भारतीय चलचित्र और अमरकथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :14 जुलाई 2015
एस.एस. राजामौली की 'बाहुबली' बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड बना रही है, पहले दिन के पचास करोड़ में छत्तीस करोड़ तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के हैं परंतु अमेरिका में पंद्रह करोड़ का व्यवसाय हुआ है। इस सिनेमाई अजूबे ने दूसरे दिन साठ करोड़ का व्यवसाय किया है। इस भव्य फंतासी की सफलता अब तमिल की दस फिल्मों के डब संस्करण के प्रदर्शन को संभव बना देगी और हॉलीवुड की पच्चीस एक्शन फिल्मों के आने से पूरे देश में बंद होते जा रहे एकल सिनेमा बंद होने से बच जाएंगे और नए एकल सिनेमा भी बनने लगेंगे। तमिलनाडु के मल्टी प्लैक्स अधिकतम टिकट दर 120 रुपए रख सकते हैं और आगे की तीन पंक्तियों के टिकट उन्हें 20 रुपए में बेचने होते हैं। ये ही मल्टी उत्तर भारत में 200 से 500 रुपए तक टिकट दर रखते हैं। दक्षिण भारत की सरकारें सिनेमा और गरीब दर्शक को संरक्षण देती हैं और अन्य प्रांतों को 'व्यापमं' से ही फुरसत नहीं मिलती है। मनोरंजन का महत्व ही उन्हें नहीं मालूम और उनके अपने शगल कुछ और हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा का आर्थिक आधार सौ वर्षों तक दर्शक रहे हैं और अब मुंबइया सिनेमा कॉर्पोरेट धन से संचालित है तथा सितारों का मेहनताना आसमान छू रहा है। उन्होंने इस तथ्य को भी नज़रअंदाज किया है कि इस आर्थिक फुगावे के दौर में उनकी आय तो बढ़ रही है परंतु दर्शक संख्या घट रही है। जो उद्योग सौ वर्षों के आर्थिक आधार को नज़रअंदाज करता है, वह पतन की ओर जा रहा है। सारे अहंकार और आंकड़ेबाजी के मायाजाल में वे अपने पालनहार उद्योग की निकट भविष्य में मृत्यु से बेखबर हैं। मकड़ी के जाल में फंसा नादान पतंगा अपनी ओर बढ़ती हुई मौत से मंत्रमुग्ध होकर सुन्न पड़ जाता है और जाल से बाहर आने का प्रयास ही नहीं करता।
इस समय शिक्षा इत्यादि अनेक क्षेत्रों से भारतीयता का लोप हो रहा है और सिनेमा इससे अछूता नहीं है। हॉलीवुड की एक्शन फिल्में व विज्ञान फंतासी में वे सारे मसाले मौजूद रहते हैं, जिन्हें दर्शक पसंद करता है। राजामौली की 'बाहुबली' में भी मसाले मौजूद हैं। निर्देशक ने आधुनिकतम तकनीकी की सहायता से एक पुरातन कथा को संवारा है और उसके दृश्यों का संयोजन अमेरिकन फंतासी की तरह है परंतु सारी पैकेजिंग में मायथोलॉजी, चकाचौंध करने वाली भव्यता, साधनों का अतिरेक एवं रीतिकालीन शृंगार में मांसलता का स्पर्श मौजूद है। राजामौली भी शंकर की तरह उपरोक्त तत्वों का मिश्रण बनाते हैं। याद कीजिए शंकर की रजनीकांत अभिनीत फिल्में, जिनमें पांच-दस की जगह पांच सौ हथियार दिखाए जाते हैं। इस आजमाए मसाले में पौराणिकता को आधुनिक विज्ञान विधा से संवारा जाता है।
राजामौली ने एक बार कहा था कि उनका सिनेमा 'अमर चित्रकथा' शृंखला से प्रेरित है और 'अमर चित्रकथा' का प्रकाशन थम जाना अफसोस की बात है। विगत दस वर्षों में अमेरिकी कॉमिक्स ने 'अमर चित्रकथा' का स्थान ले लिया है। स्टीवन स्पीलबर्ग ने भी यह बयान दिया था कि वे अपने बचपन में देखी कॉमिक्स से प्रेरित हैं। सिनेमा का यह स्कूल मनुष्य की हर आयु में उसके भीतर छुपे शिशु को संबोधित करता है और सारी कथा बचपन के दृष्टिकोण से दिखाई जाती है। इस दृष्टिकोण को अपनाना आसान नहीं है। इसमें डूबने के लिए आपको तर्क की तिलांजलि देनी पड़ती है परंतु तर्क-त्याग स्वेच्छा से है।
हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की सारी फिल्में धार्मिक आख्यान से प्रेरित थीं और बाद में विविध प्रकार की फिल्में बनाई गईं परंतु पात्रों की वेशभूषा और वातावरण बदला। उनके मानस में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। वे आज भी पौराणिकता से भरे हैं। अच्छाई की बुराई पर जीत के आदर्श को यथावत रखा गया है। इस तरह के मसाले के साथ ही कुछ फिल्मकारों ने अपना नया रास्ता बनाया है, जिस कारण मसाला मनोरंजन के साथ ही सार्थक सिनेमा की धारा भी अविरल बहती रही है। यही हिंदुस्तानी सिनेमा की विशेषता है और देश की तरह वह लचीला है और सबकुछ अपने में समाहित करने का माद्दा रखता है। भारत सभी प्रभावों को ग्रहण करते हुए अपने निजत्व की रक्षा करता है। सिनेमा का संकट भी टल जाएगा। फिल्मकारों की सृजन शैली भी लचीली है। उस सचित्र कथा शृंखला का नाम ही 'अमर कथा' है। भले ही यह संकट 'बाहुबली' दूर करे या अमेरिकन एक्शन फिल्म दूर करे, यह दोनों ही भारतीय मसाला फिल्म है। इनके माध्यम से बचक हम अपनी मासूमियत और मसाला के मिश्रण तक फिर जा पहुंचेंगे।