भारतीय / दीपक मशाल
पहली बार लन्दन गया था वो। दोस्त के घर पहुँचने के लिए पूर्वनियोजित रास्ते और तरीके से वह हवाई अड्डे से रेलवे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन से आगे का रास्ता तय कर रहा था। तभी भीड़ भरी उस ट्रेन में किसी स्टेशन से एक बुजुर्ग अँगरेज़ महिला का उसके कम्पार्टमेंट में चढ़ना हुआ। जब उन बूढ़ी महिला को कहीं बैठने को जगह ना मिली तो संस्कारवश उसने अपनी सीट से उठ कर महिला से बैठने का आग्रह किया। बदले में जब उस बूढ़ी औरत ने अंग्रेज़ी में ही कहा, 'धन्यवाद बेटा, तुम भारतीय सच में बहुत दयालु होते हो। ईश्वर तुम्हें खुश रखे' तो उसे अपनी भारतीयता पर गर्व हुआ।
ट्रेन का सफ़र तय करने के बाद उसे अंडरग्राउंड ट्यूब स्टेशन तक पहुँचने में भी कोई परेशानी नहीं हुई। सब कुछ दोस्त ने फ़ोन पर समझा दिया था इसलिए सेन्ट्रल लाइन(लन्दन की मेट्रो की एक लाइन) के प्लेटफार्म तक पहुँचने में भी देर नहीं लगी। मगर उसे यह समझ ना आया कि अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए किस दिशा से आती सेन्ट्रल लाइन ट्यूब में बैठा जाए। दोस्त ने भी सिर्फ सेन्ट्रल लाइन पकड़ने के लिए बताया था और अपना पता बता दिया था। दुर्भाग्य कि दोस्त स्टेशन का नाम बताना भूल गया और वह पूछना। प्लेटफार्म भी जमीन से ४०-५० मीटर नीचे था, जहाँ मोबाइल नेटवर्क मिलना असंभव ही था। पास से गुज़रते एक भारतीय से जब उसने पता करने की कोशिश की तो वह उसे अनदेखा कर निकल गया। एक-दो अन्य भारतीयों ने तो उसे ऐसे घूर कर देखा जैसे वह कोई भिखारी हो। अंत में जब उसे भारतीयों से उम्मीद ना रही तो एक अँगरेज़ से ही पूछना ठीक समझा, और तुरंत ही एक सज्जन गोरे व्यक्ति ने अपनी ट्रेन के छूटने की परवाह किये बिना उसकी समस्या का हल कर दिया। अब उसे भारतीयों पर शर्म आ रही थी।