भारत का 45वां अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह / जयप्रकाश चौकसे

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मुंबई एक फिल्मी सैट है
प्रकाशन तिथि : 22 नवम्बर 2014


गोवा में भारत के 45वें अंतरराष्ट्रीय समारोह के उद्घाटन समारोह में अमिताभ बच्चन का भाषण बहुत ही सधा हुआ एवं शोधपरक रहा। उन्होंने इस अवसर पर भारतीय सिनेमा के इतिहास का विहंगम दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। मसलन 1924 में प्रदर्शित 'साहूकारी पाश' से 'मदर इंडिया' तक सूदखोर महाजन के लौह शिकंजे में किसान जकड़े थे आैर इस सफर में एक पड़ाव 'दो बीघा जमीन' भी था तथा यह सिलसिला सन् 2000 में प्रदर्शित आमिर खान की 'लगान' तक चलता रहा है। उनके भाषण में देश-प्रेम की फिल्मों के बदलते हुए स्वरूप को लेकर 'रंग दे बसंती' का जिक्र किया गया। इस आेजस्वी भाषण में केंद्रीय विचार यह था कि विगत सौ वर्षों में सामाजिक परिवर्तन की झलक फिल्मों में हमेशा मौजूद रही है आैर भारतीय अवाम के दिल की धड़कन हिन्दुस्तानी सिनेमा में हर काल खंड में ध्वनित होती रही है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि चार्ली चैपलिन से प्रेरित राजकपूर ने आम आदमी की छवि का निर्वाह इतने प्रभावोत्पादक ढंग से किया कि वे हमारे सामूहिक अवचेतन का स्थायी हिस्सा बन गए। उन्होंने श्री 420, जागते रहो आैर अनाड़ी का जिक्र करते हुए शैलेंद्र का गीत भी सुनाया, "किसी की मुस्कुराहट पर हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, जीना इसी का नाम है।" उन्होंने आवारा के प्रदर्शन को मील का पत्थर कहा आैर इस फिल्म की यह नई मौलिक व्याख्या की कि आजादी के चार वर्ष पश्चात प्रदर्शित 'आवारा' के एक दृश्य में जज को भी अपराधी के कटघरे में खड़ा होना पड़ा जो इस बात का प्रतीक है- कि भारत सामंतवाद से मुक्त गणतांत्रिक देश है जहां सभी समान हैं आैर जज भी आरोप से मुक्त नहीं है। अमिताभ बच्चन ने रेखांकित किया कि भारत की सांस्कृतिक विविधता में एकता का भाव फिल्में सशक्त ढंग से प्रस्तुत करता रहा है आैर भारत का आधारभूत सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता फिल्मों में जमकर ध्वनित हुआ है आैर उन्होंने शांताराम की 'पड़ोसी' 1941 से लेकर एम.एस सथ्यू की गर्म हवा 1971 आैर 'सलीम लंगड़े पर मत रो' तक का जिक्र किया। बहरहाल इस चांद से उज्जवल भाषण में यह दाग रह गया कि उन्होंने यह जिक्र नहीं किया कि भारत में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह 1951 में नेहरू की पहल प्रेरणा से हुआ आैर उसी परम्परा के 45 वें उत्सव पर भाषण दिया जा रहा था।

हर फिल्म समारोह पर केंद्रीय सरकार आैर प्रांतीय सरकारें करोड़ों रुपए खर्च करती रही हैं आैर कुछ चुनिंदा लोग देश-विदेश की सार्थक फिल्में देखते हैं। दूरदर्शन को इन फिल्मों के अधिकार खरीद कर उन्हें टेलीविजन पर दिखाना चाहिए ताकि आम दर्शक उन्हें देख सकें। ज्ञातव्य है कि इन्हीं आम दर्शकों के कारण सिनेमा ने सौ वर्ष का सफर तय किया है। जाने यह क्यों होता है कि सारे सरकारी आयोजनों का लाभ एक छोटा वर्ग ले पाता है। कम से कम इस क्षेत्र में ताे अवाम को लाभांवित किया जा सकता है। फिल्म उत्सव में शिरकत करने का आर्थिक भार इतना अधिक है कि सारे दर्शक इसका लाभ नहीं उठा पाते।

मुझे यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि शेखर कपूर की फिल्मों के पुनरावलोकन के साथ सतीश कौशिक की फिल्मों को भी जोड़ा गया है जिन्होंने आज तक केवल कोई सार्थक फिल्म बनाई है आैर ना ही उनकी फिल्मों को व्यवसायिक सफलता मिली है। उन्होंने सबसे अधिक बजट की 'प्रेम' आैर 'रूप की रानी चोरों का राजा' जैसे हादसे रचे हैं। दरअसल तमाम क्षेत्रों में कुछ लोग प्रचार आैर व्यक्तिगत रिश्तों का लाभ उठाकर घुसपैठ कर जाते हैं। जाने कितने किस्म की घुसपैठ होती है आैर व्यवस्था की सुई से हाथी निकल जाता है परंतु दुम अटक जाती है।