भारतीय लोक का स्त्री-पक्ष (अनामिका) / नागार्जुन
नागार्जुन के गांव से मेरे नन्हे-से शहर की दूरी दो-ढाई घंटों की होगी। उनका लोक मेरा अपना लोक है। ख़ासकर उनकी ‘प्रकृति’ और उनकी ‘स्त्रिायां’ मेरे अपने नैतिक भूगोल का अंतरंग हिस्सा हैं! इसलिए मैंने यह विषय चुना कि उनका ‘लोक’ और उसका स्त्राीपक्ष मेरा चीन्हा हुआ है। उनकी राजनीतिक कविताओं में भी ‘धुरछक उतारती’ मलंग ग्रामवधुओं की परिहासनिपुण, व्यंजनापरक भाषा का लौंगिया चरपरापन बहुत साफ़ नज़र आता है। सर्वसमावेशी स्त्राीदृष्टि दंड/क्षमा/न्याय/करुणा आदि द्वैतों से कदम-कदम पर जूझती है और किसी द्वंद्व के सच्चे समाहार का अभाव अक्सर उसे एक हंसमुख से महीन विडंबनाबोध से लहालोट रखता है! नागार्जुन के अपने शब्दों में कहूं तो ‘प्रतिबद्ध’, ‘संबंद्ध’ और ‘आबद्ध’: आबद्ध हूं, जी हां, आबद्ध हूं प्रियजन के पलकों की कोर में सपनीली रातों के भोर में... तीसरी-चौथी पीढ़ियों के दंतुरित शिशु-सुलभ हास में राजनीतिक प्रतिबद्धता अक्सर यह दावा उछालती नज़र आती है कि वह माया मोह के बंधन काट देने वाला मुक्ति-पथ है। नागार्जुन की कविता ऐसा कोई दावा नहीं करती कि ‘घर-बार’ जला देने वाली लुकाठी पकड़ रखी है। राहुल सांकृत्यायन की तरह नागार्जुन भी ऐसा रमता जोगी, बहता पानी है कि उनका चित तम्बू, कनात, स्टेशन, धर्मशाला, अलाव, चौराहा, बस, ट्रेन कहवा-घर और जेल-तक में एक घर ढूंढ लेता है। दूसरों की बहू-बेटियों में अपनी बहू-बेटी। कभी-कभार वे अपने नन्हे-मुन्ने प्रेम और निरीह, छिटपुट आकर्षणों की चर्चा सिंदूर-तिलसित भाल’ से कर देते हैं जिसकी याद उन्हें परदेश में भी हर क्षण स्निग्ध और उद्दीप्त रखती थी, ऐसे निरीह आकर्षण का एक प्रमाण मौथिली की यह कविता भी है: रंगी-रची पेटी से उंगठी गौना करायी दुलहन सोयी है या जगी घूंघट की आड़ में! लेकिन दूल्हा भर रहा है खर्राटे पास ही काले कंबल पर, 364 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 सिरहाने सैंतकर सामान इनकी रखवाली कर रही है सिक्कों की माला और पत्तीदार बाजूबंद पहने दुल्हन की अर्द्धवयस्क नौकरानी लाल किनारी की पीली साड़ी में बिलकुल मांगुर मछली-सी है उसकी देह की कांति लगती है कितनी अच्छी अब क्यों निकलेंगे आंखों के डोरे न आये रात भर मेलट्रेन! पश्चिमी स्त्राीवाद इसे ‘मेलगेज़’ कहकर दुत्कार सकता है, पर लोक संवेदना ऐसे प्रसंग परिहास में टाल जाने की कला जानती है: ‘भर फागुन बुढ़ऊ देवर लागे, भर फागुन’। परदेसी पिताओं की धरती है मिथिला, बल्कि यह पूरा तिरहुत प्रदेश। रोज़ी-रोटी की तलाश हो, कोई और बृहत्तर संधान (राजनीतिक/आध्यात्मिक तलाश), हरी-भरी धरती और और मिठबोली घरनी, बच्चा बुतरू, भाई-बंद, माता-पिता, परिजन-पुरजन की भकजोगनी यादें ही अंधेरे रास्तों पर इजोर का अक्षत छिड़कती चलती हैं: गीली भादो, रैन अमावस, कैसे ये नीलम उजास में अच्छत छींट रहे जंगल में! जुगनू हो या ‘डियर तोताराम’, क़ैदियों की मुक्ति का ‘वायकेरियस’ (अत्यांतरित) आनंद देवे वाला जेल का महाघुमंतू नेवला हो या बापू के भी ताऊ निकले बापू के वे बंदर, घन-कुरंग हों या फुहारों वाली बारिश, बांगमग्न मुर्गा हो या ध्यानमग्न बक शिरोमणि, ‘मादरे हिंद की बेटी सूअर मां हो या अचानक गांव में घुस आया बाघμसलाखों से भाल टिकाकर कुछ-कुछ सोचते और लगातार ही कुछ-कुछ बोलते हुए समाधीत, सरस किंतु परमव्यग्र व्यक्ति के अवचेतन के विराट् स्पंदनों का पता देते हैं जिसके भीतर का महास्वप्न टूटा नहीं है। इस जटिल समय में भी बाबा ऐसे रचनाकार हैं जिनका लोकतंत्रा के दरिंदों पर स्पष्ट कटाक्ष का नैतिक साहस टूटा नहीं है। मजे की बात यह है कि राजनीतिक कटाक्ष में भाषिक औजार भी उन्हीं लोकगीतों, कहावतों और उन्हीं लोक-आख्यानों के महान शस्त्रागार से लिये गये हैं जिसकी सर्जना और रखवाली आज तक औरतों के ही हिस्से रही है: आओ, रानी हम ढोयेंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की, रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की! देशी आधुनिकता के इस महाप्रसंग की पृष्ठभूमि में हज़ार उन प्रसंगों का जिक्र किया जा सकता है जो समय-समय पर उतने समकालीन और कनीय सहचर सुनाते रहते हैं! इनमें एक महत्वपूर्ण प्रसंग है प्रोगोपेश्वर सिंह का सुनाया हुआ! पटना सचिवालय के पास कहीं सड़क पार करते हुए फुटपाथ पर बिकती एक बांग्ला पत्रिका देखी! जेब में पैसे नहीं थे, पर उसे खरीद लेने की खातिर वे ऐसे मचले जैसे भूखा नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 365 कच्चा मनेर के लड्डुओं के लिए मचल जाता है! तर्क यह कि बांग्ला पत्रिकाओं में सारे पश्चिमी विवादों की समधीत चर्चा होती है! भगिनी-भाषाओं से छनकर घर पहुंची पश्चिमी आधुनिकता, ‘टवाइस रिमूव्ड फ्रॉम रिऐलिटी’ का ऐसा स्वरूप है जिसे ‘शुभ’ ही कहना चाहिए। धारा में स्थानीय खनिज घुलना कभी-कभी अच्छा भी होता है! राजगीर का गर्म सोता याद कीजिए। नीचे तप्त गंधक का स्पर्श साधारण पानी में औषधीय उष्णता भर देता है। आधुनिकता की पश्चिमी धारा प्राचीन संस्कृतियों के खनिज तत्व से घुलती-मिलती जब आगे बढ़ी, उसके औषधीय गुण भी बढ़े। ‘घाट-घाट का पानी पीना’ मुहावरा इसलिए भी बना होगा कि घाट-घाट पर पानी का स्वाद बदल जाता है: संस्कृतियों का तालमेल भाषा के तालमेल की तरह, कभी भी प्रदूषणपरक नहीं होता। संस्कृति-जल या फिर भाषा-जल सामान्य पानी नहीं है, कम-से-कम उससे प्रदूषण वाले ख़तरे नहीं होते। हां तो मैं कह यह रही थी कि बांग्ला पत्रिकाओं से और अखबारों से छनी र्हुअ आधुनिकता ‘मैथिल बानी सब जग मिट्ठा’ के घर जब आयी तो उसकी छब-ढब अलग थी। मार्क्स, फ्रायड, बर्तोल्त ब्रेख्त के बांग्ला और हिंदी अनुवाद अंग्रेजी अनुवादों से कितने अलग हैं, इस पर तो शोधपत्रा लिखा जा सकता है! फिलहाल उसे छोड़ती हूं। समझना हमें यह है कि लालू साहू, चंदू, ग्रामीण मास्टर, अकाल और बाढ़ की विभीषिकाओं से घिरे साधारण ग्रामीण साम्यवाद और लोकतंत्रा की पश्चिमी अवधारणाएं घर ब्याह लाते हैं तो उनकी स्थिति क्या होती है? स्थिति तो वह जो लोकगीत वाले ‘लाला’ की हुई थी। ‘आगरे का लाला/ अमरीकी दुल्हन लाया रे’ और दुल्हन इतनी दबंग निकली कि उसने पहले तो कुनबे से लाला को अलग किया, फिर उसे भी छोड़ चलती बनी। लेकिन लोकतंत्रा एक अच्छी दुल्हन था! ‘मेम साहिब’ भाव से वह हमारे घर, कम-से-कम नागार्जुन के घर नहीं आया। वह आया सामरस्य का ककहरा पढ़कर और अपनी सौत तक को भी उसने अपने रंग में रंग डालाμवह भी प्यार से। उसके आधारभूत प्रमेयों का पूरा भाव रखते हुए। सौत भी तो सामान्य सौत नहीं थी। साम्यवाद की इस सौत से लोकतंत्रा का विवाद केवल इतना था कि वह मुंह सिल देने में विश्वास रखती थी, एक सूक्ष्म तरह की तानाशाही में विश्वास रखती थी। आपातकाल इस सौत का ‘फुटली आईना’ था। इसमें उसका चेहरा विद्रूप दिखायी दिया, जीभ कतर देने के इस सिद्धांत से किसी की भी सहमति बनी नहीं, ख़ासकर, नागार्जुन की सहमति। मार्क्स की अंतर्राष्ट्रीयता से सहमत होते हुए भी देशप्रेम की कविताएं भारत-तीन युद्ध के समय भी उन्होंने लिखी थीं। पर नेहरू और इंदिरा के तर्ज का छद्म लोकतंत्रा उन्हें स्वीकार नहीं था। तानाशाही तामझाम है, प्रजातंत्रा का नारा, पार्लियामेंट पर चमक रहा है मारुति का धु्रवतारा! भेदभाव की संरचनाएं ख़त्म करनेवाला साम्यवादी प्रजातंत्रा ही सच्चा प्रजातंत्रा है, पर हां, बोलने की आज़ादी चाहिए। आपातकाल के दौरान तो रघुवीर जी की कविताओं का ताल-छंद भी नागार्जुन जैसा ही हो गया: निर्धन जनता का शोषण है, कह कर आप हंसे लोकतंत्रा का अंतिम क्षण है, कहकर आप हंसे कितने आप सुरक्षित होंगे, मैं सोचने लगा, सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हंसे। पर प्रश्न यह उठता है कि इस तरह की नृशंस हंसी हंसने वालों का मज़ाक उड़ाने, उपनी धज्जियां उड़ाने की छूट अगर कविता में मिलती है तो इसी प्रजातंत्रा में। लोकतंत्रा है तभी कविता है, लोकतंत्रा न हो तो 366 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 कविता की घिग्घी ही बंध जाय! नागार्जुन इतना समझते थे, तभी उन्होंने कविता में भी वे ही उपाय आजमाये जो नयी स्त्रिायां आजमा रही हैं। घर की संरचना में रहकर ही घर की सरहद बढ़ा देने की कोशिश। घर एक रणभूमि है और अच्छा योद्धा रणभूमि को पीठ नहीं दिखाता। स्त्रिायां अपनी रणभूमि में डटकर आततायी संरचनाएं ढाती हैं और नयी उठा देती हैं। किसान अपनी झोपड़ी में गठरी-मोटरी के संग जमा हुआ धीरे-धीरे उसका ढांचा बदल देता है। बड़े भवनों की रिमॉडेलिंग के वक़्त उसके बाशिंदे किसी और हवामहल में पलायन कर जाते हैं, उतनी घिचपिच उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। पर स्त्राी समाज, दलित, आदिवासी, किसान, और मजदूर और कवि चुपचाप संरचनाएं बदल देते हैं और काव्यभाषा की ज़मीन इस भीतरी परिवर्तन को सबसे अधिक सूक्ष्मता से दर्ज करती चलती है और इससे ही कविता का लोकतंत्रा बनता है। भीतरी परिवर्तन की आहटें जहां दर्ज होती है, वहीं से शुरू होती है भीतरी आलोचना की एक ऐसी समृद्ध परंपरा जो हरदम चौकस रखे, कभी निढाल नहीं होने दे। नागार्जुन की कविता की तरह जो भाषावैभव में प्रजातांत्रिक है और ‘क्लासिकल’, ‘पॉपुलर’ का पदानुक्रम तोड़ने की हिम्मत के कारण गहरे अर्थों में साम्यवादी भी। ‘घिन तो नहीं आती है’ कविता का आत्ममंथन इसका, स्पष्ट प्रमाण है। बात मैथिल लोक से शुरू हुई थी जो ‘रतिताथ की चाची’ और ‘उग्रतारा’ का भी लोक है। उनके उपन्यासों के क्रांतिकारी स्त्राी-किरदार भी उसी स्त्राी-दृष्टि का उत्सव संकेत देते हैं। बिहार-बंगाल में बहुतरे लोकगीत एक ऐसे सरस जोगी को समर्पित हैं जो तरह-तरह के रूप बदलकर भिक्षा मांगने आता है और घर की औरतों से दुख-सुख बतियाता हुआ उनके अंतरंग का पता भी पा जाता है। एकरस कामकाज से थकी, मार-पीट, गाली-गलौज से मलुआई साधारण स्त्रिायां उसे घेरकर बैठ जाती हैं। दीन दुखिया के क़िस्से उससे सुनती हैं। क्योंकि वह एक जगह टिककर नहीं बैठता, उसके पास क़िस्सों का पिटारा होता है। जोग अध्यात्म के अलावा भी बहुतेरे ऐसे प्रसंग जिनसे स्त्रिायों का घटनाविहीन जीवन चमत्कृत हो जाये और रहस्यदीप्त भी। किसी-किसी गीत में वह उनका निर्मोही प्रेमी बनकर उभरता है, पर ज़्यादातर गीतों में उसकी स्थिति एक हमदर्द सखा की होती है। एक ऐसे ज्ञानी-ध्यानी सखा की जिसके पास धीरज और स्नेह हो और दुनिया की ज़्यादातर समस्याओं का हल भी। नागार्जुन की छब-ढब कुछ-कुछ ऐसी ही थी। अपने एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार में बाबा ने कम-से-कम पांच वर्षों के लिए स्त्राी बन जाने की आकांक्षा ज़ाहिर की है। अपनी ही पत्नी, बेटियों, बहुओं से नहीं, दोस्त-घरों की पत्नियों-बेटियों-बहुओं से भी बाबा का सामरस्य ऐसा था कि वे उन्हें अपनी सखी की मानती थीं। उनके रसोईघर तक बाबा का निश्शंक प्रवेश हिंदी जगत का एक सर्वज्ञात तथ्य है। जैसे चांद, सबका मामा, बाबा सबके बाबा। स्त्रिायों का दोस्त बन पाना इतना आसान नहीं है। स्त्रिायों का एक बड़ा दुःख यह है कि अनन्य प्रेम के कच्चे-सच्चे दावे ठोंकने वाले तो राह चलते, मिलते रहते हैं, पर सच्चा दोस्त नहीं मिलता। दोस्त जो दुखसुख सुने-समझे, ज्ञान और प्रज्ञा-पथ का सहचर बने और जिसकी दृष्टि बुद्ध दृष्टि हो, किसी तरह की जबर्दस्ती जो न करे। एक प्रजातांत्रिक वैभव, एक हंसमुख दोस्त दृष्टि जो शालीनता को कायम रखे और स्वतंत्रा निर्णय का स्पेस दे। मेरे कवि-पिता, स्वर्गीय श्यामनंदन किशोर, रोज़ रात थपकियां देकर हमें सुलाते थे! खिड़की के पास, जहां मां बैठती थी, कटहली चंपा के पौधे थे। थपकियों के ताल पर पिताजी हमें कभी अपनी कविताएं नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 367 सुनाते, अपनी पसंद के देशी-विदेशी कवियों की भी। कटहली चंपा की गंध और चांदनी का प्रकाश जादू की तरह उन सारी कविताओं में प्रवेश कर जाता और फिर हमारी छिपती आंखों के रास्ते हमारे अंतर्मन में। उनमें कुछ कविताएं नागार्जुन की भी होतीं। इस प्रकार नागार्जुन की कविताओं का प्रकाश, उनका शब्दसंस्कार, नैतिक भूगोल, सौंदर्यबोध, अंतःसंगीत और नाटकीय वैभव मेरे भीतर कहीं गहरे रच बस गये। मिथिला, वैशाली और तिरहुत की आबोहवा की तरह जिसके साथ ‘सिंदूर तिलकित भाल’ बाबा को याद आता है। बिहार की ज़्यादातर पत्नियां विस्थापित पतियों की पत्नियां रही हैं। सिंदूर-तिलकित भाल वहां हरदम प्रतीक्षादीप्त ही रहे हैं। रंगून, कलकत्ता, आसाम, पंजाब और दिल्ली यानी ये स्थान बिहार से आकर बस गये मजदूरों, छात्रों, पत्राकारों, लेखकों, पार्टी कार्यकर्त्ताओं और फेरीवालों से आबाद रहे हैं हरदम। भूमंडलीकरण के बाद की स्थिति तो यह है कि मिथिला, तिरहुत, वैशाली, सारण और चंपारण यानी गंगा पार के बिहारी गांव सर्वथा पुरुषविहीन हो चुके हैं यानी कि पूरी-की-पूरी मही वीरों से खाली है। सारे पिया परदेसी पिया हैं वहां। गांव में बची हैं वृद्धाएं, परित्यक्ताएं और किशोरियां जिनकी तुरंत-तुरंत शादी हुई है या फिर हुई ही नहीं, हो ही नहीं पायी इसलिए कि दहेज का पैसा जुटा नहीं, नागार्जुन की ‘सिंदूर तिलकित भाल’, ‘कालिदास’, ‘तब मैं तुम्हें भूल जाता हूं’, ‘इसलिए तू याद आये’, ‘गुलाबी चूड़ियां’ आदि उसी अकेली छूटी बेटी/पत्नी/प्रिया के लिए उमड़ी अजब तरह की कसक भरी अमर कविताएं हैं। पुराना साहित्य कहीं बेटी के वियोग का जिक्र नहीं करता। यह वियोग का एक नया प्रकार है जिसकी आहट भारतीय साहित्य में रवींद्रनाथ के ‘काबुलीवाला’ के बाद बाबा की ‘गुलाबी चूड़ियों’ में ही खनकती है: सामने गीयर के ऊपर हुक से लटका रखी हैं कांच की चार चूड़ियां गुलाबी... हां भाई, मैं भी पिता हूं वो तो बस यूं ही पूछ लिया आपसे वर्ना ये किसको नहीं भायेंगी? नन्ही कलाइयों की गुलाबी चूड़ियां।’ (गलाबी चूड़ियां) छन-छन-छन-छन बजने वाली ये गुलाबी चूड़ियां दरअसल वैयक्तिक स्मृतियों से जातीय स्मृतियों तक एक अच्छा ताना-बाना रचती हैं। काल भी तो एक बस के सफर का वक़्त ही है! उस बस की बदलती रफ़्तार के मुताबिक ऐन गीयर के ऊपर हिलती रहने वाली ये चूड़ियां जैविक घड़ी की टिक-टिक भी हैं और स्मृतियों की छन-छन भी। एक गीयर हाथ में है। पर गीयर के यथार्थ के ऊपर भी कुछ है, और जो भी यह है, उसकी रुनक-झुन-झुन अनंत तो है ही। नागार्जुन की कविता में इधर-उधर, जहां-तहां छूट गये, असमय काल-कवलित हुए, निरंतर संघर्षरत, भूखे-प्यासे-अघूरे बचपन के चित्रों की एक सजग शृंखला है। उनका यह वात्सल्य नेवला, कुतिया आदि छोटे पशुओं, साधारण पक्षियों और बिखरे बचपन पर एक भाव से ही उमड़ता है। यह सर्वसमावेशी वात्सल्य भी उनकी लोक-दृष्टि का सजग स्त्राी-पक्ष है। 368 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 मेरे एक कवि-मित्रा, शशिभूषण द्विवेदी, बचपन का संस्मरण बड़े भाव से सुनाते हैं कि मेरे गांव में जनगणना के समय गांव की स्त्रिायों का नाम लिखा जा रहा था। पड़ोस की चाची की बारी आयी तो शशिभूषण के सिर पर प्यार से अपना हाथ फेरती हुई झट से वे बोलींμलिख द, भूषण के चाची। लोककथा का राक्षस तो अपने प्राण तक तोते में रख जाता था। स्त्रिायां अपने प्राण बूंद-बूंद पूरे कायनात में बांट आती हैं; मुख्य संबंधों का विस्तार जिस सहजता से सामान्य स्त्रिायां कर लेती हैं, उसके लिए भीतर बहुत ऊष्मा चाहिए। उष्मा नहीं होगी तो भीतर जड़ीभूत अहं न पिघलेगा, न विस्तार पायेगा। यह ऊष्मा आती कहां से है? अहेतुक वात्सल्य से! स्त्राी सुलभ इसी अहैतुक वात्सल्य का अनंत विस्तार हमें ‘चंदू, मैंने सपना देखा’, ‘चौथी पीढ़ी का प्रतिनिधि’, ‘यह दंतुरित मुस्कान’, ‘नेवला’, ‘जया’, ‘बच्चा चिचार’, ‘खुरदरे पैर’ आदि सप्राण कविताओं में मिलता है: खुब गये दूधिया निगाहों में फटी बिवाइयों वाले खुरदरे पैर दे रहे थे गति रबड़-विहीन ठूंठ पैडलों को चला रहे थे: कर रहे थे मात त्रिविक्रम बामन के पुराने पैरों को नाप रहे थे धरती का अनहद फासला घंटों के हिसाब से ढोये जा रहे थे (खुरदरे पैर) फैज़ अहमद फैज़ की एक कविता है: ‘इक मुनीज़ा हमारी बेटी है’ जिसमें वे मुनीज़ा को इक बेटी है हमारी डिटेक्टर’ कहते हैं। ‘जया’ (1941) की ये पंक्तियां ‘डिक्टेटर’ वाले इस विम्ब के समानांतर पढ़िए: पीछे शासक सी तर्जनी उठाकर इंगित करती: नहीं तुम्हें मैं जाने दूंगी। टैगोर की भी एक कविता है जहां परदेस जाने को तैयार बाप का रस्ता रोकने के लिए दरवाजे के कोने में छिपी बेटी एकदम से प्रकट होती है: ‘ना जेते देबो आमि’। पता नहीं कब किसी और भाषा की एक कविता सुनी थी जिसमें सड़क पार करता बच्चा एक उंगली उठाता है और दोनों तरफ़ का यातायात रुक जाता है। त्रिलोचन की चंपा भी अभी तो बच्ची ही है किंतु भविष्य में कहीं स्थित दूल्हे को रोज़ी-रोटी का लोभ जगाकर अपनी बांहों में खींच लेने वाले कलकत्ता पर ‘बजर-गिराने’ को तैयार है। तरह-तरह की अनिश्चिताओं में घिरे बचपन की चिंता हर उस बाप को रहती है जो किसी कारण से घरवास नहीं कर पाता, ‘रमता जोगी बहता पानी’ हो जाता है। प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हज़ारों लोग ऐसे ही परदेसी पिता और पति थे। हर महत् संकल्प की अपनी विडंबनाएं होती हैं, जिनसे कोई भी संवेदनशील हदय अछूता नहीं रहता! घर में चिराग जलाकर ही मज़ाक में जलाने की व्यावाहारिक प्रज्ञा से लोग अछूते रहे, विहंगम वृत्ति वाले उन सारे पिताओं/पतियों के गहनतम द्वंद्व का पता ऐसी अनेक वत्सल कविताएं देती हैं! ज़ाहिर है कि इनके वात्सल्य का रंग सूर के वात्सल्य से बिलकुल अलग है। खंडित वात्सल्य की नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 369 कसक इनमें विख्यात हैं। रोज़ी-रोटी की तलाश या किसी बृहत्तर स्वप्न के संधान में दर-बदर हुए नंद (और जसोदा भी) तितर-बितर वात्सल्य की ही कविताएं लिख सकते हैं, लेकिन मर्म पर प्रहार तो ये वैसे ही करते हैं जैसे वत्सला गाय के दूध की धार धीमे-धीमे बाल्टी पर चोट करती या दूध दूह रही उंगलियों पर। बेटी की डिक्टेटरी ‘डिक्टेटरशिप ऑफ द प्रोलेतारियत’ का ही उपांग है या एक नयी तरह के प्रजातंत्रा का सपना, जहां अब तक मूक-बधिर रहे लोग ही राज करेंगे। उंगली ऐसे उठायेंगे कि रास्ते ही मोड़ देंगे। कम से कम अपने बाल-रूप में स्त्राी शासक सबको आकर्षिक करती है। ‘बेबी वुमन’ का शासन सबको स्वीकार्य है। रोब-रुतबे वाली यह शिशु स्त्राी बड़ी होकर समकालीन कविता की तेजोमय स्त्राी बनेगी। इसके पास होगी अपनी एक दृष्टि, अपनी एक अलग ज़बान, उसका शासन अभी भी प्रेम का शासन होगा। बुद्धि और प्रज्ञा-संवलित हृदय का शासन है, उससे डरना क्या! आंख मूंदकर सोचें। इसी भूमिका के साथ अंत में उनकी राजनीतिक कविताओं पर आते हैं। अमिधा की ताक़त क्या होती है, नाटकीय वैभव क्या होता है, कविता में ‘आख्यान’ या ‘उपाख्यान’ कैसे अंतर्भुक्त करना चाहिए कि वह ‘पैच-वर्क’ नहीं लगे, यह कोई नागार्जुन से सीखे। विजय बहादुर से अपनी किसी बातचीत में एक बार नागार्जुन ने कहा था कि छंद का सही स्थानापन्न नाटकीयता ही हो सकती है। नियो मेटाफिजिकल परंपरा के सारे कवि और ब्रेख़्त इस कला में निष्णात थे। इसी परंपरा में नागार्जुन की राजनीतिक कविताएं भी पढ़ी जा सकती हैं। आपातकाल के तुरंत बाद हमारे स्कूल की तेजस्वी हिंदी शिक्षिका, विद्या दीदी वे एक नुक्कड़ नाटक तैयार करवाया था जिसमें नागार्जुन की कविता की टुकड़ियां थीं: ठीक वैसे जैसे युद्ध क्षेत्रा में सेना की टुकड़ियां होती हैं। इन सारी कविताओं में परंपरा से प्राप्त हथियार (यानी कीर्तन-कथा-मंत्रा-आरती की लय, उनकी प्रचलित शब्दावली, पारंपरिक छंद आदि) का ऐसा सबल प्रयोगात्मक उपयोग ‘सबवर्शन’ की खातिर किया गया था कि सहज याद आयीं ‘भ्रमरगीत की गोपिकाओं या ‘गाली’ गाने वाली मज़ाकिया ग्रामवधुओं की कलाμहसंते-हंसते जान निकाल लेने वाली रचना प्रतीत होने लगी। ऐसी सक्षम रचनाशीालता का उपयोग सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उत्तर बिहार के लोकगीतों में भरपूर हुआ। कई उदाहरण मुझे कंठस्थ हैं, पर फिलहाल मैं उधर न भटकरकर नागार्जुन के नाटकीय ‘सबवर्शन’ पर आती हूं, जहां परंपराप्राप्त औजार सिर के बल खड़ी पारंपरिक व्यवस्था को जीभ दिखाते नज़र आते हैं: ओं मूस की लेंड़ी, कनेर के पात, ओं डायन की चीख़, औधड़ की अटपटी बात, ओं कोयला - इस्पात - पेट्रोल ओं हमीं हम ठोस, बाकी सब फूटे ढोल। संस्कृत में कविता तक लिख सकनेवाला विद्वान कवि जान-बूझकर ऊं की वर्तनी भी बदल देता है। अरविंद ने जिस सूक्ष्मातिसूक्ष्म, संक्षिप्त ‘मंत्रा-कविता’ की अवधारणा दी थी, उसको ऐसा औधड़ विस्तार नागार्जुन ही दे सकते थे। प्रयोग की अग्नि में सारी अस्वाभाविक विसंगतियां, सारे अन्याय विसर्जित करने का जो महाबिंब मन में जगता है, उसमें विनोदवृत्ति तो है लेकिन वही गंभीर किस्म की विनोदवृत्ति जो जॉन डन के पास थी और जिसका वक्रोक्तिपूर्ण विनियोग जॉनसन ने किया है। हंसी विवेक का मुहाना है! हंसने से बुद्धि खुलती है। मानवीय व्यवहार का सबसे नाटकीय क्षण है 370 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 हंसी। हंसी धुंधलके साफ़ करती है और भीतर के जाले भी। ‘देवी के अट्टहास’ से लेकर ‘लाफ ऑफ द मेडयूसा’ तक, गोपियों के हास-परिहास से लेकर गोमा की हंसी तक हंसी थेरेपी है, ऊर्ध्वबाहु घोषणा, चुनौती सब एक साथ, और इन सबसे अलग वह संवाद का द्वार भी है। इस बात की समझ सब मैथिलों को होती है, तभी सब इतने पुरमज़ाक होते हैं। नागार्जुन और रेणुμदोनों को इसकी समझ थी। राजनीतिक कविताओं का रोष-भरा सुपर सीरयस चेहरा भारतीय जनमानस को अब ज़्यादा अपील नहीं करता! भाषणधर्मी लंबी कविताएं उनको अपील नहीं करतीं। बहुत दिन हुए भाषण सुनते। उसमें तादात्म्य जगाने के लिए उनको जरा-सा हंसाना ज़रूरी है। हंसता हुआ आदमी हीरो लगता हैμभीतर का नायक जगे, इसलिए हंसो, ‘हंसो-हंसो, जल्दी हंसो’। ‘शासन की बंदूक’, ‘बाकी बच गया अंडा’ आदि का नाटकीय व्यंग्य विद्रूप यही कहता है। अकाल, बाढ़ आदि प्राकृतिक विभीषिकाओं को निवेदित कविताएं हों या, ‘खटमल’, ‘उनको प्रणाम’, ‘देखना ओ गंगा मइया’, ‘मैं तुम्हें अपना चुम्बन दूंगा’, ‘आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी’, ‘तीनों बंदर बापू के’ और ‘हरिजन गाथा’ जैसी प्रतिबद्ध राजनीतिक कविताएं हों सबकी उत्कट न्याय भावना में कहीं भीतर ही भीतर बुद्ध की आंतरिक करुणा की धारा भी बहती है। जो अन्यायी व्यवस्था व्यंग्य विद्रूप का विषय है, उसके चट्टों-बट्टों के भीतर कहीं सोयी जो उनकी अंतरात्मा है, उसका परिष्कार होμनागार्जुन की कविता इसकी उम्मीद करती है। यही उनका ठेठ भारतीय आशावाद है जो किसी को भी रसातल नहीं भेजता, सबके उन्नयन की कामना करता है, और दुर्वृत्तियों के निवारण का प्रयास। बौद्ध दर्शन का प्रभाव हो या लोकप्रज्ञा का चमत्कार, अतिरेकों का निषेध और विरुद्धों का सामंजस्य जो अंतर्गुम्फित स्त्राीवाद की भी मूल अवधारणा है, नागार्जुन के यहां उसका परावर्तन लगातार हुआ हैμतभी मार्क्स और माओ की अंतर्राष्ट्रीयता से सहमत होते हुए भी अपने देशप्रेम का लगातार ही उन्होंने रेखांकन किया: अंतर्गुम्फित अस्मिताओं के बहुलतावादी, अनेकांतवादी विनियोग की यह एक जिंदा मिसाल है। मिथिला, तिरहुत, चंपारण और भोजपुर की कर्मठ, हंसमुख, और धान-पान- सी सुंदर स्त्रिायों का अनंत वियोग, ‘बाढ़’ की विभीषिका को निवेदित ‘गीले पांक भी दुनिया गयी है छोड़’ शीर्षक कविता की निम्नांकित पंक्तियों में अपने पूरे ध्वन्यर्थ के साथ कैसे व्यंजित है, देखते ही बात यह है। अमिधा के ठाठ का यह कवि व्यंजना की धार जब दिखाता है, अवाक कर देता है: भगवती भागीरथी- ग्रीष्म में यह हो गयी थी प्रतनु-सलिला विरहिणी की पीठ लुंठित एक वेणी-सदृश जिसको देखते ही व्यथा से अवसन्न होते रहे मेरे नेत्रा रिक्त ही था वरुण की कल-केलि का यह क्षेत्रा काकु करती रही पुल की प्रतिच्छाया, मगर यह थी मौन उस प्रतनुता से अरे, इस बाढ़ की तुलना करेगा कौन? ‘एक फांक आंख, एक फांक नाक’ (खिड़की से झांकती हुई), ‘गयी तन रीढ़’, ‘यह तुम थीं’ आदि प्रेम कविताओं के व्यंजना पक्ष पर तो एक पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। मो.: 09810737469