भारतीय फिल्म संस्कृति की विरासत / जयप्रकाश चौकसे

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भारतीय फिल्म संस्कृति की विरासत /
प्रकाशन तिथि : 02 जून 2014


यह एक लोकप्रिय धारणा है कि पैसे से फिल्में बनती हैं, सच्चाई यह है कि फिल्में जुनून से बनती है। वह कुछ कर गुजरने का ज़ज़्बा ही हर क्षेत्र में मनुष्य को अपने जन्म और परिस्थितियों की सतह से ऊपर उठने की राह बनाता है। बर्फ से लदे पहाड़ों के नीचे से गंगा ऊपर अवतरित हुई गंगोत्री में - बस समझ लीजिए कुछ ऐसा ही आवेग सृजन कराता है। यह भी सच है कि सारे प्रवाह और आवेग सकारात्मक नहीं होते, जैसे धरती अपने ऊपर हुए अन्याय से क्रोध में उबलती है तो ज्वालामुखी के रूप में जाहिर होती धरती ही है जिससे विध्वंस होता है परंतु उससे निकला लावा ठंडा होने के बाद बहुत उपयोगी साबित होता है और ठंडा लावा फिर धरती की दान देने की क्षमता का ही परिचय होता है। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर को भी गजब जुनून है भारतीय सिनेमाई संस्कृति के रक्षण का, खोये हुए प्रिंट खोजने का और मौजूद प्रिंट्स की हालत को सुधार कर इस दशा में लाने का कि आगामी पीढिय़ां इस विरासत से अपरिचित नहीं रह जाएं और भविष्य का कोई शोधकर्ता फिल्मों की सहायता से उस समय के समाज के सपनों और भय का अध्ययन कर सके।

दुनिया के अन्य देशों में जागरूकता है और वे अनेक जतन करते हैं। भारत में यह अनछुआ क्षेत्र है। विगत सदी में हमने अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों को खो दिया है, मसलन आज पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' का कोई प्रिंट नहीं है। हमारी बनाई दो हजार मूक फिल्मों में बमुश्किल दस के प्रिंट हैं। फेमस फिल्म लेबोरेटरी में आग लगने के कारण भी अनेक फिल्में नष्ट हो गई है। विगत थोड़े से वर्षों में फिल्में डिजिटल हो गईं अर्थात फिल्म निगेटिव ही बाजार से अपदस्थ हो गया। डिजिटल में बचाई फिल्मों में मूल की गुणवत्ता का पचहत्तर प्रतिशत ही आ पाता है। केवल फिल्म निगेटिव फिल्मकार के सृजन से न्याय करता है।

शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर का विश्वास है कि आज बाजार से गायब फिल्म निगेटिव पर सुरक्षित फिल्में ही लंबे समय तक जीवित रह सकता है, डिजिटल विलीन हो सकता है।

बहरहाल शिवेंद्र ने एक संस्था का निर्माण किया है जिसमें सलाहकार के रूप में सर्वश्री श्याम बेनेगल, पी.के.नायर, जया बच्चन, गुलजार, गिरीश कसरावल्ली, मार्क कोजिनस क्रिस्टोफ जेनेसी जैसे लोग शामिल है। ज्ञातव्य है कि यह संस्था लाभ कमाने के लिए नहीं है और इसके कार्य के लिए फिल्म प्रेमियों से ही दान लिया जाएगा। जब शिवेंद्र सिंह ने विदेशी विशेषज्ञ से 'आवारा' के प्रिंट का परीक्षण कराया तो उसमें हुई हानि के साथ यह ज्ञात भी हुआ कि पहली रील मूल की नहीं डुयूप निगेटिव की है। हर फिल्म के मूल से कॉपी निकाली जाती है जिसे डुयूप निगेटिव कहते है और यह किया जाता है अधिक संख्या में प्रिंट बनाने के लिए। उनके 'आवारा' के रेस्टोरेशन में मैं स्वयं पचास हजार दूंगा। शिवेंद्र की संस्था ने कुछ फिल्मों का रेस्टोरेशन कर लिया है। इटली में 28 जून से 5 जुलाई 2014 में क्लासिक्स के पुनरावलोकन का उत्सव है जिसमें शिवेंद्र सिंह के प्रयास से बचाई गई फिल्मों को दुनिया भर के अन्य सिनेमा प्रेमी देखेंगे और इस कार्य में भारत के फिल्म विकास निगम का उन्हें सहयोग प्राप्त है। इसी उत्सव में यह विचार लोगों को प्रेरणा देगा कि फिल्म रेस्टोरेशन कितना महत्वपूर्ण है। इस उत्सव में आवारा, चंद्रलेखा, प्यासा, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, मधुमति, अजांत्रिक, कागज के फूल दिखाई जाएंगी। सबसे बड़ी बात यह है कि संस्था बंगाली, तमिल, मराठी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में बनी हुई महान फिल्मों का रेस्टोरेशन भी करेगा, अत: यह अखिल भारतीय सिनेमा संस्कृति को सहेजने का कार्य हो जाता है। आज के दौर में कहीं तो क्षेत्रीयता से बचने का प्रयास किया जा रहा है।

शिवेंद्र सिंह ने सभी भारतीय महान फिल्मों की एक सूची बनाई है और अनेक विद्वानों से गहरा विचार विमर्श करके ही वे एक अंतिम सूची बनाएंगे और रेस्टोरेशन कार्य शुरू होगा। ज्ञातव्य है कि इस्माइल मर्चेन्ट और जेम्स आइवरी ने अमेरिकन फिल्मकारों के सहयोग से सत्यजीत रॉय की फिल्मों का रेस्टोरेशन कार्य किया था। यह कार्य लोकप्रिय श्रेणी में नहीं आता और यह मौलिक सृजन भी नहीं है परंतु महान सृजन विरासत को आगामी पीढिय़ों के लिए सुरक्षित रखने का प्रयास है। दरअसल शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर परदे के पीछे के सितारे हैं जो दुर्भाग्यवश अवाम में सितारों वाला जुनून नहीं जगाते। यह बाबा आमटे और मेधा पाटकर जैसा काम है। फिल्म के प्रेमी फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन के लिए संपर्क करे सकते है।

contact@filmheritagefoundation.co.in फोन: 9820153836। दरअसल दुनिया भर में जुनूनी सिने प्रेमी हैं और यह इस मंच पर एकत्रित होकर यह काम कर सकते हैं।