भारतीय युवा आज भी मासूम है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 26 नवम्बर 2012
एंग ली की फिल्म 'लाइफ ऑफ पाई' में इरफान खान और तब्बू हैं, परंतु फिल्म का केंद्रीय पात्र सूरज शर्मा है, जिसकी आयु आज मात्र सत्रह वर्ष है और दिल्ली के इस युवा की दुनिया ही बदल गई, जब विगत वर्ष उसे पाई की भूमिका प्राप्त हुई। एंग ली ने महज फिल्म ही नहीं साकार की, वरन युवा सूरज को यह समझाया कि सितारा हो जाने के चक्रव्यूह से बचना चाहिए, क्योंकि प्रसिद्धि आपके लिए कई दरवाजे खोल देती है, परंतु अपने हृदय की सारी खिड़कियों को बंद कर देती है और यह अस्थायी प्रसिद्धि मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ती। न खत्म होने वाली दावतों और प्रशंसा के कारण मनुष्य यथार्थ से कट जाता है तथा सहज व्यावहारिकता प्रसिद्धि की पहली शिकार होती है। कोई आश्चर्य नहीं अगर इस फिल्म में काम करने वाला टाइगर भी जंगल वापस आने पर देखे कि हाथी, भालू, बंदर सब उससे ऑटोग्राफ चाहते हैं। इस फिल्म में कुछ शॉट्स टाइगर के हैं और अधिकांश टेक्नोलॉजी द्वारा बनाए गए टाइगर के हैं।
बहरहाल, सूरज न्यूयॉर्क के सिनेमा स्कूल में दाखिला लेकर फिल्मकार बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। अभिनय में और अधिक समय नहीं बिताना चाहते। उनकी महत्वाकांक्षा एंग ली की श्रेणी का डायरेक्टर बनकर फिल्में बनाने की है। दरअसल सूरज उम्र के अत्यंत नाजुक दौर में हैं, जहां अभी बचपन का चंपई अंधेरा मौजूद है और जवानी की सुबह का सुरमई उजाला अभी पूरी तरह से आया नहीं है। इस अलसभोर में भटकने का डर होता है, बहकने की संभावना होती है।
कोई सात दशक पूर्व साबू नामक बालक ने हॉलीवुड की 'एलीफेंट ब्वॉय' में काम करके सितारा हैसियत हासिल की थी, परंतु बाद में वह गुमनामी की किस गर्त में गिरा, किसी को मालूम ही नहीं पड़ा। 'बूट पॉलिश' का रतन कहां है और बेबी नाज भी कुछ नहीं बन पाई। 'मदर इंडिया' का बालक बिरजू कहां है? दरअसल बच्चों के सितारा बनने और फिर टूटकर खो जाने की कई गाथाएं हैं, परंतु सूरज अपने पहले साक्षात्कार में समझदार लग रहे हैं और एंग ली उनका पथ प्रदर्शन करते रहेंगे। उन्हें इरफान खान भी मार्ग दिखा सकते हैं, जिन्होंने अनेक विदेशी फिल्मों में नाम कमाया और इस फिल्म में भी बेहतरीन अभिनय किया है।
सूरज का कहना है कि दिल्ली में स्टार क्रेज अन्य शहरों की अपेक्षा अधिक है। दरअसल दिल्ली के जंगल में राजनीतिक संसार के भांति-भांति के सैंपल मौजूद हैं, परंतु इस समय राजनीति सिताराविहीन संसार है। सूरज आज के युवा हंै और इस दौर में युवा भी बहुत समझदार होते हैं। टेक्नोलॉजी ने हर अवस्था के सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन किया है। वे लोग बचपन में जितने खिलौनों से नहीं खेले, उससे कहीं अधिक गैजेट्स से जवानी में खेलते हैं। उनके पास विज्ञानजनित एक वैकल्पिक संसार भी है।
यह भी गौरतलब है कि विदेशी फिल्मकार भारत में साबू या सूरज जैसे लोगों के साथ जानवर की केंद्रीय भूमिकाओं वाली फिल्मों में काम करते हैं या 'स्लमडॉग मिलियनेअर' जैसी फिल्म में झोपड़-पट्टी के बच्चों को प्रस्तुत करते हैं। 'सलाम बॉम्बे' नामक फिल्म में बच्चों ने विलक्षण अभिनय किया था। यह भी संभव है कि भारत के बच्चों में आज भी कुछ मासूमियत बाकी है, जबकि पश्चिम में वे पकने के पहले बिकने की जल्दी में बहुत कुछ खो देते हैं। 'लाइफ ऑफ पाई', 'सलाम बॉम्बे', 'स्लमडॉग मिलियनेअर' जैसी फिल्में भारत के फिल्मकार नहीं बनाते। वे बेचारे अपने ही लड़कपन से कभी उबर नहीं पाते। हमारे यहां सरकार ने भी बच्चों के मनोरंजन करने वाली एक संस्था को चार दशक पूर्व स्थापित किया है, परंतु वहां से कोई क्लासिक अभी तक नहीं आई है।
जानवरों को लेकर भारत में अनेक मसाला फिल्में बनी हैं, परंतु हमारी इन फिल्मों में प्रस्तुत जानवर भी स्टॉक चरित्र है। हम उनसे उनकी स्वाभाविकता छीन लेते हैं और अपना नकलीपन उन पर थोप देते हैं। हाथी की मित्रता, कुत्ते की वफादारी और सांपों का इच्छाधारी होना ही हम दिखाते रहे हैं। एंग ली जैसी कल्पनाशीलता का हमारे निर्देशकों में अभाव है। बहरहाल, जानवर में छुपे इंसान और इंसान में बसे भेडिय़ा के विषय में हमेशा ही गहरी सिनेमाई संभावनाएं रही हैं