भारत की आत्मा मूलतः सौम्य है / कमलेश कमल
क्या आपने यह ग़ौर किया है कि अत्यधिक सफल व्यक्ति निर्विवाद रूप से अत्यधिक ऊर्जावान् होते हैं और सौम्य होते हैं? ऊर्जावान् हों, पर शांत-प्रशांत न हों, तो बात बनती नहीं है, भटकने-बहकने का ख़तरा रहता है, अव्यवस्था, अराजकता का डर रहता है। दरअसल सौम्य रहकर ही महान् व्यक्ति अपनी ऊर्जा का समुचित तथा सकारात्मक उपयोग कर पाते हैं।
अनुभवजन्य सत्य है कि आक्रामकता में ऊर्जा अनुचित ही बाँध तोड़कर विनाश करती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में आक्रामकता को त्याज्य माना गया है। तथ्यात्मक रूप से देखें तो आक्रामकता ऊर्जा का अनुचित उद्गार है, जबकि सौम्यता है-सकारात्मकता और सर्जनशीलता कि पूर्वपीठिका।
देखा जाए तो भारत की आत्मा ही मूलतः सौम्य है और अतिवाद यहाँ कभी भी जन-स्वीकृति नहीं पा सका। यहाँ का नायक भी वही हो सकता है जिसमें समंजन की शक्ति हो, जो धीरोदात्त हो-यह एक तथ्य है।
समंजन की शक्ति और सौम्य-रूप के एक बेहतरीन उदाहरण श्रीराम हैं। श्रीराम अगर भगवान् राम हैं, तो उनमें यह शक्ति है कि उन्होंने कुलीन, आमजन, वनवासी, निषाद की क्या कहें-बानरों तक को साध लिया और यहाँ तक कि दुश्मन के सगे बंधु, विभीषण तक को साध लिया।
तो, यहाँ राम पूज्य हुए! कौन से राम? मर्यादापुरुषोत्तम राम! उनके सौम्य और शालीन रूप ने ही उन्हें जन-जन के हृदय में बिठा दिया। महाभारत भी महान् ग्रंथ है, पर पूजा तो रामचरित मानस की ही होती है। ध्यान दें कि कृष्ण तो सर्वकलाओं से परिपूर्ण थे, पर जो दर्जा इस मिट्टी ने राम को दिया, वह कृष्ण को भी नहीं दिया।
काली करालवदना भी पूजिता हैं, पर जो स्थान शक्ति के सौम्य रूपों, यथा-पार्वती और दुर्गा का है, वह काली का नहीं। पार्वती तो परिवर्तन के लिए तैयार रहीं, तभी शिव के साथ शक्ति बनीं।
बुद्ध में यही समंजन की शक्ति थी-साधु-सन्न्यासी, डकैत-लुटेरे, कुलीन, अलग-अलग वणिक श्रेणियाँ, किसान, रूपवती रानी, वेश्या सबको बुद्ध प्रभवित कर सके। साथ ही, ध्यान दें कि वे भी धीरोदात्त थे। इसलिए राजकुमार गौतम से भगवान् बुद्ध हो गए।
इसी तरह देखें तो अशोक यहाँ महान् सम्राट हुए पर उनकी महानता का पैमाना वह नहीं है, जो सिकंदर को महान् मानने का है। यहाँ महानता कलिंग विजय से नहीं, अपितु धर्मचक्रप्रवर्तन से है।
इसी तरह औरंगज़ेब का साम्राज्य अकबर से भले बड़ा हो, पर आमजन को अकबर ही प्रभावित कर सका। आज भी जोधा-अकबर, अकबर-बीरबल के किस्से, सीरियल, फ़िल्म बच्चों तथा आमजनों द्वारा पसंद किए जाते हैं। औरगजेब के किस्से क्यों नहीं, उनपर बच्चों के लिए सीरियल क्यों नहीं? यह विचारणीय है।
एक ऐतिहासिक सच्चाई यह भी है कि फ्रांसीसी यहाँ ब्रितानियों से कम सफल हुए क्योंकि वे ज़्यादा उग्र थे, आक्रामक थे। कम से कम इतिहास की पुस्तकें ऐसा ही कहती हैं और फिर उदारता या noble race का तमगा भी ब्रितानी ही ढोते थे।
आधुनिक समय में ही देखें तो भगत सिंह या खुदी राम बोस का बलिदान किसी भी अन्य महापुरुष से कम हो ही नहीं सकता, पर आमजन में जो स्वीकृति गांधी को मिली, वह उन्हें नहीं मिल सकी।
गोड्से ने गांधी की हत्या की। भारतीय संस्कृति हिंसा विरोधी है। गोड्से को चाहे कुछ कह लें, देशद्रोही तो कोई भी नहीं कह सकता, पर ध्यान देने की बात यह है कि गोड्से को क्या आमजनों ने हीरो माना? नहीं माना! क्यों? क्योंकि अतिवाद यहाँ की आत्मा नहीं है और गांधी भी जब स्वयं विचारों में और सार्वजनिक जीवन में अतिवाद और ज़िद के शिकार हुए तो यह जिन्हें पता लगा, उन्होंने उनकी भी निंदा कि ही।
कारण वही है-आमजन यहाँ सौम्य हैं व अतिवादिता को नहीं अपना सकते और किञ्चित् यही कारण है कि जैन-धर्म बौद्घ-धर्म की तुलना में कम लोकप्रिय हो सका। जैनियों की सभी चीजें अच्छी हैं, पर उतना त्याग सबके बस की बात नहीं। एक आम हिन्दू भी किसी दिगम्बर जैन मुनि को देख प्रणाम कर लेता है, पर वैसा बनने की नहीं सोचता। यही हाल नागा साधुओं का भी हुआ।
एक और तथ्य ध्यान देने योग्य है कि वामपंथ भारत में कभी गहरी पैठ नहीं बना सका। यह कभी गहरी पैठ बना भी नहीं सकता क्योंकि यह अतिवादिता पर आश्रित है जो भारतीय मन के प्रतिकूल है। यही कारण है कि हम देखते हैं कि जहाँ यह पनपा भी वहाँ भी आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।
सौम्य होने का अर्थ भीरू होना नहीं है, न ही अन्याय सहना है। इसका अर्थ है उस सीमा तक सहनशील होना जिस सीमा तक सुधार की गुंजाइश हो। राम ने सीधे रावण को नहीं मारा, पहले दूत भेजा। इसी तरह महाभारत में कृष्ण द्वारा स्वयं संधि प्रस्ताव लेकर जाना भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है। 5 ग्राम भी अगर दुर्योधन दे देता, तो महाभारत नहीं होता और
इसका दूसरा पहलू है कि जो शक्तिशाली थे, वे इतने सहनशील थे कि तब तक युद्ध नहीं छेड़ा जबतक सूई की एक नोंक के बराबर भी जमीन मिलने की कोई आश नहीं रह गई।
भारतीय फ़िल्मों को भी ग़ौर से देखने पर पता चलता है कि यहाँ नायक सबको साथ लेकर चलने की कोशिश करता है, दुःख झेलता है पर सच का साथ नहीं छोड़ता। अंत में, वह जब अन्याय का प्रतिकार करता है, तब आमजन का नायक बनता है। हमारा नायक जेम्स बांड जैसा नहीं होता जिसके लिए साधन की पवित्रता मायने नहीं रखती और जो कुछ भी करके अपने काम को पूरा करता है।
हमारा नायक चारित्रिक रूप से मज़बूत होता है और किञ्चित् सच का साथ देने के कारण ही तकलीफ़ उठता है। आप देख सकते हैं कि सिर्फ़ एक्शन या मारधाड़ वाले नायक यहाँ ज़ल्द ही नेपथ्य में चले जाते हैं, जबकि प्रेम आदि मानवीय मूल्यों को लेकर चलने वाले इंडस्ट्री पर राज करते हैं। गहराई में उतरकर देखने पर भारतीय राजनीति भी इसी पैटर्न को फॉलो करती हुई प्रतीत होती है।
लब्बोलुआब यह कि यहाँ अतिवादिता चर्चित तो हो सकती है, प्रचलित नहीं और टिकती तो बिलकुल नहीं। यहाँ की मिट्टी और आबोहवा ही कुछ ऐसी है कि यहाँ सहजता के सुमन ही खिलते हैं। सौम्यता, सौमनस्यता ही यहाँ की आत्मा है।