भारतीय रेल और भारतीय सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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भारतीय रेल और भारतीय सिनेमा
प्रकाशन तिथि :27 फरवरी 2015


भारतीय रेलसेवा ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की संयुक्त जनसंख्या के बराबर संख्या में यात्रियों का वहन करती है और इस मायने में राष्ट्र की धमनियों की तरह हैं और मनुष्यों का प्रवाह इसमें कभी रुकता नही है। आज भी गरीब आदमी के परिवहन का सबसे सस्ता साधन यही है। इसी कारण महात्मा गांधी हमेशा तृतीय श्रेणी में सफर करते थे। पृथ्वीराज कपूर भी अपने थियेटर के कलाकारों के लिए तृतीय श्रेणी का एक पूरा डब्बा आरक्षित करते थे। उनके साथ सेट डेकोरेशन का सामान भी होता था। रेल के डिब्बे भारत की अनेकता में एकता का प्रतीक होता है, क्योंकि विभिन्न धर्मों और भाषाओं के लोग इसमें बैठते हैं। खचाखच भरे डिब्बे में भय लगता है कि इतने लोग कैसे बैठेंगे परंतु रेल चलते ही सब एडजस्ट हो जाते थे। यह थोड़ा खिसकना, थोड़ा आगे-पीछे होना बहुत स्थान पैदा कर देता और यह खिसकना, सरकना, राष्ट्रीय एडजस्टेबिलीटी का प्रतीक भी है। सदियों से अवाम को सिकुड़ने को कहा जाता, फैलने का नहीं और यही हमारी कूपमंडुकता की जड़ भी है। दुष्यंत कुमार कहते हैं, 'न हो कमीज तो पैरों से पेट ढंक लेते हैं, ये लोग कितने मुनासिब है जम्हूरियत के सफर के लिए।' भारतीय रेल भारतीय गणतंत्र की तरह अवाम के लिए भीड़ भरे तृतीय श्रेणी के डिब्बों के साथ, अमीर उमराव के लिए वातानुकूलित डिब्बों का इंतजाम भी करती है, जहां सेवा के लिए कड़क स्त्री किए कपड़े पहने सेवक खड़े रहते हैं। स्टेशनों पर कुली भी , देश में भी अनेक लोग कुलीगरी करते हुए खप जाते हैं।

बहरहाल, भारतीय सिनेमा ने रेलो का इस्तेमाल बहुत किया है - सिनेमाई दृश्यों में और यूनिट की यात्रा के लिए। तकरीबन 95 वर्षों तक फिल्मों के पचास किलो वाले प्रिंट ट्रेनों से ही पूरे देश में भेजे जाते रहे हैं परंतु अब सैटेलाइट बीमिंग के कारण प्रिंट ही खारिज हो गए हैं। बलदेवराज चोपड़ा की 'बर्निंग ट्रेन' के लिए आवंटित डिब्बों को इतना नुकसान पहुंचा कि अब रेल शूटिंग की आज्ञा के लिए बैंक ग्यारंटी और मोटी फीस देनी पड़ती है। एक की गलती की सब सजा भुगतते हैं। आजादी के पहले 1941-42 में मेहबूब खान की 'रोटी' में रेलवे प्लेटफॉर्म पर एक जनजाति का आदमी चंद पैसों में 'हिंदू चाय पीता' है। फिर एक व्यक्ति उसे 'मुस्लिम चाय' बेचता है तो वह दोनों चाय बेचने वालों को मारता है कि एक ही चाय दो नाम से बेच रहे हो। यह अनपढ़ मेहबूब खान का जीनियस है कि धर्मनिरपेक्षता का सबक जनजाति वाला दे रहा है। सच तो यह है कि जनजातियों और आदीवासियों में कोई जाति या धर्म भेद नहीं होता, वे केवल प्रकृति को पूजते हैं। शादियों का आधार वहां प्रेम है और सबसे गरीब जोड़ा भी मात्र चार कुल्हड़ शराब एक-दूसरे के पर डालकर विवाह सूत्र में बंध जाते हैं। उनके घोटुल हमारे यूथ क्लब से अधिक आधुनिक हैं। गुदना वहां प्रसाधन नहीं, प्रेम का संकल्प है। विचार आता है कि क्या विकास करके हम कट्टवादी हो गए, असहिष्णु हो गए?

आजादी के पांच वर्ष बाद 'रेल्वे प्लेटफॉर्म' आई, जिसमें 24 घंटे एक जगह रुकना पड़ा और वहां व्यापार प्रारंभ हो गया। कम्पार्टमेंट का भाईचारा काफूर हो गया। विमल राय का देवदास कम्पार्टमेंट में पहला घूंट शराब का लेता है और इंजन की धधकती आग में कोयला डालने का शाॅट है। इंजन के धुंए का भी प्रतीकात्मक प्रयोग बहुत फिल्मों में हुआ है। विजय आनंद की 'कालाबाजार' में ऊपर की बर्थ पर वहीदा रहमान है, नीचे देवआनंद गाना गाते हैं, 'अपनी तोे हर तूफान है, ऊपर वाला जानकर अंजान है।' मां की मुद्रा उनकी नाराजगी जाहिर करती है तो पति इशारे से कहता है कि 'ऊपर वाले' से उसका तात्पर्य 'ईश्वर' है, हमारी बेटी नहीं। विजय आनंद तो खूब खेलता था परन्तु उम्रदराज सचिन देव बर्मन रेल का गाना बनाना है, सुनते ही प्रसन्न हो जाते थे। रेल की सिटी में माधुर्य खोजना उनके बस की ही बात थी। याद कीजिए आराधना का गीता 'मेरे सपनों की रानी।'

रेल की छत पर नासिर हुसैन का नायक नाचता था तो मनमोहन देसाई का नायक गुंडों को पीटता था। मेरे लड़कपन की प्रिय नाडिया ट्रेन की छत पर घोड़ा दौड़ाती थी। ट्रेन डकैती का सर्वश्रेष्ठ दृश्य दिलीप की 'गंगा जमना' में है, फिर शोले है और बोनी की 'रूप की रानी' में भी उतेजक दृश्य था। रेल दृश्य कविता की तरह 'जोकर' में आया था। एक फिल्म में तलाकशुदा पति-पत्नी को जोड़ा समझकर एक कूपा दिया गया और यात्रा में उनके मन में मौजूद प्रेम की चिंगारी ने फिर रिश्ता बना दिया। शाहरुख खान मणिरत्नम की फिल्म में ट्रेन में 'छैयां छैयां' गाते है। 'दुल्हनिया' में ट्रेन का इस्तेमाल हुआ है परंतु इम्तियाज अली की 'जब वी मैट' के अत्यंत महत्वपूर्ण दृश्य रेल में हैं। चेन्नई एक्सप्रेस' में भी अनेक हास्य दृश्य ट्रेन में फिल्माएं गए हैं। अनगिनत फिल्मों में ट्रेन दृश्य हैं। अनेक गीत फिल्माएं गए हैं। राजकपूर अपनी 'जागते रहो' को चलती गाड़ी में नए रूप में बनाना चाहते थे, जिसके लिखने के लिए विजय तेंडुलकर से बात हुई थी। उस फिल्म का नाम 'रिश्वत' था। बहरहाल, जावेद अखतर की एक नज्म में इस आशय की बात है कि चलती ट्रेन से स्थिर दरख्त भागते हुए से लगते हैं। शायद समय भी दरख्त की तरह खड़ा है और हम ही भाग रहे हैं।