भारत की युद्ध फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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भारत की युद्ध फिल्में
प्रकाशन तिथि :26 सितम्बर 2016


बर्नार्ड शॉ ने अपने नाटक 'आर्म्स एंड द मैन' में सैनिक नायक का पात्र रचा है, जो युद्ध को सैनिक के अपने बचाव का कार्यकलाप मात्र मानता है। योद्धा होना भी अन्य जीवन यापन के साधन की तरह है, जो एक सवेतन किया गया कार्य है। सरहदों पर आक्रामक मौसम में जागरूकता बनाए रखनी होती है। हर सरकार के बजट का मोटा हिस्सा सेना पर खर्च किया जाता है। सियाचिन जैसे दुर्गम स्थान पर मात्र एक अंडा पहुंचाने की कीमत सोलह रुपए आती है। सरहदों को सुलगता रखना नेताअों का काम है, क्योंकि वे अपने वोट बैंक के मिथ को मजबूत करना चाहते हैं। हर युद्ध के पश्चात महंगाई आधी रात हर घर के दरवाजे पर दस्तक देती है। युद्ध में दागी गई हर गोली की कीमत अवाम ही चुकाता है। युद्ध के खर्च लिए अवाम का पेट खाली रखना पड़ता है। विनाश का खर्च विकास के बजट को लील जाता है। आटे की कीमत पर बारूद खरीदी जाती है। निदा फाज़ली ने लिखा है, 'माचिस है पहरेदार तमाम बारूदखानों पर।' दूसरे विश्व-युद्ध के हीरो माने जाने वाले विन्सटन चर्चिल ने भी कहा था कि सारे युद्ध अनावश्यक हैं और अकारण लड़े गए हैं। वेद व्यास भी कुरुक्षेत्र के बाद कहते हैं कि जब मनुष्य तर्क को तिलांजलि देता है तब युद्ध होता है। दूसरे विश्व युद्ध पर रूस, इंग्लैंड और अमेरिका ने इतनी फिल्में बनाई हैं कि पांच वर्ष चले युद्ध का दिन-प्रतिदिन का ब्योरा मिल सकता है। इस युद्ध में ब्रिटेन का मस्तिष्क, अमेरिका का पैसा लगा था परंतु सबसे अधिक रूसी लोग मारे गए। इसीलिए रूस की युद्ध फिल्मों में मानवीय मजबूरियां और करुणा जमकर उभरी है। 'बैलेड ऑफ ए सोल्जर' और 'क्रेन्स आर फ्लाइंग' युद्ध की महानतम फिल्में मानी जाती हैं। सरहद पर असाधारण वीरता दिखाने के पुरस्कार स्वरूप गोल्ड मेडल न लेकर सैनिक एक सप्ताह की छुट्‌टी मांगता है। उसके संगी साथी उसे मार्ग में आने वाले अपने परिवारों के नाम खत देने का काम सौंपते हैं। इस वापसी यात्रा में सैनिक देखता है कि जितना नुकसान उन्होंने शत्रुओं के घरों का किया है, उतनी ही तबाही उनके अपने क्षेत्रों में भी हुई है। वह अपने मित्र का एक पत्र उसकी पत्नी को देने जाता है तो उसे ज्ञात होता है कि पत्नी तवायफाना काम करके जीविका अर्जित कर रही है। वह बेवफा नहीं है, बस मजबूर है। यह सैनिक जब अपनी छुट्‌टी के सातवें दिन अपने घर के निकट पहुंचता है तो फौज का ट्रक उसे वापस सरहद पर ले जाने के लिए खड़ा है। वह अपने घर और परिवार को दूर से बस देख ही पाता है गोयाकि युद्ध के समय मिली छुट्‌टी भी कोई छुट्‌टी नहीं है। वह युद्ध के विध्वंस का नज़ारा भर देख पाता है। एक और युद्ध फिल्म 'ऑल क्वाइट ऑन फ्रंट' में कई दिनों से खंदक में लेटा योद्धा अपने सिर के ऊपर मंडराती तितली को पकड़ने के लिए खंदक से थोड़ा ही बाहर निकलता है कि शत्रु की एक गोली उसे लग जाती है।

एक लोकप्रिय उपन्यास में एक टेलीविजन चैनल एक युद्ध प्रायोजित करता है ताकि सबसे पहले वह खबर दे सके। 'सबसे पहले' की प्रतियोगिता और रेटिंग के लिए घिनौने हथकंडे रचे जाते हैं। यह भी संभव है कि आम चुनाव जीतने के लिए एक मिलीभगत का युद्ध खेला जाए। अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापार हथियार बनाना है। अत: अपने जखीरे की खपत की भी व्यवस्था उन्हें ही करनी होती है। मेरी महाभारत अवधारणा में एक व्यापारी का पात्र गढ़ा गया है, जो युद्ध की आशा में रथ, अस्त्र-शस्त्र तैयार करता है अौर श्रीकृष्ण द्वारा शांति के लिए किए गए प्रयास से आतंकित है। व्यापारी की प्रार्थना के सामने तो भगवान भी असमर्थ हो जाते हैं। भारत की एकमात्र विश्वसनीय युद्ध फिल्म चेतन आनंद की 'हकीकत' है, जिसे दरअसल रीट्रीट फिल्म कहना चाहिए, क्योंकि फौज सरहद से वापस लौट रही है। यह फिल्म पंजाब सरकार के पैसे से बनी थी। चेतन आनंद ने 'हिंदुस्तान की कसम' भी बनाई थी। जेपी दत्ता की 'बॉर्डर' एक युद्ध फिल्म है। इसकी सफलता से प्रेरित जेपी दत्ता ने तीन दर्जन सितारों के साथ 'एलओसी' बनाई, जो असफल रही, क्योंकि भव्यता रचने के प्रलोभन में निर्देशक ने भावना की गहराई को नज़रअंदाज किया।

बिमल राय ने चंद्रधर शर्मा गुलेरी की महान कथा, 'उसने कहा था' पर आधारत फिल्म बनाई थी परंतु वैष्णव कवि स्वभाव के बिमल राय के लिए युद्ध में रमना कठिन था। वे 'बंदिनी' या 'सुजाता' का दर्द रच सकते थे और ये फिल्में तो नारी हृदय के भीतर शूट की लगती हैं। केतन मेहता ने 1857 के संग्राम पर आमिर अभिनीत 'मंगल पांडे' की रचना की थी। श्याम बेनेगल ने निर्माता शशि कपूर के लिए रस्किन बांड के उपन्यास 'पिजन्स आर फ्लाइंग' पर रोचक फिल्म रची थी। फिल्म के निर्माण के पहले शशि कपूर और शबाना आज़मी की प्रेम कथा सुर्खियों में थी और फिल्म में शशि कपूर की पत्नी जैनीफर केंडल कपूर ने भी महत्वपूर्ण काम किया। दोनों महिलाएं इतनी निष्णात कलाकार रहीं कि उन्होंने व्यक्तिगत द्वंद्व और डाह का कोई असर फिल्म की गुणवत्ता पर नहीं पड़ने दिया। इसका श्रेय श्याम बेनेगल को भी जाता है, जिन्होंने अपने काम में रिश्तों को नहीं आने दिया।