भारत-यात्रा : कुछ नोट्स / मार्क ट्वेन
अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन (1835-1910) अपनी हास्य रचनाओं के लिए विश्व-विख्यात हैं। लेकिन हास्य का यह माद्दा उनकी अपनी जिन्दगी की भी सबसे बड़ी खासियत था। ‘टॉम सॉयर’ और ‘हकलबेरी फिन’ जैसे उपन्यासों का रचयिता यह लेखक पहले दर्जे का घुमक्कड़ भी था।
20 जनवरी 1896! बड़ा रोशन दिन था। यों भी बम्बई में सर्दी नहीं होती पर जाड़ों के दिन बेहद खुशनुमा होते हैं। रोशनी और गुलाबी खुनकी। ऐसे ही खुशनुमा दिन एक लहीम-शहीम, शक्ल-सूरत से आर्य दिखने वाला व्यक्ति बम्बई में उतरा। वह सफेद सूट पहने था और स्ट्रा का हैट लगाये था। वह भारत घूमने और व्याख्यान देने आया था।
यह विशिष्ट व्यक्ति कोई और नहीं, अमरीकन गद्य का पिता सैमुएल लैंगहॉर्न क्लीमेंस था जिसे पूरी दुनिया मार्क ट्वेन के नाम से जानती थी। मार्क ट्वेन के साथ उनकी पत्नी और दो पुत्रियाँ भी थीं। यह सही है कि मार्क ट्वेन यात्रा पर निकले थे, पर जिन दारुण परिस्थितियों में इस महानतम लेखक को अपने देश से विश्वयात्रा पर निकलना पड़ा, वे अब अमरीका में तो मौजूद नहीं हैं पर विश्व के विकासमान देशों में अब भी वही परिस्थितियाँ मौजूद हैं।
मैंने जुलाई 1895 में अपना घर छोड़ा और कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, दक्षिण अफ्रीका आदि के अलावा भारत भी आया। मैं इलाहाबाद भी गया और बनारस भी। कलकत्ता और दार्जिलिंग शहरों को बड़ी आत्मीयता से देखा। भारत के शहरों के कुछ भावभीने अंश :
इलाहाबाद : उन दिनों माघ मेला चल रहा था। कड़ाके की सर्दी, लाखों लोगों की भीड़, कल्पवास करते हुए लोग। धर्माधीशों के अखाड़े, गंगा के जल पर उड़ती हुई सुबह-सुबह की भाप और उधर मन्थर गति से बहती आती जमुना।
इतने लाख लोग किस आस्था के मातहत आते हैं। क्यों आते हैं, कैसे आते हैं इस माघ मेले पर! इस विराट मेले का आयोजन कैसे होता है? यदि अमरीका में यह हो तो करोड़ों डालर विज्ञापन पर खर्च करने पड़ें तब कहीं इतने लोग जमा हों, पर सुना है कि एक पैसे का हिन्दू पंचांग छपता है... या कोई पण्डित सिर्फ बता भी देता है - बस लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ गंगातट पर जमा हो जाती है।
अपार श्रद्धालु भीड़ को जनवरी की कटकटाती सर्दी में जमा होते देख आश्चर्य होता है। सचमुच यह अद्भुत है! किसी धर्म में लोगों की इतनी आस्था भी हो सकती है, इस पर तब तक विश्वास नहीं किया जा सकता जब तक आदमी खुद खुली आँखों से देख न ले। वृद्ध, बच्चे, जवान, अपंग, अन्धे, स्वस्थ-सभी तरह के लोग सैकड़ों मील की यात्रा करके चले आते हैं, बिला शिकायत, बिला अहसान के। यहाँ सब स्वतन्त्र हैं। किसी को मेले में आने का संकोच नहीं है। यह सबका मेला है, यह सब अपार प्रेम के वशीभूत होकर लोग करते हैं या भय से - मुझे नहीं मालूम पर जो भी हो, वह चाहे प्यार हो या भय, जो लाखों लोगों को यहाँ खींच लाता है - वह अद्वितीय है और अद्भुत! हम जैसे पश्चिमी लोगों की कल्पना से नितान्त परे!
बनारस : इलाहाबाद में मामूली जनता की श्रद्धा दिखाई दी पर इस अमिट श्रद्धा का स्रोत क्या है? वह कौन से नैतिक आध्यात्मिक बन्धन हैं जो इस जनता को बाँधते हैं, गहन आध्यात्मिक अनुभवों को कैसे इतना सरल कर लिया जाता है कि वे जनता तक पहुँच सकें! यह आश्चर्य की बात है। इसे अन्धविश्वास कैसे कहा जा सकता है? करोड़ों लोगों का विश्वास अन्धविश्वास कैसे हो सकता है? और फिर जो सदियों से चला आ रहा है।
बनारस का साधु : वह साधु सचमुच साधना और ज्ञान की सीमा तक पहुँच गया था, शायद यही आनन्द की स्थिति होती हो! मैं बेहद प्रभावित हुआ यह देखकर कि एक आदमी अपनी आन्तरिक शक्तियों को यहाँ तक विकसित और एकत्रित कर सकता है कि आदमी एकान्त में चला जाए, एक झोंपड़ी में रहे और पवित्र ज्ञान ग्रन्थों का अध्ययन मनन करे। नीति, नैतिकता और आत्मिक पवित्रता पर विचार करे और उसे प्राप्त भी करे।
हिन्दू धर्मशास्त्र मेरे लिए एक उलझी हुई चीज है, मेरी समझ से परे, पर हिन्दुओं में कुछ ऐसा है जो बेहद विशुद्ध है, प्रामाणिक है और विशिष्ट! हिन्दुओं के कर्मकाण्ड, परम्पराएँ और रीतिरिवाज सचमुच आकर्षण का विषय हैं।
उन साधु महात्मा को, जिनसे वे बनारस में मिले, मार्क ट्वेन ने अपनी पुस्तक ‘हकलबेरी फ़िन’ अपने हस्ताक्षर करके उन्हें दी... क्योंकि वे पुस्तकें पढ़ने में रुचि लेते थे। वे धर्मग्रन्थ पढ़ते थे और अपनी विशिष्ट वृत्ति में उन्होंने कहा - साधु-महात्मा को अगर ‘हकलबेरी फ़िन’ पुस्तक से कोई लाभ नहीं होगा, तो इतना मैं जानता हूँ कि कोई नुकसान भी नहीं होगा!
दार्जिलिंग : कलकत्ता से दार्जिलिंग जाना हुआ। दार्जिलिंग से खूबसूरत जगह दूसरी नहीं है। शान्त, सौम्य, रम्य और प्रकृति के निकट। अपराजेय हिमालय की गोद में चमकता हुआ मोती। कोहरा और उससे छनकर आती हुई सवेरे की धूप। पर्वत श्रेणियाँ और आसमान को छूते हुए पेड़। आँखमिचौली खेलते हुए जंगल और जंगलों में तरह-तरह के रंग-बिरंगे पक्षी।
दार्जिलिंग से कुछ खूबसूरत पक्षी वे अमरीका भी ले गये और अपने इस दार्जिलिंग प्रवास और छोटी-सी यात्रा के बारे में मार्क ट्वेन ने मोहासिक्त होकर लिखा -
इस धरती पर यदि सबसे खूबसूरत दिन मैंने कोई बिताया है तो वही दिन है जो दार्जिलिंग की यात्रा में बीता है... मन में ज्वार उठते थे, दिशाओं में मधुर संगीत था और प्रकृति में तल्लीनता! हिमालय की निचली श्रेणियों तक पहुँचना एक अनुभव था। जैसे सब कुछ दोषहीन था। अमलिन था और अपने में पूर्ण। सिवा इसके कि यह यात्रा-पथ सिर्फ पैंतीस मील का है... काश, यह पाँच सौ मील का होता, हजार मील का होता, अनन्त होता!
मार्क ट्वेन भारत में करीब तीन महीने रहे। इससे ज्यादा वे नहीं रुक पाये। पर वे खूब घूमे। अँग्रेजों की नजरों से उन्होंने भारत को नहीं देखा - वे अपनी दृष्टि से सब कुछ देख रहे थे और भारत की आत्मा को आत्मसात् कर रहे थे। उन दिनों भारतीय ग्रामों में पनघट एक ऐसी संस्था थी, जहाँ गाँव की हर स्त्री मिलती थी और गप्पें लड़ती थीं। बड़े-बड़े रिश्ते वहीं पनघट पर तय हो जाते थे। वचन लिये और दिये जाते थे। जब ऐसी ही किसी जगह से मार्क ट्वेन गुजरे तो उन्होंने भारतीय नारी को जिस वेश में देखा, उसके बारे में व्यक्त किया-
भारतीय नारी में बड़ी शालीनता है... इतनी उन्नत सीधी! और चाल में एक लय। सहज सुन्दरता और गरिमा से भरपूर। वक्र बाँहों में अटका हुआ घड़ा... जैसे उससे तस्वीर पूरी हो जाती हो। मुझे दुख है कि हमारे यहाँ की कामकाजी महिलाएँ भारतीय नारी की इस पूर्ण तस्वीर को सड़कों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल नहीं कर पाएँगी।
और इस व्यंग्य के बाद मार्क ट्वेन भारतीयों के बारे में भी कुछ याद करते हैं :
वे खुशदिल और धीरजवाले लोग हैं। बहुत दयालु। उनके चेहरों और तौर-तरीकों में एक प्रकृत आत्मीयता है। सहजतया भारतीयों में कोई बुरे दिल का आदमी भी हो सकता है, यह विश्वास नहीं होता। सचमुच - मुझे तो यह सोचकर ताज्जुब ही होता है कि यहाँ ठग होते थे। मन नहीं मानता कि ठग एक सच्चाई थे, लगता है वह कल्पना ही रही होगी।
भारतीय चरित्र और इतिहास, उनके रीति-रिवाज और धार्मिक विश्वास तथा विधि-विधान-पहेलियाँ प्रस्तुत करते हैं। यानी उनका सामना करना और समझना एक पहेली है। और इन्हें समझने की कोशिश की जाए, या जब कोई इन पहेलियों को समझाता है तो ये और भी उलझ जाती हैं। यानी ये पहेलियाँ ‘उस स्पष्टीकरण’ से ज्यादा सरल हैं!
भारतीय इतिहास की विरासत बहुत महान है। समस्त सभ्य दुनिया में जो चीजें शुरू हुईं उनकी शुरुआत भारत से ही हुई। पहली सभ्यता का उदय भारत में हुआ। भौतिक समृद्धि और आर्थिक सम्पन्नता का पहला युग भारत में आया। भारत हमेशा गम्भीर चिन्तकों से भरा रहा, सूक्ष्म बुद्धिवाद का स्रोत रहा। और इतना ही नहीं... इसकी खानें धातुएँ उगलती हैं, जंगल धनी हैं और धरती अमित फलदायी है...
यह देश मेरी कल्पना में अटका रहा था। इस परीदेश को मैं देखना चाहता था... एक स्वप्नदेश! एक ऐसा देश जो चाँदनी और कविता का देश है... जो हमारी उस दुनिया से, जहाँ हम रहते हैं, एक अविश्वसनीय तथ्य लगता है... और दूरवर्ती रहस्य!