भारतीय समाज में नारीवाद / शिवप्रिय

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साँचा:GKCatShodh आमतौर पर नारीवाद को पश्चिम की उपज माना जाता है। लेकिन यह सच नहीं है, नारीवाद स्त्री की अधीन स्थिति की समझ विकसित करने की और उसे मुक्त करने के लिए विकसित हुई विचारधारा या चेतना है, इसलिए जिस समाज में भी स्त्री अधीन स्थिति में है उस समाज में नारीवाद किसी न किसी रूप में विकसित होगा ही, यह और बात है कि इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न समाजों में अलग-अलग है। भारत में भी स्त्री अधीनता के विभिन्न रूपों को ध्यान में रखते हुए नारीवाद विकसित हुआ है।

विद्वानों ने सहूलियत के लिए इसे तीन चरणों में बाँटा है - पहला चरण (1850-1915), दूसरा चरण (1915-1947, तीसरा चरण (1947 से अब तक)। (कृपया देखें - 1.रका रे-फिल्डस आफ प्रोटेस्ट : वीमेंस मूवमेंट इन इंडिया, 1999, युनिवर्सिटी आफ मिनेसोटा प्रेस 2. दी हिस्ट्री आफ डुईंग, प्रकाशन-काली फार वीमन, 1998 )

स्त्री की स्थिति पर सचेत रूप से विचार किया जाना तब शुरू हुआ जब भारत में अंग्रेजी शासन ने अपने पंख पसारने शुरू किए, अंग्रेजों ने अपने शासन को उचित ठहराने के लिए भारतीय स्त्री की दुर्दशा को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया। विधवाओं का जिंदा जलाया जाना, उनके लिए पुनर्विवाह पर पाबंदी, स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह, वेश्यावृति आदि कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन पर उन्होंने उँगली उठाई।

उनके जवाब में भारतीय बुद्धिजीवियों की ओर से दो तरह की प्रतिक्रियाएँ हुईं, एक ओर तो स्त्रियों से जुड़ी इन समस्याओं के प्रति जागरूकता दिखाकर उन्हें खत्म करने की कवायद शुरू हुई, तो दूसरी ओर यह तर्क भी प्रस्तुत किया जाने लगा कि भारत में स्त्रियों की स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं थी। मैत्रेयी और गार्गी का उदाहरण देकर यह साबित करने की कोशिश की गई कि प्राचीन भारत मे स्त्रियाँ अच्छी स्थिति में थीं, वह उनके लिए स्वर्ण युग था, यह तो विदेशी शासकों के आगमन और शासन का नतीजा था कि हिंदुओं को अपनी स्त्रियों को इस कदर बाँधने की जरूरत पड़ी। नारीवाद के इस पहले चरण में हम प्राचीन भारत का महिमामंडन और सती, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री-शिक्षा आदि को लेकर सक्रियता और कानून बनाए जाने के राज्य स्तरीय प्रयास होते पाते हैं।

सती-प्रथा - भारतीय स्त्री के जीवन से जुड़ी समस्याओं में जिस एक समस्या ने भारतीय मानस को गहराई झकझोरा वह थी सती की रीति, हालाँकि इसकी व्याप्ति इतनी नहीं थी की जितना इसे लेकर बहस-मुबाहिसा चला। चूँकि अंग्रेजों की सबसे ज्यादा पैठ बंगाली समाज के ऊँची जातियों के बीच थी इसलिए उन्हें वहाँ सती की रीति भारतीय स्त्री की दुर्दशा का सबसे बड़ा प्रतीक नजर आया। सती ही भारतीय स्त्री की स्थिति और इसलिए भारतीय सभ्यता की कसौटी मान ली गई। उनकी प्रतिक्रिया में भारत में जो सुधारक सामने आ रहे थे, जिनमें अधिकांश ऊँची जाति के थे, उन्होंने भी सती के प्रश्न को ही ज्यादा महत्व प्रदान किया, भारतीय समाज सुधारक दो वर्गों में बँटे थे, एक इसे शास्त्र-सम्मत और भारतीय संस्कृति के सार-तत्व के रूप में प्रस्तुत कर रहा था, और इसलिए इसके पक्ष में था। दूसरा धड़ा, जो इसके खिलाफ था और इसे प्रतिबंधित करने हेतु ब्रिटिश सरकार से कानून बनाने की माँग कर रहा था। इसे भारतीय संस्कृति का सार-तत्व मानने से इनकार कर रहा था। चूँकि पहला धड़ा शास्त्रों से प्रमाण जुटा रहा था इसलिए दूसरे धड़े को भी न चाहते हुए भी सती के खिलाफ एवं विधवा-पुनर्विवाह की अनुमति देते उद्धरण शास्त्रों से ही खोज कर प्रस्तुत करना पड़ रहा था। आरंभ में ब्रिटिश शासन इस तरह के किसी भी कानून निर्माण से बचता रहा, लेकिन अंततः कतिपय कारणों से उन्हें सती-उन्मूलन कानून बनाने की ओर अग्रसर होना पड़ा। इसमें दो राय नहीं कि इसके अग्रदूत राजा राममोहन राय थे। राजा राम मोहन ने तत्कालीन वायसराय विलियम बैंटिक को यह दिखाने के लिए कि सती होना आवश्यक नहीं और यह भी कि यह कोई मान्यता प्राप्त धार्मिक गतिविधि नहीं है, शास्त्रीय धार्मिक उद्धरणों को क्रमबद्ध करने की रणनीति अपनाई। यही रणनीति राममोहन राय ने अपनी पुस्तकः " ए कान्फेस बिटवीन एन एडवोकेट फार एन अपोनेंट टू दि प्रैक्टिस आफ वर्निंग विडोज अलाईव" में दर्शाया है।

सन 1829 में सती अधिनियम कानून के रूप में आया, सती के बाद जिस दूसरी समस्या ने भारतीय नारीवाद की बुनियाद तैयार की वह थी - स्त्री-शिक्षा। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक बंगाली मनीषा के बीच स्त्रियों की शिक्षा का मुद्दा आंदोलन का विषय बन गया, यह भी ईसाई-मिशनरियों द्वारा स्त्रियों की शिक्षा के लिए किये प्रयासों का प्रतिउत्तर था। लेकिन एक और बड़ा कारण उभरते मध्यवर्ग द्वारा अपनी स्त्रियों को पाश्चात्य तौर-तरीकों में ढालने की जरूरत भी था। लड़कियों के लिए पहला स्कूल ज्योतिबाराव फुले ने पूना में शुरू किया था। स्त्रियों को कैसी शिक्षा दी जानी चाहिए इस पर भी बड़ा विवाद छिड़ गया। आमतौर पर यह धारणा व्याप्त थी कि स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए कि जिससे की वे माँ और पत्नी की भूमिका को और भी बेहतर ढंग से निभा सके। इस विवाद ने तब और अधिक जोर पकड़ा जब खुद स्त्रियाँ अपने लिए प्रदान की जा रही शिक्षा के स्वरूप पर सवाल-जवाब करने लगीं।

सती और स्त्री-शिक्षा के अलावा विधवा पुनर्विवाह और बाल-विवाह भी ऐसे मसले थे जिन्हें लेकर खूब विचार-विमर्श हुए। विधवा-पुनर्विवाह का मसला वस्तुतः सती प्रथा से ही जुड़ा हुआ था, चूँकि विधवाओं को बहुत ही अधिक संयम और कठोर प्रावधानों का निर्वाह करते हुए जीना होता था इसलिए इसके डर से भी कई स्त्रियाँ सती हो जाया करती थीं, यह तर्क सती प्रथा पर चले मुबाहिसे के दौरान ही प्रस्तुत किया गया था, इसलिए सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन करने वाले को स्वभावतः विधवा पुनर्विवाह की वकालत करने की ओर अग्रसर होना ही था। जिस तरह से सती प्रथा के साथ राजा राममोहन राय का नाम जुड़ा हुआ है उसी तरह से विधवा पुनर्विवाह के साथ ईश्वरचंद विद्यासागर का नाम जुड़ा हुआ था।

बाल-विवाह के बारे में यह कहा गया कि "बाल-विवाह का घुन पूरी कौम को खाए जा रहा है"( (राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, प्रकाशन-वाणी, 2002, नई दिल्ली, पृष्ठ सं- 60)। वैसे तो सन 1860 में ही विवाह के लिए रजामंदी की उम्र दस वर्ष निर्धारित करने संबंधी कानून ब्रिटिशों द्वारा पारित कर दिया गया था, लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में बहराम जी मालाबारी द्वारा इसके विरोध में छेड़े गए आंदोलन से पहले इस तरह का कोई प्रयास नहीं हुआ था। मालाबारी के अभियान का विरोध किया गया उनकी दलीलों को नामंजूर किया गया, हिंदू संस्कृति के संरक्षण कि मुहिम में जुटे लोगों ने बाल-विवाह की रीति को संयुक्त परिवार और जाति व्यवस्था के बने रहने के लिए जरूरी माना इस बहस में स्त्रियाँ शामिल हुई तो मामला और भी गरम हो गया।

इस चरण में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्त्री के मसले को लेकर सारा वाद-विवाद अथवा सक्रियता में पुरुष प्रतिनिधित्व ही प्रधान था, इस दौरान अंग्रेजी शिक्षा पद्धति और आर्थिक स्तर पर आई तब्दीलियों ने मध्यवर्ग का निर्माण करना शुरू कर दिया था, इस वर्ग की शिक्षित स्त्रियाँ हीं आगे चल कर नारीवाद के दूसरे चरण की झंडाबरदार बनीं।

भारतीय नारीवाद का दूसरा चरण।

बीसवीं सदी के बीस का दशक भारतीय नारीवाद के सुनिश्चत आकार लेने के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है, उस समय तक राष्ट्रवाद और आजादी पुरुष-सुधारकों के एजेंडे में प्राथमिक स्थान पर आ चुके थे। स्त्री प्रश्न अब उनके लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया था, जितना कि वह उन्नीसवीं सदी के पूर्ववर्ती सुधारकों के लिए मायने रखता था। यही कारण है कि इतिहासकार और समाजशास्त्री पार्थो चटर्जी ने इसी को राष्ट्रवाद के समक्ष स्त्री-प्रश्न धुँधला पड़ जाना घोषित किया, लेकिन यह सच नहीं है, अब दरअस्ल स्त्रियों ने स्त्री प्रश्न खुद अपने हाथों में ले लिया था। इनमें वे स्त्रियाँ थीं जो अंग्रेजी पढ़ी लिखी थीं और खुद को पुरुषों से कमतर नहीं मानती थीं। आल इंडिया वीमेंस कान्फ्रेस और नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वीमन इन्हीं दिनों गठित हुए, जिनमें केवल स्त्रियों की ही भागीदारी थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि स्त्रियों को राजनैतिक तौर पर सचेत करने में महात्मा गांधी की प्रमुख भूमिका रही। इन अखिल भारतीय संगठनों के अलावा प्रांतीय स्तरों पर भी महिलाओं ने संगठन बनाए और अखिल भारतीय संगठन का समर्थन किया। इस दौरान जो प्रमुख हस्तियाँ उभरकर सामने आईं उनमें एनी बेसेंट, कमला देवी चट्टोपाध्यायाय, सरोजनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, लेडी पिरोजबाई फिरोजशाह मेहता आदि का नाम प्रमुख रुप से लिया जा सकता है।

अखिल भारतीय महिला सम्मेलन आयोजित करने का श्रेय मार्ग्रेट कुजिंस को जाता है, उन्होनें अपनी पत्रिका "स्त्री-धर्म" के माध्यम से देश भर के सभी स्त्रियों से स्त्री-शिक्षा को लेकर विचार-विमर्श करने का आह्वान किया। उनका सुझाव था - "जहाँ तक लड़कियों की शिक्षा से जुड़ी समस्याओं का सवाल है, ये भिन्न भिन्न प्रांतों तथा आबादियों में भिन्न-स्तर लिए हुई हैं, इसलिए यह जरूरी है कि प्रत्येक प्रांत एवं उसके प्रत्येक जिले में महिलाओं का एक सम्मेलन हो जो लड़कियों की शिक्षा से जुड़ी समस्याओं का अपने स्तर से हल सुझाए और अखिल भारतीय सम्मेलन में अपने प्रतिनिधि के माध्यम से उसे प्रस्तुत करे" (राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, प्रकाशन-वाणी,वर्ष- 2002, नई दिल्ली, पृष्ठ सं- 136.)

दूसरे चरण की इन स्त्री-चिंतकों और सुधारकों में जो राष्ट्रवादी एवं महिला अधिकार आंदोलन मे सक्रिय नेत्री थीं उन्होंने बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से न केवल राष्ट्रवाद से जोड़ा बल्कि स्त्री को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने की माँग का राष्ट्रवादी तर्कों से बचाव भी किया। कुछ स्त्रियों ने यह विचार व्यक्त करना शुरू कर दिया कि स्त्रियाँ अगर मुक्त होना चाहती हैं तो पुरुषों के साथ संघर्ष के लिए तैयार रहना चाहिए, उनका तर्क था कि स्त्री और पुरुष बराबर है यह समानता के सिद्धांत पर आधारित है न कि किसी की दया पर।

वीमेंस इंडियन एसोशिएसन तो महिला श्रमिकों की माँगों को उठा कर भारतीय नारीवाद में क्रांतिकारी स्वर प्रदान कर दिया। सच्चाई तो यह है कि प्रसव-अवकाश तथा लाभ दिए जाने की माँग सबसे पहले 1921 में बिहार प्रांत के जमशेदपुर में उठाई गई थी। 1920 के दशक के उत्तरार्ध में मजदूर आंदोलनों में न केवल महिलाओं की उपस्थिति थी बल्कि इनमें महिला नेतृत्व भी था। मणीबेन कारे का रेलवे मजदूरों की समाजवादी नेता के रुप में उभरना तथा उषाबाई डांगे, पार्वती भोरे के कपड़ा मजदूरों के कम्युनिस्ट नेता के रुप में आगे आना, इस तथ्य का जीवंत उदाहरण था।

शिक्षा, श्रम, पुरुषों के बराबर का अधिकार, बाल-विवाह, जैसे मुद्दों पर स्त्रियों का लामबंद होना और आवाज उठाना यह प्रमाणित करता है कि भारत में नारीवाद पुख्ता स्वरूप ले रहा था, उन पर कहीं से भी पश्चिम से प्रेरित होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि वे जिन समस्याओं को उठा रही थीं वे यहाँ के स्त्रियों के जीवन से जुड़ी समस्याएँ थीं। उन समस्याओं का निदान तलाशने के क्रम में नारीवादी चेतना भारतीय परिवेश में पनपी थी।

भारतीय नारीवाद के तीसरे चरण की शुरुआत तब हुई जब एक भारतीय राष्ट्र-राज्य के रूप में संवैधानिक प्रावधानों के जरिए पितृसत्ता के जकड़न से मुक्त करने में नाकामयाब साबित हुआ। यदि कम्युनिस्ट धड़े को छोड़ दिया जाय तो पचास और साठ का दशक भारतीय नारीवाद के लिए मौन के दशक ही रहे। कम्युनिस्ट पार्टी के माओवाद से प्रभावित तेलंगाना आंदोलन में हड़तालों तथा रैलियों में हजारों की संख्या में स्त्रियाँ शामिल हुईं, आंदोलन में नेताओं ने पत्नियों की पिटाई एवं हिंसा जैसी स्त्री समस्याओं पर भी ध्यान केंद्रित किया जो कि उस समय के हिसाब से बड़ी बात थी। लेकिन जब आंदोलन भूमिगत हो गया तब स्त्रियों को छापामार दस्ते में शामिल होने की स्वीकृति नहीं दी गई।

व्यवस्थित तौर पर सत्तर के दशक में भारतीय नारीवाद के तीसरे चरण की शुरुआत मानी जा सकती है। कुछ नारीवादी इसे संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किए जाने का परिणाम मानते हैं। तीसरे चरण में भारतीय नारीवाद को हम दो स्तरों पर एक साथ सक्रिय पाते है, पहला अकादमिक स्तर और दूसरा आंदोलन के स्तर पर। 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किए जाने का एक परिणाम स्त्री अध्ययन नाम के अनुशासन के उद्भव के रूप में हुआ। जब स्त्री-विद्वान स्त्री-अध्ययन से नहीं भी जुड़ी थीं वे भी पारंपरिक ज्ञानानुशासनों में स्त्रियों के प्रति विद्यमान पूर्वाग्रहों और उदासीनता पर सवाल उठा कर नारीवादी दृष्टि से निर्मम आलोचना करनी शुरू कर दी। इतिहास, समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र, धर्म, विज्ञान, अर्थशास्त्र, कानून, शिक्षाशास्त्र, राजनीति आदि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसकी स्त्रियों ने नारीवादी दृष्टिकोण से आलोचना न की हो और इस क्रम में नए ज्ञान का उत्पादन न किया हो।

भारतीय नारीवाद का आंदोलनात्मक स्वरूप

भारतीय नारीवाद के तीसरे चरण में जिन मुद्दों पर आंदोलन किए गए, वे थे दहेज विरोधी आंदोलन, बलात्कार और समान नागरिक संहिता।

दहेज के विरुद्ध आरंभिक विरोध हैदराबाद में सन 1975 प्रगतिशील महिला संगठन द्वारा दर्ज कराया गया, लेकिन उनका विरोध प्रदर्शन आंदोलन की शक्ल नहीं ले पाया। इसके दो वर्षों के बाद दहेज के खिलाफ दिल्ली में शुरू हुआ, चूँकि दिल्ली में दहेज के कारण होने वाली हत्या सबसे अधिक थी इसलिए दहेज विरोधी आंदोलन का केंद्र भी दिल्ली हो गया। महिला दक्षता समिति पहली संस्था थी, जिसने दहेज और दहेज संबंधी मुद्दे को उठाया परंतु स्त्री संघर्ष द्वारा चलाए गए अभियान के फलस्वरूप दहेज हत्या की चर्चा घर-घर में फैल गई। नारीवादियों के प्रयासों का एक नतीजा यह निकला कि आग लगने से होने वाली मौतों को आत्महत्या और पारिवारिक अथवा निजी मामला न मान कर उसे दहेज के कारण हुई हत्या होने की संभावना मानने के लिए पुलिस पर दवाब बढ़ता गया वरना पुलिस ऐसे मामलों में प्राथमिकी भी दर्ज नहीं करती थी। दहेज मौतों के प्रति न्यायिक प्रक्रिया भी संवेदनशील होने लगी। दिसंबर 1983 में अपराध कानून (दूसरा संशोधन) पारित किया गया, इसके तहत भारतीय दंड संहिता में नई धारा 498A जोड़ी गई, इस धारा के अंतर्गत पत्नी के विरुद्ध अत्याचार एवं हिंसा को गैर-जमानती संज्ञेय अपराध माना गया। तकनीकी तौर पर साक्ष्य जुटाने की शिकायतकर्ता की जिम्मेदारी को कम कर दिया गया। विवाह के सात वर्षों के बाद भी मरने वाली महिला के शव का पोस्टमार्टम कराना अनिवार्य कर दिया गया। सबसे रोचक बात यह रही कि दहेज एवं दहेज हिंसा के विरुद्ध चले आंदोलनों में भाग लेने वाली महिलाएँ विभिन्न विचारधारात्मक और सामाजिक पृष्ठभूमि से थीं।

बलात्कार ऐसा मसला रहा है जिसने दुनिया भर में नारीवादियों को आंदोलित किया। भारत में भी नारीवादी इस तथ्य से अनजान नहीं थीं कि जमींदार/मालिक द्वारा बलात्कार की घटनाएँ खूब होती हैं। जिस एक कांड ने नारीवादियों के बीच रोष की लहर पैदा की और देश भर में आंदोलन प्रदर्शन को जन्म दिया वह था "मथुरा बलात्कार कांड"। सत्रह अट्ठारह वर्ष की मथुरा नाम की लड़की को थाने ले जा कर पुलिस वालों ने बलात्कार किया। मथुरा के परिवार तथा ग्रामीणों के दबाव के चलते पुलिसकर्मियों पर मुकदमा तो चला पर वे निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक बरी होते चले गए, इस कारण ही महिलाओं में आक्रोश फूटा और देश भर में व्यापक पैमाने पर धरना-प्रदर्शन हुए। नतीजतन दहेजविरोधी आंदोलन के समान ही यहाँ भी कानून के स्तर पर संशोधन किए गए।

समान नागरिक संहिता

ईस्ट इंडिया कंपनी ने अलग-अलग धर्मावलंबियों के लिए उनके धर्मग्रंथों के पंडितों, मौलवियों, पादरियों आदि से विवेचना करवा कर नागरिक संहिताएँ तैयार करवाई। इसके पीछे उनकी मंशा गलत थी कि इन अलग-अलग धर्मालंबियों के स्थानीय रीति रिवाजों के पीछे धर्मग्रंथों की धार्मिक मान्यताएँ थी। इन निजी कानूनों के बन जाने से कंपनी राज में धार्मिक तथा धर्मनिरपेक्ष नागरिक तथा अपराधिक कानून का इस्तेमाल साथ-साथ किया जाने लगा। ये धर्म आधारित उभरी नागरिक संहिताएँ नई उभरती पितृसत्ता की मजबूत नींव बन गई। इनमें ऊँची जातियों में प्रचलित रीति-रिवाजों को ही मान्यता दी गई। इससे परिवार की संपत्ति पर पितृसत्ता का नियंत्रण मजबूत हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इन कानूनों को भी समाप्त करने का मुद्दा गरमाया। सांप्रदायिक ताकतों ने इन निजी कानूनों का अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने में खूब इस्तेमाल किया। संविधान के मूल अधिकारों में अल्पसंख्यकों को धार्मिक अधिकार दे दिए गए हैं। आजाद भारत में भी धर्म पर आधारित ये निजी संहिताएँ राज्य के लिए संरक्षण का मापदंड बन गई हैं। अंग्रेजों की बाँटो और राज करो की नीति तथा सांप्रदायिक ताकतों की इस नीति में अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने की रणनीति की वजह से समान नागरिक संहिता का प्रश्न कभी भी महिला अधिकार का प्रश्न नहीं बन पाया। संविधान सभा में भी समान नागरिक संहिता को मूल अधिकारों में शामिल करने का विरोध हुआ। समाधान के तौर पर इसे नीति निर्देशक तत्वों में शामिल कर लिया गया। इस प्रकार संविधान में महिलाओं के समानता के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार व निजी कानूनों के बीच सामंजस्य नहीं बन पाया। जब हिंदू कोड बिल पर बहस हो रही थी तब भी इसकी जगह समान नागरिक संहिता बनाने की माँग की गई। हिंदू कोड बिल का विरोध भी महिलाओं की समानता से परिवार की शुचिता के लिए खतरा बताकर ही हुआ। सर्वाधिक विरोध संपत्ति के अधिकार का हुआ और जो कानून में दिए गए वे विधेयक में सुझाए गए अधिकारों से बहुत कम थे। (Samita sen,Towards a Feminist Politics, The Indian Women's. Movement, in Historical perspective.देखिए - http://onlinewomeninpolitics.org/india/indian.pdf.)


भारतीय नारीवाद का अकादमिक स्वरूप

इस नए ज्ञान का सबसे बड़ा मिसाल भारतीय नारीवादी इतिहास लेखन है, उन्नीसवीं सदी में प्राचीन भारत को स्त्रियों के स्थिति के लिहाज से स्वर्ण-युग घोषित किया गया था। यह मान्यता पाठ्य-पुस्तकों के जरिये आज भी फैलाई जा रही है। नारीवादी इतिहासकारों ने इसे गलत साबित किया है इसके अलावा उन स्त्रियों को भी ढूँढ़ निकाला है जो पुरुषवादी सोच के तहत लिखे गए इतिहास के पृष्ठों में जगह नहीं पा सकीं थीं। उन्नीसवीं सदी में भारतीय नारीवाद की नींव रखी जा रही थी उसमें महान करार दिए गए पुरुष सुधारक इन ढूँढ़ ली गई स्त्रियों की तार्किकता के समक्ष बहुत पीछे नजर आने लगे है। पंडिता रमाबाई, रुकैया शेखावत सुलतान, ताराबाई शिंदे, सावित्रीबाई फूले आदि इसके सबसे बड़े उद्धाहरण हैं, उन्हें इतिहासकारों ने जगह नहीं दी थी जबकि स्त्री जीवन से जुड़ी समस्याओं पर उनके विचारों और यहाँ तक की आचरण के स्तर पर भी नामी पुरुष सुधारकगण कहीं नहीं ठहरते हैं।

भारतीय समाज जाति-व्यवस्था के कारण अन्य समाजों से भिन्न स्वरूप लिए हुए है, जाति ने न केवल इस समाज को अनूठा स्वरूप प्रदान किया है बल्कि इसने यहाँ के पितृसत्ता के गठन को भी प्रभावित किया ह॥ जाति व्यवस्था एवं पितृसत्ता के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है। इस तथ्य को भारतीय नारीवादियों ने नजरअंदाज नहीं किया भारतीय नारीवादियों ने पश्चिमी नारीवाद का अंधानुसरण नहीं किया बल्कि यहाँ की सामाजिक हकीकत को ध्यान रखते हुए, अपनी मौलिक सैद्धांतिकी विकसित करने का प्रयास किया। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की अवधारणा का भारतीय नारीवाद द्वारा विकसित किया जाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

1990 के दशक के मध्य से नारीवादी संगठनों के आपसी मतभेद काफी तेज हो गए। वामपंथी संगठनों से जुड़ी महिलाएँ मानती है कि स्वायत्त संगठनों की शहरी मध्यमवर्गीय महिलाएँ भारतीय महिला का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। जबकि नारीवादी स्वायत्त संगठन राजनीतिक दलों और मजदूर संघों की पितृसत्तात्मक चरित्र को मुख्य रोड़ा मानती हैं। इसी प्रकार आलोचकों का मानना है कि दलित महिलाओं की गैर दलित महिलाओं से (जाति दुराग्रहों के कारण) भिन्न समस्याओं पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। जाति आधारित दमन का विरोध करना दलित महिला संगठनों की ही जिम्मेदारी रही है। महिलाओं के सांप्रदायिकीकरण के सवाल पर पुष्पा भवे का विश्वास है कि महिला संगठनों के आम महिला से न जुड़ पाने की वजह से ही यह आम महिला शिवसेना जैसे सांप्रदायिक संगठनों के सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यक्रमों से जुड़ गई। शैला लोहिया नारीवादियों के ग्रामीण महिलाओं से जुड़ने की आवश्यकता बताती है। तभी आंदोलन की उच्चवर्गीय छवि टूट सकती है। समलैंगिकता के सवाल पर भी महिला आंदोलन बँटा है। हालाँकि इस बीच न्यायालय के फैसले समलैंगिकों के अधिकार के समर्थन में नहीं आए हैं। अतः कहा जा सकता है कि अपने ब्राह्मणी, शहरी तथा उच्चवर्गीय चरित्र की सीमाओं से अभी भी महिला आंदोलन को आगे का रास्ता तय करना शेष है।

भारतीय नारीवाद के प्रमुख हस्ताक्षर

कमला देवी चट्टोपाध्याय, सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, लेडी पिरोजबाई फिरोजशाह मेहता, वसंती देवी, दुर्गाबाई देशमुख, इंद्राणी चटर्जी, अरुणा आसफ अली, वीना मजुमदार, मैत्रेयी कृष्णराज, जशोधरा बागची, वंदना शिवा, मीरा कोशांबी, उमा चक्रवर्ती, लोतिका घोष, सुदेश वैद, कुमकुम संगारी, कुमकुम राय, वीना अग्रवाल, गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक, उर्वशी बुटालिया, कमला भसीन, लीला दूबे, के. शारदामणी, जे. अरुणिमा, तणिका सरकार, जैयती घोष, समिता सेन, पुष्पा भवे, शैला लोहिया आदि।