने एक व्याकरण, किरातार्जुनीय-महाकाव्य के पन्द्रह सर्गों की टीका तथा बृहत्कथा का संस्कृत में एक रूपान्तर तैयार किया था। बृहत्कथा की ख्याति भारतवर्ष के बाहर या बृहत्तर भारत में भी फैली हुई थी। काम्बोज के राजा यशोवर्मन् के शिलालेखों में तीन बार गुणाढ्य का उल्लेख किया गया है।

क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव ने अपने रूपान्तरों में बृहत्कथा के लेखक गुणाढ्य के विषय में अनुश्रुतियों से प्राप्त कुछ जानकारी दी है। इसके अनुसार गुणाढ्य का जन्म गोदावरी के किनान प्रतिष्ठान नगर में हुआ था। उस समय प्रतिष्ठान नगर सातवाहन सम्राट् हाल की राजधानी थी, जिनका समय पहली सदी ई. माना जाता है।

बृहत्कथा की उत्पत्ति या रचना को लेकर अपने आप में एक रोचक मिथकीय कथा प्राचीनकाल से ही चल पड़ी, जिसका विवरण इसके रूपान्तरकारों ने दिया है। कथासरित्सागर के लेखक सोमदेव के अनुसार यह कथा इस प्रकार है - “एक बार भगवान् शिव पार्वती को कथाएँ सुनाने बैठे और उन्होंने विद्याधर-चक्रवर्तियों की सात आश्चर्यजनक कथाएँ पार्वती को सुनायीं। यद्यपि ये कथाएँ उन्होंने नितान्त एकान्त में ही पार्वती के आगे कही थीं, पर चोरी से उनके एक अनुचर पुष्पदन्त ने छिपकर उन्हें सुन लिया। उसने अपनी जया को वे कहानियाँ सुनायीं। जया ने वे कहानियाँ अपनी सखियों के आगे कह दीं। तब होते-होते कहानियों की चर्चा पार्वती जी के आगे भी आ गयी, और जब पता चला कि पुष्पदन्त ने छिपकर वे कहानियाँ सुनी हैं, तो पार्वती ने कुपित होकर पुष्पदन्त को मृत्युलोक में जन्म लेने का शाप दे दिया। पुष्पदन्त के भाई माल्यवान् ने उसकी ओर से क्षमा माँगी। पर पार्वती इतनी कुपित थीं, कि उन्होंने पुष्पदन्त की ओर से क्षमायाचना करने वाले माल्यवान् को भी वही शाप दे डाला। पुष्पदन्त की पत्नी जया पार्वती की परिचारिका थी। उसका दुःख देखकर बाद में पार्वती को करुणा आयी। तब उन्होंने अपने शाप का परिहार करते हुए कहा कि जब पुष्पदन्त मर्त्ययोनि में विन्ध्याचल पर्वत पर काणभूति से मिलेगा, और उसे वे ही कथाएँ सुना देगा, जो उसने चोरी से सुनी हैं, तो उसके शाप की मुक्ति हो जाएगी, तथा मर्त्ययोनि में वह अपना वास्तविक परिचय भूलेगा नहीं। इसी प्रकार माल्यवान् भी काणभूति से इन कथाओं को सुनेगा और इनका लोक में प्रचार करेगा, तब फिर वह शिवलोक में लौट आएगा।” पार्वती के शाप के अनुसार पुष्पदन्त ने कौशाम्बी नगरी में वररुचि (कात्यायन) के रूप में अवतार लिया और वह महान वैयाकरण तथा नन्दवंश के अन्तिम राजा योगनन्द का मन्त्री बना। जीवन के उत्तरार्ध में विरागी होकर वह विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी देवी की यात्रा में पहुँचा, जहाँ उसकी भेंट काणभूति से हुई। उसे अपने पूर्व जन्म की स्मृति हो आयी, और उसने काणभूति को वे सातों बृहत्कथाएँ सुनायीं। वह शापमुक्त होकर शिवलोक आ गया। उसके भाई माल्यवान् ने प्रतिष्ठानपुरी में गुणाढ्य के रूप में जन्म लिया था। वह वहाँ के राजा सातवाहन का मन्त्री बना। उसके दो शिष्य हुए - गुणदेव और नन्दिदेव। इन दोनों को लेकर वह काणभूति के पास आया, और काणभूति से सातों बृहत्कथाएँ प्राप्त कर उसने उनको एक-एक को एक-एक लाख श्लोकों में अपने रक्त से लिखा। फिर अपने शिष्यों के आग्रह पर उसने वे बृहत्कथाएँ राजा सातवाहन के पास भेजीं, जिससे उस महाग्रन्थ को समुचित आदर और सुरक्षा मिल सके। पर राजा को वे कथाएँ पसन्द न आयीं, क्योंकि वे प्राकृत भाषा (पैशाची प्राकृत) में लिखी गयी थीं। इससे गुणाढ्य को बड़ा आघात लगा। जब राजा के द्वारा अनादृत पोथी उसके सामने आयी तो उसने उसका एक-एक पृष्ठ पढ़ते-पढ़ते आग में जलाना शुरू किया। जंगल के सारे पक्षी एकत्र होकर उसके द्वारा पढ़ी जाती उन कहानियों को मुग्ध होकर सुनते रहे। उसके कारण राजा सातवाहन को पक्षियों का अच्छा मांस मिलना बन्द हो गया और जब उसने इसका कारण पता लगवाया, तो उसे अपने द्वारा बृहत्कथाओं के किये गये अनादर पर पश्चात्ताप हुआ। पर तब तक गुणाढ्य अपनी बृहत्कथा के छह खण्ड जला चुके थे। सातवाहन ने पहुँचकर उन्हें शेष अंश जलाने से रोका। इस प्रकार बृहत्कथा का एक लाख श्लोकों का केवल सातवाँ खण्ड ही बच सका।

वास्तव में बृहत्कथा भारतीय कथा साहित्य की एक अमूल्य निधि रही है। अपने मूल में अप्राप्य होकर भी अनेक रूपान्तरों के माध्यम से परवर्ती काल में भी वह उतनी ही लोकप्रिय बनी रही। इन रूपान्तरों में सोमदेव का कथासरित्सागर कथानक की प्रस्तुति की दृष्टि से तथा वर्णन शैली, विदग्धता और कविप्रतिभा के योग के कारण सबसे अधिक सुपाठ्य और रोचक है। अतः इस संकलन में बृहत्कथा परम्परा की कथाओं के परिचय के लिए कथासरित्सागर से ही चार कथाएँ चुनी गयी हैं।

बृहत्कथा में भारतीय कहानी का एक विशेष स्वरूप परिलक्षित होता है, जिसमें एक किस्से के भीतर से दूसरा तथा दूसरे के भीतर से तीसरा निकलता जाता है, और इस प्रकार कहानियों की श्रृंखला बन जाती है। पंचतन्त्र तथा संस्कृत के अन्य कथा ग्रन्थों में भी कहानी की इस विशिष्ट शैली का प्रयोग हुआ है, जिसमें एक कहानी का कोई पात्र दूसरे पात्र को कोई और कहानी प्रसंगवश सुनाने लगता है, या कोई पात्र अपनी आपबीती बताते हुए एक अलग कथा संसार रच लेता है।

बृहत्कथा की परम्परा में परवर्ती युग में विपुल कथा साहित्य लिखा जाता रहा। वैतालपंचविंशति, शुकसप्तति, सिंहासनद्वात्रिंशिका, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि ऐसी कथा रचनाएँ हैं, जिनके संस्कृत में ही कई-कई संस्करण प्राचीन काल से ही प्रचलित रहे हैं और लोकथाओं तथा लोकसाहित्य की परम्परा से भी ये रचनाएँ गहराई से जुड़ी रही हैं। वैतालपंचविंशति वैतालपचीसी के रूप में, शुकसप्तति किस्सा तोता-मैना के रूप में तथा सिंहासनद्वात्रिंशिका सिंहासनबत्तीसी के रूप में लोक भाषाओं में रूपान्तरित होकर घर-घर में पढ़ी, कही, सुनी जाती रही हैं।

यद्यपि वैतालपंचविंशति की पच्चीस कथाएँ बृहत्कथा के क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव द्वारा प्रस्तुत रूपान्तरों में भी शामिल हैं, पर वैतालपंचविंशति मूल बृहत्कथा से स्वतन्त्र एक पृथक् कथाचक्र के रूप में विकसित हुई होगी - ऐसा अनुमान किया जाता है। वैतालपंचविंशति के संस्कृत में कम से कम चार संस्करणों का पता चलता है। इनमें शिवदास के द्वारा रचित वैतालपंचविंशति सर्वाधिक उल्लेखनीय है, जिसमें गद्य के साथ-साथ बीच-बीच में पद्य का भी प्रयोग किया गया है। इसका समय पन्द्रहवीं सदी के आसपास कूता गया है। दूसरी वैतालपंचविंशति किसी अज्ञात लेखक के द्वारा गद्य में तैयार की गयी। तीसरा अपेक्षाकृत संक्षिप्त प्रारूप वल्लभदेव ने तैयार किया। इसके अतिरिक्त वैतालपंचविंशति का एक चौथा प्रारूप जम्भलदत्त के द्वारा रचा गया है।

शुकसप्तति में एक तोते के द्वारा सौदागर की पत्नी प्रभावती को सुनाई गयी सत्तर कथाएँ हैं। इसके भी दो प्राचीन संस्करणों का पता चलता है - एक अलंकृत संस्करण है, दूसरा सरल। पहला संस्करण बारहवीं सदी के आसपास का माना गया है।

कहानी के क्षेत्र में पंचतन्त्र भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी देन कही जा सकती है। पाँचवीं सदी से दुनिया की कई भाषाओं में इसके अनुवाद किये जाने की परम्परा अकारण ही नहीं चल पड़ी थी। पश्चिमी विद्वानों ने भी कहानी की परम्परा में पंचतन्त्र के योगदान के महत्त्व को स्वीकार किया है। “दुनिया की किसी जाति के पास कदाचित् इतना सम्पन्न कथा साहित्य नहीं है, जितना भारतीयों के पास, और अन्य देशों में भी जितना पुराना कहानी साहित्य है, वह भारतीय कहानी की देन कहा जा सकता है।” -विण्टरनित्स के इस कथन में कहानी की भारतीय परम्परा की जिस गुरुता और विशालता का संकेत है, उसके केन्द्र में पंचतन्त्र रहा है।

अधिकांशतः पंचतन्त्र का कलेवर पशुकथाओं के तानेबाने में बुना हुआ है, यद्यपि उसमें अनेक कहानियाँ ऐसी भी हैं, जो सीधे मनुष्य जगत् से सम्बद्ध हैं। पशुकथाओं की परम्परा वैदिक आख्यानों से प्रारम्भ होकर महाभारत, पुराणों और जातक-कथाओं में चली आ रही थी और पंचतन्त्र में संकलित कथाओं में से भी बहुत-सी उसके पहले से प्रचलित रही हैं पर पंचतन्त्र के रचयिता ने इन कहानियों को समेटते हुए ऐसी कुछ रूपबन्ध और कथ्य की अन्विति पैदा की कि कहानी की अपनी पहचान उभरकर सामने आयी।

कहानी की एक लम्बी विरासत के रहते काव्यशास्त्र के आचार्यों के द्वारा कहानी से मिलती-जुलती विधाओं का परिगणन और उनके लक्षणों का व्यवस्थापन स्वाभाविक ही था। उपाख्यान, आख्यान, निदर्शना, प्रवह्लिका, मन्थुल्ली, मणिकुल्या, परिकथा, खण्ड-कथा, बृहत्कथा-इस तरह की अनेक विधाएँ आनन्दवर्धन आदि संस्कृत काव्यशास्त्र के आचार्यों ने परिगणित कीं और भोज जैसे आचार्यों ने उनके विस्तार से सोदाहरण लक्षण भी प्रस्तुत किये। यदि आधुनिक कहानी का एक व्यापक लक्षण किया जाय, तो इन विधाओं के अधिकांश के लक्षण उसमें उपलक्षण बनकर समा सकते हैं।

पंचतन्त्र को इन आचार्यों ने निदर्शना नामक कथाविधा के अन्तर्गत रखा है, क्योंकि इसमें मनुष्यजगत् के किसी सत्य के निदर्शन के लिए पशुकथाओं या पशु-प्रतीकों का उपयोग किया गया है। निदर्शन की यह विशिष्ट पद्धति पंचतन्त्र को आधुनिक कहानी के निकट भी लाती है और उससे कुछ आगे भी ले जाती है। पंचतन्त्र ने अपने से पहले की पशुकथाओं की परम्परा का संचय तो किया है, उसने उनमें एक नयी बात भी पैदा की। पंचतन्त्र की कहानियों में मनुष्यजगत् जितनी विविधता के साथ चित्रित है, वह कहानियों को समकालीन बनाती है और आधुनिक भी।

मानवीय व्यापार का पशुजगत् पर आरोप यहाँ एक विशिष्ट योजना और अभिप्राय के तहत किया गया है। इस योजना में मनुष्य और पशु एक-दूसरे के आमने-सामने आ खड़े होते हैं। पंचतन्त्र की इस योजना से कहानी का प्रतिमान भी उभरकर सामने आता है-कहानी के माध्यम से पंचतन्त्र मनुष्य की दुर्बलता, अक्षमता और मूर्खता को भी, तथा उसकी सामर्थ्य और कर्तृत्व को भी बहुत पैने व्यंग्य और उतनी ही गहरी संवेदनशीलता के साथ व्यक्त कर सका है। पशुप्रतीकों के कहानी में इस्तेमाल या पशुकथा की यह परम्परा जातक कथाओं, ईसप की नीतिकथाओं आदि से कुछ अलग है। यद्यपि ईसप और सिन्दबाद की कथाएँ भी अपने मूल रूप में हमारी कथापरम्परा में थीं, और यहीं से बाहर गयीं-ऐसा शोधकर्ताओं का कहना है।

पंचतन्त्र की कथाएँ कथा परम्परा को विस्तार देती हैं-यहाँ पशुओं के द्वारा अन्योक्तिपरक शैली में मानवीय भाव ही व्यंजित नहीं किये गये, विशिष्ट मनुष्य स्वभावों और मानवीय जगत् के कार्य-व्यापारों का उन पर आरोप करते हुए पशु और मनुष्य को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में एक-दूसरे के आमने-सामने लाकर खड़ा किया गया है। इसलिए पंचतन्त्र की इस विशिष्ट शैली में पशुओं के द्वारा मानवीय जगत् से साक्षात्कार ही नहीं, पशु की मनुष्यता और मनुष्य की पशुता को भी हम एक दूसरे के द्वन्द्व में देख पाते हैं। अधिकांश कथाओं में हम पशुपात्रों में व्यक्तित्व का दोहरापन देखते हैं।

पंचतन्त्र की सभी कहानियों में केन्द्रीय विचार सूत्र रूप में पहले से उपस्थापित कर दिया गया है। उस सूत्र का दृष्टान्त कहानी है। यह शैली बोधकथाओं या नीतिकथाओं की है, और इसी कारण हमारे आचार्यों ने पंचतन्त्र को निदर्शना की विधा में परिगणित किया है। किन्तु पंचतन्त्र कथा के इस सूत्र या केन्द्रीय विचार को दो पात्रों की बहस का हिस्सा बनाते हुए कहानी की जीवनदृष्टि और कहानी का शिल्प दोनों को समरस कर देता है। इस सामरस्य में कहानी का पर्यवसान होता है।

कथाशिल्प और कथादृष्टि का गुँथाव ‘वैतालपंचविंशति’ की कुछ कहानियों में अधिक मँजे हुए रूप में मिलता है। इसकी कहानियों में अपनायी गयी कथाप्रक्रिया भी पंचतन्त्र की कहानियों से अधिक आकर्षक है। कहानी के समाप्त होते ही एक जटिल गुत्थी आ उपस्थित होती है। इस गुत्थी को खोलने में पूरी कथा का केन्द्रीय विचार खुलता है। पंचतन्त्र की कहानियों की तरह यहाँ केन्द्रीय विचार को सूत्रबद्ध करके पहले से नहीं कह दिया जाता। इस कारण कहानी की गुत्थी के समाधान की आकस्मिकता और विस्मयावहता का आस्वाद कुछ और ही होता है। साथ ही वैताल की कुछ कहानियाँ मनुष्य के अस्तित्व की अर्थवत्ता की पहचान और मनुष्य की गरिमा की स्थापना में कुछ और आगे तक भी जाती हैं, जिन्दगी से उनमें लगाव कई जगह अधिक गहरा लगता है।

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वैदिक काल में रची गयी कथाओं से लगाकर महाभारत या बृहत्कथा तक की भारतीय कथा परम्परा में कहानी की मुँहजबानी बयान की शैली के दर्शन होते हैं। ब्राह्मणग्रन्थों में गद्य में लिखे गये आख्यानों में भी वाचिक शैली की खूबी हम पाते हैं, जहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के स्थान पर सर्वनामों-इसका, उसका, यह, वह आदि का प्रयोग अधिक होता है। ऐसे गद्य रूपों को देखकर लगता है कि जिस प्रकार वेदमन्त्रों के विपुल भाण्डार को कुछ हजार वर्षों की अवधि में पीढ़ी-दर-पीढ़ी कण्ठस्थ करते हुए हमारे पूर्वजों ने जस का तस बचाकर रखा, उसी तरह कहानी के गद्य को भी बिना पाठान्तर के जस का तस बचाया गया। बाद में जब अलंकृत शैली के साहित्यिक गद्य में कथाएँ लिखी जाने लगीं, तो कहानी की वाचिक शैली की यह विशेषता उनमें न रही। वहाँ कथा के सहज प्रवाह को काव्यात्मकता और शैली के श्रृंगार ने ढँक लिया।

वैदिक परम्परा के कहानी के इस वाचिक रूप के दर्शन हमें बौद्धों के साहित्य में भी होते हैं। इस दृष्टि से बौद्ध अवदान साहित्य, जो अधिकांशतः गद्य में है, बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक-एक अवदान आकार में बहुत विशाल है तथा कथाओं के बड़े भण्डार को समेटे हुए है। अशोकावदान, जिससे दो कथाएँ यहाँ ली गयी हैं, दिव्यावदान का एक अंश है। अशोकावदान की प्रत्येक कथा अपने आप में एक महाकाव्यात्मक और औपन्यासिक विस्तार समाहित किये हुए है। शार्दूलकर्णावदान में इसी प्रकार की एक सम्पूर्ण कथा है। शार्दूलकर्णावदान का चीनी भाषा में 148 ई. के आसपास अनुवाद किया गया।

लोकप्रिय कथाओं की उपर्युक्त परम्परा को बौद्ध तथा जैन लेखकों ने उपदेशात्मक या धार्मिक रूप देकर प्रस्तुत किया है। दोनों धर्मों से जुड़े रचनाकारों ने कथासाहित्य को अपार समृद्धि दी। धार्मिक उद्देश्य से प्रेरित होते हुए भी ऐसे कथासाहित्य में अन्तरंग मानवीय अनुभूतियाँ तथा कहानी का कौतुक कम नहीं है। कुछ बौद्ध और जैन कथाओं में सामाजिक वास्तविकताओं के साक्षात्कार के साथ तीखा व्यंग्य भी मिलता है। इस दृष्टि से जैन लेखक हरिभद्र सूरि का धूर्ताख्यान एक उल्लेखनीय रचना है।

हरिभद्र सूरि का कृतित्व 788 ई. से 820 ई. के बीच माना जाता है। वे विद्याधरकुल के आचार्य जिनदत्त के शिष्य थे। उनका जन्म चित्तौड़ में हुआ। जैन दर्शन के महान आचार्य और ग्रन्थकार के रूप में उनकी ख्याति है। कुवलयमाला कहा के लेखक उद्योतन उनके शिष्य थे। आरम्भ में ये ब्राह्मण थे, बाद में जैन धर्म के अनुयायी हुए। इनके लिखे 26 ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिनमें से 20 प्रकाशित हुए हैं। कल्याण विजय के अनुसार हरिभद्र ने 88 ग्रन्थों का प्रणयन किया था। हरिभद्र ने संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओं में समान अधिकार के साथ विपुल साहित्य की रचना की, तथा दार्शनिक ग्रन्थ भी लिखे और काव्यकृतियाँ भी। प्राकृत में धूर्ताख्यान के अतिरिक्त इनकी समराइच्चकहा (समरादित्यकथा) उल्लेखनीय है।

सतियों या साध्वियों के चरित को लेकर जैन परम्परा में कई कथाचक्र प्रवर्तित हुए। नर्मदा सुन्दरी, मदनरेखा, विलासवती आदि श्रेठ महिलाओं को अनेक कथाकाव्यों का विषय बनाया गया। इनमें नर्मदा सुन्दरी की कथा अत्यन्त मार्मिक है और यह लोकप्रिय भी बहुत हुई। इस पर कई जैन कथाकारों ने अपनी लेखनी चलायी। प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में नर्मदा सुन्दरी कथा पर जो रचनाएँ लिखी गयीं, उनमें उल्लेखनीय ये हैं - (1) देवचन्द्रसूरिकृत प्राकृत तथा नम्मयासुन्दरी, (2) जिनप्रभसूरि की नम्मयासुन्दरी सन्धि, (3) महेन्द्रसूरि की नम्मयासुन्दरी-कहा-प्राकृत में तथा (4) मेरुसुन्दर की नर्मदा सुन्दरी कथा प्राचीन गुजराती गद्य में। इनमें महेन्द्रसूरि की कथा गद्य और पद्य मिलाकर लिखी गयी है, यह अत्यन्त विस्तृत और विशद है। कथानक का सम्पूर्ण औपन्यासिक विस्तार की सम्भावनाएँ इसमें प्रतिफलित हैं। यह कथा विक्रम संवत् 1187 (1130 ई.) में रची गयी थी। देवचन्द्रसूरि की नम्मयासुन्दरी कहा कुछ संक्षिप्त है, पर यह भी बड़ी सरस है और मूल कथा का पूरा आस्वाद देती है। देवचन्द्रसूरि आचार्य हेमचन्द्र के गुरु थे। हेमचन्द्र जैनधर्म तथा दर्शन और साहित्यशास्त्र के प्रख्यात आचार्य हैं, जिनका समय 1088 ई. से 1172 ई. है। इस दृष्टि से देवचन्द्रसूरि का समय भी ग्यारहवीं सदी है।

वस्तुतः जैन परम्परा में कथासाहित्य का अत्यन्त विशाल भण्डार है। कथा कोषप्रकरण तथा कहारयणकोश इस परम्परा के महत्त्वपूर्ण परवर्ती कथासंग्रह हैं, जिनसे एक-एक कहानी यहाँ ली गयी है। उत्तमकुमारचरित या पापबुद्धिधर्मबुद्धिकथा जैसी जैन कथारचनाएँ उपदेश-प्रधान हैं, जबकि जिनकीर्ति जैसे लेखकों की रची हुई चम्पकश्रेष्ठिकथानक या पाल-गोपाल-कथानक जैसी कथाएँ चमत्कारपूर्ण फन्तासी कथाएँ हैं।

भारतीय कहानी के विकास में जैन प्रबन्धकाव्यों का भी उल्लेख्य योगदान रहा है। इन प्रबन्धकाव्यों की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है तथा इनमें जैन सन्तों या जैन धर्म के अनुयायी राजाओं से जुड़ी हुई कथाओं को प्रमुखता दी गयी है। इस प्रकार के प्रबन्ध-काव्यों में मेरुतुंगाचार्य का प्रबन्धचिन्तामणि (रचनाकाल 1306 ई.) तथा राजशेखर सूरि का प्रबन्धकोश (रचनाकाल 1348 ई.) बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक राजा या सन्त के चरित्र से जुड़ी हुई छोटी-छोटी कथाओं के समुच्चय को यहाँ एक प्रबन्ध कहा गया है। मेरुतुंग की कृति में विक्रमादित्य और सातवाहन चालुक्यराज, धारानगरी के परमार राजा मुण्ड और भोज आदि राजाओं के प्रबन्ध हैं। राजशेखर सूरि की कथाकृति में कुल चौबीस प्रबन्ध हैं। इनमें सात प्रबन्ध विभिन्न राजाओं को लेकर, दस प्रबन्ध विभिन्न धार्मिक सन्तों या आचार्यों को लेकर तथा कुछ प्रबन्ध कवियों को लेकर हैं। जैन साहित्य के अन्तर्गत कथाओं का एक अन्य उल्लेख्य संग्रह कथामहोदधि है, जिसमें 126 कथाएँ हैं।

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कथा परम्परा का एक रोचक कथा संग्रह भरटकद्वात्रिंशिका है। यह पुस्तक अभी तक भारत में अप्राप्य थी, प्रस्तुत लेखक ने चार वर्ष पूर्व इसका एक संस्करण हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया है। भरटकद्वात्रिंशिका की कथाएँ कहानी कहने की वाचिक शैली में निबद्ध हैं। इसकी प्राचीन पोथियों में बताया गया है कि इन कथाओं को श्री सोमसुन्दर के शिष्य श्री साधुराज से सुनकर उन्हीं के किसी शिष्य ने लिखा। हर्तेल नामक जर्मन विद्वान ने, जिन्होंने इस पुस्तक का पहला संस्करण 1922 ई. में जर्मनी से छपवाया था, भरटकद्वात्रिंशिका का रचनाकाल चौदहवीं सदी माना है। सम्भवतः यह पुस्तक इसके भी पहले की रचना है। भरटकद्वात्रिंशिका में बत्तीस कहानियाँ हैं। भरटक शिवभक्त साधुओं का एक प्राचीन सम्प्रदाय है। ये साधु अक्खड़ और जड़बुद्धि होने के कारण समाज में उपहास के पात्र भी बनते थे। भरटकद्वात्रिंशिका में इन्हीं भरटकों की मूर्खता के 32 किस्से हैं। मूर्खों की कहानियों की संस्कृत में यह अकेली अपने ढंग की किताब है।

संस्कृत-कथा परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण आयाम चौदहवीं सदी के मैथिल और संस्कृत भाषाओं के सुप्रसिद्ध रचनाकार महाकवि विद्यापति ने अपनी ‘पुरुष-परीक्षा’ में प्रस्तुत किया है। पुरुषपरीक्षा में इकतालीस लोकप्रिय कहानियाँ हैं। इन कहानियों का स्वर लोककथाओं के अधिक निकट है, पर विद्यापति की कल्पनाशीलता, विनोदबुद्धि और निजी कथाशैली की छाप इस संग्रह की सारी कहानियों पर स्पष्ट है। इसके साथ ही विद्यापति की कहानियाँ विविधता और मानव-स्वभाव की विचित्रता के चित्रण की दृष्टि से बड़ी सम्पन्न हैं। कुल मिलाकर देखें, भारतीय कथा परम्परा के सम्पन्न और विराट फलक को लेकर पात्रों और चरित्रों की विविधता तथा विचित्रता, कथा संविधान, कथाप्रस्तुति की हमारी अपनी विशिष्ट शैली तथा दुर्लभ ऐतिहासिक तथा सामाजिक विषयवस्तु के कारण महत्त्वपूर्ण हैं ही, वे अपनी प्रतीकात्मकता, भारतीय जीवनदृष्टि और मूल्यबोध को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करने के कारण भी आज के पाठक के लिए एक जरूरी सामग्री प्रस्तुत करती हैं।