भारतीय चित्रकारी में अष्ट नायिका / शैल अग्रवाल
भारतीय कला में नायिका शब्द का प्रयोग शाब्दिक अर्थ, यानी अंग्रेजी के ' हीरोइन' शब्द या वीरांगना के रूप में नहीं हुआ है, बल्कि एक प्रेमिका या प्रेमरत नारी के रूप में उसे देखा गया है। अधिसंख्य भारतीय लघुचित्रों (मिनिएचर्स) और भित्ति चित्रों में नारी का यह रूप मध्यवर्ती स्थान प्राप्त किए हुए है। इनमें से अधिकतर चित्रकारी 17 शताब्दी से लेकर 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल तक की है। ये चित्रकारियां उत्तर भारत, मुख्य रूप से मालवा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू, बासोहली, और गढ़वाल से मिली है।
' नायिका' की परिकल्पना संस्कृत साहित्य, विशेषकर भरतमुनि की देन है, जो नाट्यशास्त्र के रचयिता और भारतीय शास्त्रीय नृत्य और नाटक को अनुशाषित करने वाले सिद्धान्तों के प्रतिपालक थे। भरत ने पुरुष और महिलाओँ का वर्गीकरण किया, जिन्हें नायक और नायिका, यानी क्रमशः प्रेमी और प्रेमिका कहा गया। यह वर्गीकरण उनकी शारीरिक और मानसिक विशेषताओं, गुणों, मनोदशाओं, स्वभाव और भावात्मक अवस्थाओं और स्थितियों के अनुसार किया गया। इसके अंतर्गत नारी के मनोभावों का और उसके प्रेम क विभिन्न चरणों का वर्गीकरण बड़े उत्साह और सूक्ष्मता से किया है। वास्तव में, प्रणय के दौरान पुरुष और नारी की मनोदशाओं का विश्लेषण और वर्गीकरण करने की साहित्यिक परम्परा की आधारशिला भरत ने बड़ी सूक्ष्मता के साथ रखी और उनके परवर्तियों ने उसे सुपरिभाषित आलंकारिक रूप में आगे बढ़ाया। भरत ने जहां नायक के चौदह भेद किए हैं-प्रेमी और परमप्रिय, सौम्य, निरंकुश, स्वत्वबोधक, जोशपूर्ण, प्रीतिकर, भावप्रवण, बदमाश, दुष्ट, मिथ्यावादी, जिद्दी, शेखीबाज, बेशरम और क्रूर, वहीं नायिका को आठ श्रेणइयों में ही रखा और नाट्यशास्त्रीय एवं श्रंगारिक साहित्य में उसे नायक की तुलना में काफी स्थान दिया। इसी वर्गीकरण को उनके परवर्ती रचनाकारों ने जारी रखा, जैसा वात्सायन के 'कामसूत्र', 'साहित्य दर्पण', बिहारी की 'सतसई', जसवंत सिंह की ' भाषा भूषण', भानुदत्त की 'रसमंजरी' और केशवदास की 'रसिक प्रिया' और 'कविप्रिया' में इसी वर्गीकरण का अनुसरण किया गया। इनमें रसिक प्रिया देशी भाषा साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण रचना है और इसके अनेक छन्दों को राजस्थानी और पहाड़ी लघुचित्रों में दर्शाया गया है। यह पुष्तक संस्कृत और हिन्दी में प्रेम-काव्य की सदियों पुरानी उस परंपरा पर प्रकाश डालती है जो कालीदास की कृतियों, खासकर 'ऋतुसंहार', 'मेघदूतम्' और 'कुमारसंभव' में अपनी पराकाष्ठा पर थी। 'ऋतुसंहार' में, ऋतुओं के सजीव वर्णन के अलावा उन मनोभावों का भी भावपूर्ण वर्णन किया गया है जो बदलती ऋतुओं के साथ प्रेमी हृदयों में पैदा होते हैं। चांद का प्रकट होना उन स्त्रियों के दिल में प्रेम का स्फुरण करता है जो अपने प्रेमियों की बाट जोहती हैं। आम का विकसित होना उस प्रेमी को दुःखी करता है जो अपने घर से दूर है और वह अपनी प्रेमिका की याद में आँसू बहाता है। बादलों को घिरते देख मोर खुशी से नाचने लगता है और क्रीड़ारत लोगों का आमोद प्रमोद बढ़ जाता है। ' कुमार संभव' में, वसंत के सौंदर्य और विवाहित जीवन के प्रेम की अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति हुई है।
जयदेव के ' गीत गोविन्द' में कृष्ण नाटकीय हीरो, यानी नायक हैं, और वह श्रंगार भावना का प्रतीक है, जबकि राधा नाटकीय हीरोइन, यानी नायिका है और उसकी पहचान प्रेम से होती है। वह नायक के साथ अंतर-संबंद्धता की सात शैलीगत मनोदशाओं में चित्रित की गई है, जिनकी पहचान भारतीय नाट्य सिद्धान्तों में की गई है। जयदेव ने अपनी रचना में तकनीकी नाम या उसके चारित्रिक संकेत या प्रतीक के साथ प्रत्येक अवस्था की पहचान की है।
भानुदत्त की रसमंजरी में पहली बार नायिका की विभिन्न नित परिवर्तित मनोदशाओं के बारे में प्रकाश डाला गया है। भानुदत्त बिहार में तिरुहत से सम्बद्ध थे और उनका काल 15 वीं सदी के अन्त में माना गया है।रसमंजरी के अंतिम छंद में भानुदत्त ने उल्लेख किया है कि वे कवि गणेश्वर के पुत्र थे। भानुदत्त ने जिन स्थितियों का चित्रण किया उनमें सर्वाधिक दिलचस्प स्थितियां वे हैं जिनमें नायक अपनी प्रेमपात्र पत्नी के साथ, अन्य लोगों की ईर्ष्या का पात्र बने बिना, प्रेम करने की कोशिश करता है। इस कृति के आधार पर बनाए गए चित्रों के कई समूह बासोहली चित्रकारी केन्द्र में उपलब्ध हैं, जो सत्रहवीं सदी से सम्बद्ध है।
बिहारी द्वारा रचित सतसई में सात सौ दोहे हैं, जिनमें नायिका-भेद को उत्कृष्ट ढंग से पेश किया गया है। इन सभी कृतियों में श्रंगार रस पर जोर दिया गया है, जिसका आंतरिक संबंध प्रेम में एकात्मकता के साथ है। भारतीय चित्रकारी के विभिन्न घरानों जैसे मुगल, राजस्थानी, पहाड़ी, मालवा, दक्कनी और कई अन्य जो 17वीं सदी से 20वीं सदी तक सक्रिय थे, पर कृ,ण सम्प्रदाय की लोकप्रियता का गहरा प्रभाव पड़ा था, जिसने 12वीं से 16वीं सदी तक एक स्वच्छंद रहस्यवादी साहित्यधारा को प्रेरित किया।
नायिका-भेद विषय को और भी व्यापक रूप दिया केशवदास(1520-1601) ने, जो ओरछा नरेश मधुकर शाह के दरबारी कवि थे। उनकी रसिकप्रया छन्दों में संगीतमय शैली में लिखा गया हिन्दी का एक तरह का शोध-प्रबन्ध है जिसमें आलंकारिक और साहित्यिक विश्लेषण किया गया है। इसका समुचित काव्य शास्त्रीय महत्व है। इसका विषय प्रेम है , जिसमें अरक्तक (सूक्ष्म या भावुक) प्रेम नहीं है बल्कि पूर्ण शारीरिक प्रेम का चित्रण है। केशव के नायक और नायिका कृष्ण और राधा हैं। आदर्श प्रेमियों और स्थितियों का वर्णन करते हुए उसमें भगवान और भगत का संबन्ध आरोपित किया गया है।
आयु अनुभव, शारीरिक और मानसिक स्थितियों, मनोदशाओं और संवेगों के आधार पर नारी के वर्गीकरण से चित्रकार को विभिन्न विषय मिल गए हैं। रसिकप्रिया में नायिका के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है--स्वाधीनपतिका, उत्का या उत्कंठिका, वासकसैया, अभिसंधिता, खंडिता, प्रोसिताप्रेयसी, विप्रलब्धा और अभिसारिका।
स्वाधीनपातिका वह नायिका है, जिसका सतीत्व अपने प्रेमी के प्रति समर्पित हो और जिसे उसका पति प्रेम करने के लिए बाध्य हो और निरंतर उसका साथ दे। चित्रकारी में उसे राधा के रूप में दर्शाया गया है जो चौकी (स्टूल) पर बैठी है जबकि कृष्ण उसके पैर धोते या दबाते हैं। उन्हें राधा के चरणों में महावर लगाते हुए भी दिखाया गया है। नायिका गर्व और स्वाभिमान के साथ कृष्ण की ओर देखती है जो उसके प्रति पूर्ण वशीभूत या विनीत दर्शाया गया है।
उत्का एक चिंतित या बेचैन नायिका है जिसका प्रेमी वायदे के अनुसार मिलन स्थल पर पहुंचने में विफल रहा है। उसका शरीर चंदन की तरह सफेद, उसकी दीप्ति दिए के समान और परिधान कोमल, सुकुमार अंगों के चारो ओर अस्त-व्यस्त हैं। पशु-पक्षिओं की हल्की सी आहट से वह चौंक पड़ती है। वह मृदुभाषी है और अपनी अंतरंग सखी से मनोभाव छिपाती है क्योंकि उसके चौंकने से सखी को कुछ आभास होता है। इस नायिका को चित्रों में शयनकक्ष के द्वार पर बैठे या खड़े हुए, प्रसन्न किंतु प्रेमी के आगमन की प्रत्याशा में चिंतित दर्शाया गया है। कुछ चित्रों में परिवार में नायक के स्वागत की व्यापक तैयारियां चित्रित की गयी हैं-एक महिला आंगण बुहारती है, दूसरी पात्र से पानी उड़ेलती है और शयनकक्ष को सुव्यवस्थित किया जा रहा है। प्रेमी नदी के दूसरी ओर नौका में बैठा है, सारस के एक जोड़े के करीब।
वासकसैया नायिका अपने प्रेमी से एकात्म होने के लिए उसका इन्तजार कर रही है। उसे चमेली के फूलों के साथ नदी के किनारे पेड़ के नीचे बैठा दिखाया गया है। उसने पेड़ के तने को मालाओं से सजा रखा है। भारी, घने बादलों के बीच बिजली चमकती है। कभी-कभी मिलन-स्थल के निकट हरिण दर्शाए गए हैं, जो हवा में सुगंध ले रहे होते हैं या कमल के तालाब से पानी पी रहे होते हैं।
अभिसंधिता ऐसी नायिका है जो अपने प्रेमी की अनुरक्ति की अवमानना करती है, किंतु उसकी अनुपस्थिति में पश्चाताप से ग्रस्त है, और इससे उसे अलगाव की पीड़ा सालती रहती है। चित्रकारी में प्रेमियों को झगड़ते हुए दर्शाया गया है। कृष्ण पीली धोती में, मोर पंख और मुकुट पहने रवाना होने की स्थिति में हैं। राधा के चेहरे पर घना रोष और उदासी का भाव है। कृष्ण उसका रोष शान्त करते दिखते हैं, राधा अपने रोष के कारण द्रवित नहीं होती और उसे अस्वीकार कर भगा देती है। किंतु जैसे ही कृष्ण जाने को उद्धत होते हैं, तो वह अपनी निष्ठुरता के कारण अनुताप से भर उठती है।
खंडिता ऐसी प्रेमिका है जिसका प्रेमी रात के समय मिलने का वायदा नहीं निभा पाया, किंतु किसी अन्य महिला के रात बिताकर अगली सुबह घर लौटा है। नायिका प्रेमी की भत्स्रना करती है। चित्रों में खंडिता नायिका को क्रुद्ध और आवेशित प्रेमिका के रूप में दर्शाया गया है जो अपने नायक को उलाहने दे रही है और नायक लज्जित और दोषित चेहरे के साथ उसके आंगण में प्रवेश करता है।
प्रोसिताप्रेयसी ऐसी नायिका है जिसका पति व्यापार के कारण कुछ समय से घर से बाहर गया हुआ है। एक चित्र में उसे बादलों की गरज सुनने के लिए बालकनी से बाहर आते दिखाया गया है। उसने दुपट्टा ओढ़ रखा है और वह उड़ते हुए सारस की जोड़ी को बड़ी उत्सुकता के साथ देखती है जबकि एक मोर, अनुपस्थित पति का प्रतीक, उल्लास में सिर उठाता दिखाया गया है। वर्षा होने वाली है और नायिका गुजरते बादलों से विनती करती है कि उसका पति सुरक्षित घर आ जाए।
विप्रलब्धा एक हताश नायिका है, जो रात भर अपने प्रेमी का व्यर्थ इन्तजार करती रही है। उसे एक पेड़ के नीचे पत्तों की शैया के साथ चित्रित किया गया है, जिसने आवेश में आकर अपने गहने उतारकर जमीन पर फेंक दिए हैं। पृष्ठ भूमि में खाली जगह उसक अकेलेपन, हताशा और गहरी निराशा को दर्शाती है। उसे अपने नायक की भत्स्रना करते हुए भी दिखाया गया है, जो पिछली रात की ही तरह इस रात भी नहीं लौटा।
अभिसारिका ऐसी नायिका है जो किसी भी जोखिम की परवाह न करते हुए अपने प्रेमी से मिलने निकल पड़ती है। उसे विभिन्न कवियों ने अलग-अलग नाम दिया है। पहाड़ी (हिमाचली) कलाकारों का वह प्रिय विषय रही है। कृष्ण अभिसारिका और शुक्ल अभिसारिका दो तरह की नायिकाएँ हैं जो चांद की स्थिति के अनुसार कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष के दौरान अपन प्रेमी से मिलने निकलती हैं। एक आकर्षक चित्रकारी में कृष्ण अभिसारिका ने नीला दुपट्टा ओढ़ रखा है और वह रात में अकेली जा रही है। अंधेरी रात है और बादल छाए हुए हैं और रुक रुककर बिजली चमक रही है। जंगल में सांप हैं और भूत-पिशाच तथा डाइनें घूम रही हैं। जंगल के भय से बेखौफ- तूफान, सांपों, अंधेरों के आतंक की तनिक भी परवाह न करते हुए नायिका प्रेमी के प्रति जनून लिए उसकी तलाश में निकल पड़ी है।
नायक-नायिका भेद का विषय सदियों से हमारे परंपरागत चित्रकारों की कल्पना में छाया रहा है। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दो या तीन वर्षों तक यह विषय छाया रहा, जब चित्रकारी घराने संरक्षण के अभाव में विस्मृति के गर्त में चले गए। आज वे भारतीय चित्रकारी के सभी प्रेमियों और गुण ग्राहकों के लिए आनन्द और प्रेरणा का सदाबहार स्रोत हैं।