भारतीय दर्शक और हॉलीवुड विज्ञान फंतासी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 03 जुलाई 2013
सिनेमा का पहला प्रदर्शन २८ दिसंबर १८९५ को पेरिस में हुआ था और दर्शकों में मौजूद थे जादूगर जॉर्ज मेलिए, जिनका विश्वास था कि इस माध्यम से वे अपने जादू के तमाशे को नई धार देंगे और जादू की ट्रिक्स से इस माध्यम में विज्ञान फंतासी रचेंगे। उन्होंने लगभग ४७ फिल्में बनाईं। गोया कि पश्चिम के देशों में विशेषकर हॉलीवुड में विज्ञान फंतासी प्रारंभ से ही बनती रहीं और १९६८ के बाद विकसित टेक्नोलॉजी की सहायता से विज्ञान फंतासी का स्वर्ण-युग प्रारंभ हुआ। अन्य ग्रहों के काल्पनिक प्राणियों पर भी फिल्में बनीं।
भारतीय सिनेमा ने प्रारंभिक दशक में ही विज्ञान फंतासी की जगह धार्मिक आख्यानों पर फिल्में बनाईं। दोनों ही तरह की फिल्मों में करिश्मे और अजूबे होते हैं। विज्ञान फंतासी के असंभव हिस्सों के बदले हमारे यहां आख्यानों के आशीर्वाद और शाप के दृश्यों से वही प्रभाव उत्पन्न हुआ। युवा देश अमेरिका के पास अपने आख्यान और किवदंतियां नहीं हैं, अत: उनका रुझान विज्ञान फंतासी की ओर गया तथा अमेरिका के बच्चे भी कॉमिक्स विधा में विज्ञान फंतासी ही पसंद करते रहे हैं। हमारे बालकों के पास अमर चित्रकथा में प्रस्तुत हनुमानजी हैं, तो अमेरिका के बच्चे सुपरमैन पर मुग्ध रहे हैं। स्टीवन स्पीलबर्ग ने स्वीकार किया है कि वह अपने बचपन में पढ़े कॉमिक्स एवं विज्ञान फंतासी पर फिल्में बनाते रहे हैं।
पश्चिम के साहित्य में विज्ञान फंतासी की परंपरा बहुत पुरानी है और एचजी वेल्स इस विधा के पुरोधा हैं। जूल्स वर्ड ने भी अनेक विज्ञान कथाएं लिखी हैं। भारत के साहित्य में इस तरह की रचनाएं नहीं हुई हैं। इसलिए पश्चिम में विज्ञान फंतासी फिल्में ज्यादा रची गई हैं। भारतीय सिनेमा में विज्ञान फंतासी कम रची गई हैं। विगत वर्षों में केवल राकेश रोशन यह काम कर रहे हैं और अपनी आने वाली 'क्रिश-३' में उन्होंने हॉलीवुड के स्तर का काम करने का प्रयास किया है। हॉलीवुड दुखी है कि उसकी अत्यंत सफल विज्ञान फंतासी ने भारत में आशा के अनुरूप व्यवसाय नहीं किया। हॉलीवुड के लिए व्यवसाय के आंकड़ों में भारत प्रथम बारह स्थान में भी नहीं है। आंकड़े सिद्ध करते हैं कि भारत में परिवार की पृष्ठभूमि वाली कथाओं में प्रेम-प्रसंग का तड़का और अविश्वसनीय ढंग से फिल्माए नाच-गाने वाली फिल्में 'अवतार' जैसी श्रेष्ठ फिल्म पर भारी पड़ती हैं। हॉलीवुड के विशेषज्ञ हैरान हैं कि भारत में अंग्रेजी के बोलबाले के कारण बालक टेलीविजन पर अमेरिका की बनी विज्ञान फंतासी देखते हैं, मोबाइल पर उनके रचे खेल खेलते हैं, परंतु थिएटर में वे भारतीय फिल्म के रंग में ही रंग जाते हैं।
जर्मन मैक्सवेबर ने विज्ञान फंतासी के प्रति रुझान का कारण यह बताया था कि दुनिया से मोहभंग के कारण लोग काल्पनिक जगहों की असंभव-सी फंतासी देखते हैं। वे अपने सामान्य जीवन से ऊब के कारण फंतासी की दुनिया में राहत महसूस करते हैं। यह बात उन्होंने कदाचित विज्ञान फंतासी किताबों की लोकप्रियता के विषय में कही है, क्योंकि १९वीं सदी में कही यह बात फिल्म पर लागू नहीं होती। अगर यह धारणा सही होती तो भारत से ज्यादा मोहभंग इस समय किसी देश का नहीं हुआ है, परंतु हमारे यहां हॉलीवुड की विज्ञान फंतासी उतनी लोकप्रिय नहीं है। राकेश रोशन की विज्ञान फंतासी फिल्मों में जबरदस्त प्रेम-कथा होती है, मेलोड्रामा होता है, बिछड़े हुए पिता और पुत्र मिलते हैं और अति सुंदर फिल्मांकन वाले गीत होते हैं। राकेश रोशन की ठेठ भारतीय मिक्सी में अमेरिकन विज्ञान फंतासी के तत्व भारतीय मसाला फिल्मों के मसालों में मिलकर एक नया स्वाद देते हैं, गोया कि बाफले और बाटी को गोश्त के शोरबे में मसककर खाया जा रहा हो।
विशेषज्ञों की राय है कि अमेरिकन फंतासी पलायनवाद और मनोरंजन से परे जाकर ऐसा विश्वास जगाती है कि इस दोषपूर्ण, अन्याय आधारित व्यवस्था के परे भी एक काल्पनिक संसार है, जहां अनपेक्षित घटता है। दरअसल, भारत में बनी घोर यथार्थवादी फिल्में, जिनमें गरीबी का मार्मिक विवरण प्रस्तुत है, में गीतों के द्वारा आशा का संचार किया जाता है। मसलन झोपड़-पट्टी में गरीब बच्चों की व्यथा-कथा। राज कपूर की 'बूट पॉलिश' में गीत है - 'तू बढ़ता चल, तारों के हाथ पकड़ता चल, ये बात गई, ये रात गई, वो सुबह नई।' भारत में आशा और बेहतर व्यवस्था की उम्मीद के स्रोत अलग हैं। यहां तो हर व्यक्ति अपने आप में एक अफसाना है। उसकी आस्था पांच हजार वर्ष पुरानी है, उसको अतार्किक और चौंकाने वाले दृश्यों से लुभाया नहीं जाता। वह भावनाप्रधान एक दृश्य सेही प्रेरित हो जाता है। अमेरिका से आयात किया हुआ गेहूं हमेें पचा नहीं, परंतु यह सच है कि उनके विकास के मॉडल से हम नित्य ठगे जा रहे हैं। गगनचुंबी इमारतों की संख्या अगले तीस वर्ष में चार गुनी हो जाएगी और हर इमारत में एक शहर बसा होगा, तब हम आपकी विज्ञान फंतासी देखेंगे। हम अमावस्या के अंधेरे में भी जुगनू के सहारे रास्ता खोज लेते हैं।