भारतीय व्याधियां और भारतीय नुस्खे / जयप्रकाश चौकसे

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भारतीय व्याधियां और भारतीय नुस्खे
प्रकाशन तिथि : 08 नवम्बर 2012


इम्तियाज अली 'रॉकस्टार' के बाद एक फिल्म लिख रहे हैं, जिसे सैफ अली खान निर्माण करने वाले हैं और इसमें मनोज एवं रीमा जैन के पुत्र अरमान बतौर नायक प्रस्तुत किए जाने वाले है। ज्ञातव्य है कि अरमान राज कपूर के नाती हैं और विगत तीन वर्षों से करण जौहर के सहायक निर्देशक रहे हैं। फिल्म परिवार के लोग प्राय: फिल्मों में आते हैं, जैसे डॉक्टर के बच्चे डॉक्टर बनते हैं, परंतु पारिवारिक व्यवसाय क्षेत्र से बाहर जाकर अपनी रुचि का काम करने का आनंद कुछ और ही है। इस प्रकरण को मात्र इसलिए लिखा जा रहा है कि इम्तियाज अली की सृजन प्रक्रिया को समझने का प्रयास करें।

उन्होंने युवा अरमान को किसी अभिनय प्रशिक्षण संस्थान में नहीं भेजा, वरन राजस्थान में एक सेवानिवृत्त अफसर के घर कुछ दिन बिताने का कहा तथा बाद में दिल्ली और पंजाब के एक गांव में वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह कुछ दिन रहे। अभी यह सिलसिला जारी है। अरमान को फिल्म के नायक की यात्रा के तमाम पड़ावों से पहले गुजरकर पात्र के मनोभावों को अपने हृदय में महसूस करना होगा। इस समय फिल्म उद्योग में केवल इम्तियाज अली ही इस तरह का कार्य करते हैं। उन्होंने रणबीर कपूर को भी 'रॉकस्टार' के लिए ऐसे ही तैयार किया था।

हिंदुस्तान में फिल्म विधा को सिखाने वाली संस्थाओं में प्राय: विदेशी सिनेमा के उदाहरणों के द्वारा पाश्चात्य फिल्म शैली का प्रशिक्षण देते हैं, जबकि उनके द्वारा प्रशिक्षित लोगों को भविष्य में भारतीय दर्शकों के लिए ही फिल्म बनाना है। सच तो यह है कि भारत पाठ्यक्रम का पहला विषय होना चाहिए। चीन और जापान के उन्हीं फिल्मकारों को हॉलीवुड ने अवसर दिए हैं, जिन्होंने अपने देश की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर फिल्में रची हैं।

क्या भारत को महत्व दिया जाना अब गैर-भारतीय हो चुका है। हमारी आर्थिक नीतियों पर भी पश्चिम के अर्थतंत्र की नकल को प्राथमिकता दी जा रही है। जो नीतियां अमेरिका या फ्रांस में कारगर होती हैं, वे हमारे देश में कैसे सफल हो सकती हैं? भारतीयता के प्रति इस आग्रह का राजनीतिक अनुवाद नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि भारतीयता की हिमायत का अर्थ कूपमंडूकता का समर्थन नहीं है। भारतीय सिनेमा का अपना मिजाज है और भारतीय दर्शक उससे इस कदर जुड़े हैं कि हॉलीवुड के पैर जमाने और भारतीय प्रदर्शन क्षेत्र को अपना उपनिवेश बनाने के सारे प्रयास विफल हो चुके हैं। हाल ही में प्रदर्शित जेम्स बॉन्ड शृंखला की नई फिल्म को विक्रम भट्ट की सिताराविहीन हॉरर फिल्म '१९२० इविल रिटन्र्स' ने पीट दिया है। बेंगलुरु और दक्षिण भारत के कुछ अन्य शहरों को छोड़कर सभी जगह विक्रम भट्ट की फिल्म ने जेम्स बॉन्ड फिल्म से कहीं अधिक आय अर्जित की है।

दरअसल यह सरल आधारभूत बात है कि हर देश अपनी जमीन और जलवायु के अनुरूप अपनी जीवनशैली का विकास करता है। यहां तक कि अधिक ठंडे क्षेत्रों में जानवरों की चमड़ी पर भी अतिरिक्त सतह या ज्यादा बाल होते हैं। हमने पश्चिम की डेमोक्रेसी अवधारणा का अपना स्वरूप गढ़ा है, जो अब निकम्मे लोगों के कारण विकृत हो चुका है और इसके लिए राजनीतिक दलों को ही दोष देना न्यायसंगत नहीं है। इस विकृति को रचने में आम आदमी ने भी गलतियां की हैं और व्यवस्था को दीमक लगने के गुनाह से वह बच नहीं सकता। यह भी चिंता की बात है कि व्यवस्था का विरोध करने वाले भ्रष्टाचार में आम आदमी के शामिल होने वाले पक्ष को अपनी सुविधा के लिए अनदेखा कर रहे हैं।

बहरहाल, तमाम क्षेत्रों में मौजूद समस्याओं के निदान भारत में ही मिल सकते हैं। हमने ही अपने देश से दूरी बना ली है और पश्चिम की भौंडी नकल अब प्रतिस्पद्र्धा की बात हो चुकी है। दरअसल अब अपनी जमीन से जुडऩे और उससे प्रेम करने की एक लहर की आवश्यकता है। यह भी विचारणीय है कि भारतीय उपचार विधि में घाव को उस समय तक अनदेखा करने की प्रवृत्ति है, जब तक प्रकृति स्वयं उसे नहीं भर दे। शल्य चिकित्सा हमारे यहां कभी लोकप्रिय नहीं रही। उसको और पैथोलॉजी को अनदेखा करके आयुर्वेद समय से पीछे रह गया। राजनीतिक शल्य चिकित्सा से ही हम बचते रहते हैं।

बहरहाल, इम्तियाज अली की तरह अपने नए नायक को भोगे हुए यथार्थ से निबटना होगा और यह हिंदी साहित्य से थोड़ा जुदा होना चाहिए, जिसमें यथार्थ काफ्का भोगते हैं और उसे हम लिखते हैं।