भारतीय सिनेमा का अजब-गजब मध्यांतर / जयप्रकाश चौकसे

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भारतीय सिनेमा का अजब-गजब मध्यांतर
प्रकाशन तिथि : 19 अगस्त 2014


छठे दशक की 'भुवन शोम' से समानांतर सिनेमा को मीडिया ने एक अलग फिल्म श्रेणी के रूप में प्रचारित किया जबकि कुछ लोग इसका प्रारंभ शैलेंद्र की क्लासिक 'तीसरी कसम' से मानते हैं क्योंकि उससे जुड़े बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी की बनाई फिल्मों को समानांतर फिल्में कहा गया तथा श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा ने भी इसे सशक्त बनाया। इसके पहले के काल खंडों में अनेक फिल्में ऐसी नियमित रूप से बनती रही हैं जिन्हें आप समानांतर कह सकते है। शांताराम की 'दुनिया माने' (1937), मेहबूब खान की "रोटी' (1941), चेतन आनंद की "नीचा नगर' (1946), बिमल राय की "दो बीघा जमीन', राजकपूर की "आग', "बूट पाॅलिश' और "जागते रहो' (1956) तथा गुरुदत्त की 'कागज के फूल' जैसी क्लासिक फिल्में इस समानांतर सिनेमा नामक थोथे नारे के अरसे पूर्व बनीं।

फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का श्रेणीकरण बहुत सरल है कि फिल्में केवल दो प्रकार की होती है - मनोरंजक आैर ऊबाऊ। बहरहाल इम्तियाज अली, आनंद गांधी आैर अजय बहल की प्रेरणा से निर्माता प्रीति अली, पल्लवी रोहतगी आैर राघवन भारद्वाज ने आठ फिल्में बनाकर उन्हें एक फिल्म के पैकेज के रूप में 15 अगस्त को प्रदर्शित किया परंतु 'सिंघम रिटर्न्स' की आंधी में यह तिनका जाने कहां उड़ गया। तकरीबन दस-दस मिनट की आठ फिल्मों के नाम है 'शुरुआत का इंटरवल'। आज प्रदूषित नदियों आैर भाषाओं के दौर के अनुरूप 'शुरुआत' हिंदी में आैर 'इंटरवल' अंग्रेजी में लिखा है। संभवत: नई राष्ट्रभाषा एेसे ही विकसित होगी।

ये आठों फिल्में मनोरंजक हैं आैर दर्शकों का इंतजार करते-करते धराशायी हो जाएंगी परंतु बाजारू डिजाइनर फिल्मों के अफीमची दर्शक नहीं आएंगे। इन फिल्मों का प्रस्तुतीकरण क्लासिक ट्रेजी-कामेडी अंदाज में हुआ है जिसे हम कला की अलसभोर कह सकते हैं जिसमें अंधेरा-उजाला गलबहियां करते दिखते हैं। इनमें से 'लास्ट एंथम' में संघर्षरत अभिनेता के कड़वे-मीठे अनुभव है। इसी तरह 'अयान' में रंगमंच पर प्रस्तुत रामायण के मध्यांतर में राम का पात्र करने वाला नाटक छोड़कर चला जाता है तो अन्य कलाकार परदे के पीछे प्रस्तुति को संभालने का प्रयास करते हैं।

'इंटरवल थ्रीडी' में हॉरर फिल्मों पर सार्थक व्यंग्य है आैर यह उसी ढंग की फिल्म है जिस ढंग की महान लघु कथा है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे से पूछता है कि क्या वह भूत-प्रेत में विश्वास करता है आैर विश्वास नहीं करने वाले के सामने प्रश्नकर्ता भूत की तरह अदृश्य हो जाता है। अमोल पालेकर की शाहरुख अभिनीत 'पहेली' भूत-विद्या की श्रेष्ठ फिल्म है। इसी तरह 'गेटकीपर' में रेलवे क्रॉसिंग के कर्मचारी के अकेलेपन का ब्यौरा है जो कुमार अंबुज की 'शाम' की पंक्तियों की याद ताजा करती है। पंक्तियां हैं, "एक जख्म है नीला सांवला खिलते हुए नए रूप में, एक स्वर उजास की विरलता में कांपता हुआ गहराता, तरंगों से भर गया है आकाश का मैदान, सुनसान का रिसीवर अपनी वेवलेंथ पर आवाजों को पकड़ रहा है, मद्धिम चीखों आैर भाषा के अनजान द्वीपों के किनारे, जमा हो रही है कई वर्षों की किश्तियां...।'

आठों फिल्मों का केंद्रीय विचार हिन्दुस्तानी सिनेमा का 'मध्यांतर' है। ज्ञातव्य है कि दुनिया के किसी भी देश की फिल्मों में मध्यांतर नहीं होता क्योंकि कथा को मध्यांतर के पहले बाद में नहीं बांटा जा सकता। यह केवल भारतीय फिल्मों की लंबाई के कारण नहीं है क्योंकि आजकल 100 मिनट की फिल्मों में भी मध्यांतर होता है। दरअसल सिनेमा व्यवसाय में मध्यांतर में बेचा गया पॉपकोर्न, शीतल पेय प्रदर्शन व्यवसाय की आय की रीढ़ है। मध्यांतर हमारे सामूहिक अवचेतन का कुटैव है। संपूर्णता हमारा अभीष्ट नहीं है। आधा-अधूरापन हमारी इच्छाएं हैं। हम तो सत्य को भी उसके संपूर्ण रूप में नहीं स्वीकारते। हम तो जीवन की फिल्म में भी मौज-मजे का मध्यांतर खोजते रहते हैं। हमारे मनोरंजन में भूख आैर भूख में मनोरंजन शामिल है। यह खाऊ-पिऊ देश है। मंदिर में भी प्रसाद हमारे लिए दर्शन से अधिक महत्वपूर्ण है। हमें सत्य नहीं उसके तमाशे में रुचि है, हम अनंत तमाशबीन हैं। राजकपूर अपनी 'जोकर' के अंत में कहते हैं "जाइएगा नहीं, मेरा तमाशा खत्म नहीं हुआ, यह तो मध्यांतर है'।