भारतीय वाङ्मय में षड्दर्शन / कविता भट्ट

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भारतीय दर्शन वेदों एवं तत्जनित तथा उनसे विलग समस्त दर्शन विभिन्न शाखाओं के रूप में पल्लवित होता चला गया। यह दो प्रकार का था पहला जो वेदों से सहमत था; वह आस्तिक दर्शन कहलाया। दूसरा जो वेदों से असहमत था वह नास्तिक दर्शन कहलाया। नास्तिक दर्शन तीन हैं- चार्वाक, जैन एवं बौद्ध तथा आस्तिक दर्शन छह हैं – सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा तथा वेदांत। इन्हें षड्दर्शन भी कहा जाता है। ये मानवीय चिंतन के श्रेष्ठ सार हैं। सामान्य रूप से इन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है:

सांख्य दर्शन – महर्षि कपिल द्वारा प्रणीत यह दर्शन ज्ञान को दुःख से मुक्ति हेतु आवश्यक मानता है, इनके द्वारा रचित सांख्यसूत्र इस दर्शन का मुख्या ग्रन्थ है। ईश्वरकृष्ण द्वारा रचित सांख्य कारिका, विज्ञानं भिक्षु का सांख्य प्रवचन भाष्य एवं गौड़पाद का सांख्यकारिकाभाष्य आदि भी प्रमुख ग्रन्थ हैं। यह तत्त्व मीमांसा के अंतर्गत दो तत्त्वों- प्रकृति (जड़) पदार्थ तथा पुरुष (चेतन पदार्थ या आत्मा) को सन्निहित मानता है। संख्य के अनुसार तीन प्रकार के दुःख- आध्यात्मिक (शारीरिक-मानसिक रोग से उत्त्पन्न), आधिभौतिक (अन्य प्राणियों- सांप।विच्छु आदि से उत्त्पन्न) तथा आधिदैविक (दैविक आपदा- बाढ़, भूकंप आदि से उत्त्पन्न) मात्र ज्ञान से ही निवृत्त होते हैं। इसके यह ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है की प्रकृति एवं पुरुष दोनों अलग हैं। यह ज्ञान इतना सरल नहीं इसके लिए शास्त्राध्ययन आवश्यक है। इसी दर्शन के तत्त्वमीमान्सीय आधार पर योग दर्शन का विकास हुआ।

योग दर्शन - विश्व में भारतीय दर्शन की पताका फहराने का श्रेय योग दर्शन को जाता है। इसके प्रवर्तक महर्षि पतंजलि थे। इस दर्शन का मुख्य ग्रन्थ पातंजलयोगसूत्र है, जिस पर अनेक भाष्य- व्यासकृत व्यास भाष्य तथा विज्ञानभिक्षु का योग्वार्त्तिक आदि लिखे गए । साधना को जीवन का मुख्य आधार मानने वाले योग दर्शन के आठ अभ्यास- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान एवं समाधि हैं। आज योगदर्शन को आसन आदि सहित स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अपनाया जा रहा है किन्तु इसके विस्तृत नैतिक तथा आत्मिक लक्ष्य हैं। यम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह के नैतिक आधार देते हुए यह अनुशासित व्यक्ति द्वारा अनुशासित समाज की परिकल्पना करता है। नियम- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान द्वारा यह स्वस्थ एवं परिशुद्ध व्यक्ति का अनुशासनात्मक निर्देश प्रस्तुत करता है। यह दर्शन योगसाधना द्वारा मुक्ति या कैवल्य प्राप्ति को मुख्य लक्ष्य मानता है।

न्याय दर्शन – न्याय दर्शन प्रणेता महर्षि गौतम हैं, इनके द्वारा रचित न्याय सूत्र इसका मुख्य ग्रन्थ है। वात्स्यायन का न्याय भाष्य, वाचस्पति का न्याय भाष्य तथा उद्योतकार का न्याय्वार्तिक आदि इस दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ हैं। इस दर्शन की ज्ञानमीमांसा बहुत ही समृद्ध है। यह प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाणों के द्वारा ज्ञान प्राप्ति तथा श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के द्वारा अपवर्ग या दुःख से मुक्ति की परिकल्पना को प्रस्तुत करता है।

वैशेषिक दर्शन – इस दर्शन की ज्ञान मीमांसा न्याय के समान है, तत्त्व मीमांसा अलग है। महर्षि कणाद द्वारा प्रणीत यह दर्शन अणु-परमाणु के सिद्धांत को प्रतिपादित करने के कारण यह दर्शन तत्त्व मीमान्सीय दृष्टि से श्रेष्ठ है। इस दर्शन का मुख्य ग्रन्थ महर्षि कणाद कृत वैशेषिक सूत्र है। इसके अतिरिक्त प्रशस्तपाद का पदार्थधर्म्संग्रह तथा इस पर अनेक टीकाएँ मुख्य ग्रन्थ हैं। इस दर्शन में द्रव्य, गुण तथा कर्म आदि के रूप में सात पदार्थ विवेचित किये गए। यह भौतिक ज्ञान एवं विज्ञानं का दर्शन है।

मीमांसा दर्शन – मीमांसा का शाब्दिक अर्थ है- पूजित विचार। महर्षि जैमिनी द्वारा प्रणीत यह दर्शन दुःख निवारण हेतु वैदिक कर्मकांड की पुष्टि करता है। इस दर्शन का मुख्य ग्रन्थ जैमिनी कृत जैमिनी सूत्र है, इसी पर लिखे गए शबर स्वामी का शाबर भाष्य अन्य मुख्य ग्रन्थ है। यह दर्शन प्रमाण, तत्त्व तथा धर्म विचार पर केन्द्रित है। यह दर्शन कर्मकांड द्वारा स्वर्ग जैसे लक्ष्य को प्रमुख रूप से प्रस्तुत करता है।

वेदान्त दर्शन- शंकराचार्य द्वारा प्रणीत यह दर्शन मूलतत्त्व के रूप में एक ही तत्त्व ब्रह्म की विवेचना करता है। शंकराचार्य द्वारा लिखित ब्रह्मसूत्र इसका प्रमुख ग्रन्थ है। एक तत्त्व की व्याख्या के कारन इस दर्शन को अद्वैत वेदांत भी कहा जाता है; इसी से शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि दर्शन भी विकसित हुए। इस दर्शन के अहंब्रह्मास्मि तथा तत्त्वमसि जैसे सिद्धांत प्रमुख हैं। यह ज्ञान द्वारा मुक्ति को जीवन का मुख्य लक्ष्य मानता है।

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