भारत के इतिहास में हूण / रामचन्द्र शुक्ल
हूण एशिया की एक जाति थी जिसने ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में सारे संसार में अपना प्रताप फैलाया था। यूरोप का प्रसिद्ध इतिहास लेखक गिबन इन हूणों के विषय में लिखता है:-
“सारे यूरोप में गाथ और वेंडल नामक असभ्यों ने उपद्रव मचा रखा था। पर वे भी हूणों के सामने भागे। हूणों का जैसा प्रताप और वैभव था वैसा अधिकार वे जमा न सके। उनके विजयी दल वोल्गा नदी से लेकर डैन्यूब नदी के किनारे तक फैले थे। पर उनका जातीय बल नेताओं की परस्पर फूट से शिथिल रहा, उनका बहुत सा पराक्रम छोटी-छोटी लड़ाइयों में व्यर्थ खर्च होता था। अपनी जाति के गौरव और प्रतिष्ठा का ध्यान भी वे नहीं रखते थे और लूट की लालच से कभी-कभी अपने पराजित शत्रुओं के झंडों के नीचे होकर लड़ते थे। अटिला के राजत्वकाल में उन्होंने फिर संसार को हिला डाला। उनके आक्रमणों से एशिया और यूरोप दोनों महाद्वीपों में हलचल मच गई और रोमन साम्राज्य का पतन हुआ।”
“इन हूणों का प्रवाह चीन की सीमा से चलकर जर्मनी तक पहुँचा था। इनके जो सबसे प्रबल दल थे वे रोमन साम्राज्य की सीमाओं पर जम गए थे। कुछ दिनों तक रोमन सम्राट दान नीति का अवलम्बन करके अपने प्रदेशों की रक्षा करते रहे। पर हूण लोग जितना ही पाते गए उतना ही तंग करते गए।”
“मुंजुक का पुत्र अटिला अपने को उन प्राचीन हूणों के राजकुल का बताता था जिन्होंने कई बार चीन के बादशाहों के साथ युद्ध किया था। उसकी आकृति भी उसकी जाति के अनुरूप ही थी बड़ा सिर, गेहुँआ रंग, छोटी-छोटी धसीं हुई ऑंखें, चिपटी नाक, दाढ़ी के स्थान पर ठुठ्डी पर थोड़े बाल, चौड़े कंधे, दृढ़ और गठीला शरीर। हूणों के राजा के चेहरे से यह भाव टपकता था कि वह अपने को संसार के सारे मनुष्यों से बढ़कर समझता है। जब वह कहीं निकलता था तब क्रूरता से साथ घूरता चलता था जिसमें उसे देखते ही भय का संचार हो।”
पूर्वीय देशों में हूण
उस काल में हूणों का प्रताप एशिया में भी वैसा ही था। उनके संबंध में एक इतिहासकार लिखता है:-
“ईसा से 163 वर्ष पूर्व यूचियों ने शक लोगों को टारिम के कछार से निकाल दिया। 120 ईसवीं पूर्व यूची लोगों ने शकों को वाधीक देश से भी हटाकर वहाँ अपना अधिकार जमाया और बहुत दिनों तक वहीं उनकी राजधानी रही। ईसा से तीस वर्ष पहले यूचियों की एक शाखा क्वेंशंग ने और शाखाओं को दबाकर अपना एकाधिपत्य स्थापित किया। यही क्वेंशंग वंश रोमन इतिहास में कुशन वंश के नाम से प्रसिद्ध है। रोमन सम्राट अंटनी ने कुशन राजसभा में भी अपने दूत भेजे थे। सम्राट ऑगस्टस के समय में कुशन राजा रोम नगर में भी पहुँचे थे। क्रमश: कुशनों का प्रताप भी घट चला और एक दूसरी शाखा ने आकर उनके स्थान पर अपना अधिकार जमाया। इस शाखा को रोमन लोग 'श्वेत हूण' चीनी लोग 'येथा' और फारस वाले 'हयताल' कहते थे। यद्यपि यूची और हयताल एक ही जाति के थे पर हयताल यूचियों से कई बातों में भिन्न थे। सन् 425 ईसवीं में हयतालों ने वंक्षुनद (ऑक्सस या आमूदरिया) पार किया जिसका समाचार पहुँचते ही चारों ओर घबराहट फैल गई।”
ये हूण सबसे पहले सन् 350 ईसवीं के लगभग बादशाह शापूर के समय में फारस की पूर्वी सीमा पर पहुँचे थे। फारसी इतिहासकारों ने लिखा है कि, “शापूर ने उन्हें हराकर अपने अनुकूल संधिपत्र लिखने पर बाध्य किया”। यहाँ तक कि जब शापूर ने रोमन लोगों पर चढ़ाई की थी तब उसकी सेना में हूण लोग भी थे। सन् 425 ईसवीं के पीछे हूणों ने जब फिर वंक्षुनद पार किया तब बहराम गोर ने उन्हें हराकर फिर वंक्षुनद के पार भगा दिया। इस प्रकार थोड़े दिनों के लिए तो वे हटा दिए गए पर पारसी सीमा पर वे घनघोर घटा के समान छाए रहे और पारसी बादशाहों को बराबर तंग करते रहे। यहाँ तक कि सन् 483 ईसवीं में फारस के बादशाह फीरोज़ ने हूणों के बादशाह खुशनेवाज़ के हाथ से गहरी हार खाई और उसी लड़ाई में वह मारा भी गया। हूण्राज ने फीरोज़ के उत्तराधिकारी कुबाद से दो वर्ष तक कर वसूल किया। कुबाद और हूणों से दस वर्ष तक लड़ाई होती रही। अंत में सन् 513 में कुबाद ने उनका पूर्ण रूप से दमन किया और ईरान हूणों की बाधा से मुक्त हो गया।
भारत के इतिहास से जिन हूणों का संबंध है वे ये ही श्वेत हूण हैं। जहाँ तक पता चला है भारतवर्ष में हूण लोग पहले गुप्त सम्राट कुमारगुप्त के समय में दिखाई पड़े। कुमारगुप्त को इन हूणों के हाथ से हार खानी पड़ी जिससे गुप्त साम्राज्य की नींव ढीली पड़ गई। सन् 455 ई. में कुमारगुप्त की मृत्यु हुई और उसका पुत्र स्कन्द गुप्त सिंहासन पर बैठा। स्कन्दीगुप्त ने बर्बरों को पराजित करके अपने पराक्रम से कुछ दिनों के लिए हूण बाधा दूर कर दी। दस वर्ष पीछे अर्थात् सन् 465 ई. में हूणों ने गांधार देश (रावलपिंडी से लेकर काबुल के पास तक का प्रदेश) पर अधिकार किया। वहाँ जमकर पाँच वर्ष बाद वे फिर बढ़ने लगे और बराबर बढ़ते ही गए, क्योंकि स्ककन्द गुप्तछ के पीछे गुप्त राजाओं की शक्ति उतनी न रह गई थी। बहुत चेष्टा करने पर भी उनका बढ़ना वे न रोक सके। अंत में सन् 533 ई. के लगभग गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य और मालवराज यशोर्बमन ने या तो मिलकर या अलग-अलग हूणों को हराया। यही हूणों की बड़ी भारी पराजय हुई। इसके पीछे फिर वे न सँभल सके। भारतीय इतिहास में दो हूण राजाओं के नाम आते हैं तोरमाण और उसका पुत्र मिहिरगुल (अथवा संस्कृत लेखकों के अनुसार मिहिरकुल) इसी मिहिरगुल का नाम एक रोमन लेखक ने गोलस लिखा है। चीनी यात्री हुएन्सांग ने मिहिरगुल को एक वीर, निर्भीक और योग्य पुरुष लिखा है जिसके अधीन आसपास के राज्य थे। वह बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहता था इससे बौद्धो ने उसके यहाँ एक बकवादी आदमी लगा दिया जो उससे बुद्ध की शिक्षाओं पर वादविवाद करने लगा। इस धृष्टता पर वह इतना बिगड़ा कि उसने अपने राज्य से बौद्धो को उच्छीन्न करने की आज्ञा दी। जब वह बालादित्य के हाथ से हार खाकर अपने राज्य में लौटा तब उसने देखा कि उसका भाई उसके राजसिंहासन पर बैठ गया है। यह अवस्था देख वह काश्मीर की ओर भागा। वहाँ के राजा ने उसे शरण दी जिसका बदला उसने उलटा दिया। काश्मीर के राजा को मारकर वह कृतघ्न आप काश्मीर का राजा बन बैठा। वहाँ बौद्ध मत के विनाश का कार्य उसने फिर हाथ में लिया। उसने 1600 स्तूपों और मठों का ध्वंस किया और नौ कोटि बौद्धो का संहार। पर वह बहुत दिनों तक राज नहीं करने पाया था। थोड़े ही दिनों में अकस्मात् उसकी मृत्यु हो गई। हूएन-सांग कहता है, “जिस समय वह नरक में गया थोड़ी देर के लिए आकाश में अंधकार सा छा गया, धरती काँप उठी और गहरा अंधड़ चला” (हूएन-सांग)। हिन्दू और जैन ग्रंथो में भी मिहिरगुल ऐसा ही क्रूर और अत्याचारी कहा गया है। 1
भारतीय साहित्य में हूण
काव्यों में हूणों का जो उल्लेख मिलता है उससे इतिहास उनकी चढ़ाई आदि के संबंधों में बहुत-सी बातों का पता लगाते हैं। रघु के दिग्विजय के प्रसंग में महाकवि कालिदास ने इन हूणों का उल्लेख किया है:-
पारसीकांस्ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना।
इंद्रियाख्यानिव रिपूंस्तत्तवज्ञानेन संयमीड्ड4/60ड्ड
1. यह जान लेना आवश्यक है कि मिहिरकुल शैव सम्प्रदाय का अनुयायी था। उसकी क्रूरता की कई कथाएँ प्रसिद्ध हैं। राजतरंगिणी में लिखा है कि एक बार उसने एक हाथी को एक ऊँचे पहाड़ पर से केवल उसका चिल्लाना और छटपटाना देखने के लिए गिरवाया था। ऐसे अत्याचारी की मृत्यु से देशभर में आनंद छा गया।
यवनीमुखपद्मानां सेहे मधुमदं न स:।
बालातपमिघाब्जानामकालजलदोदय:ड्ड4/61ड्ड
संग्रामस्तुमुलस्तस्य पाश्चात्यैरश्वसाधानै:।
शर्क्ष्कूजितविज्ञेय प्रतियोधो रजस्य भूतड्ड4/62ड्ड
भल्लापवजिंतैस्तेषां शिरोभि: श्मश्रुलैर्महीम।
तस्तार सरधाव्याप्तै: स क्षौद्रपटलैरिवड्ड4/63ड्ड
अपनीतशिरस्त्राणा: शेषास्तं शरणं ययु:।
प्रणिपात प्रतिकार: संरम्भो हि महात्मनामड्ड4/64ड्ड
विनयंते स्म तद्योधा मधुभिर्विजयश्रमम।
आस्तीर्णाजिनरत्नासु द्राक्षावलय भूमिषुड्ड4/65ड्ड
तत: प्रतस्थे कौबेरीं भास्वानिव रघुर्दिशम।
शरैरुस्रौरिवोदीच्यानुद्धरिष्यन्रसानिव ड्ड4/66ड्ड
विनीताध्वश्रमास्तस्य सिंधुतीर विचेष्टनै:।
दुधावुर्वाजिन: स्कंध्ल्लग्नकु(घमकेसरानड्ड4/67ड्ड
तत्रा हूणावरोधानां भर्तृषुव्यक्त विक्रमम।
कपोल पाटलादेशि बभूव रघुचेष्टितमड्ड4/68ड्ड
कांबोजा: समरे सोढुंतस्य वीर्यमनीश्वरा:।
गजालानपरिक्लिष्टैरक्षङ्कोटै: सार्धामानताड्ड4/69ड्ड
तेषां सदश्वभूयिष्ठास्तुक्ष् द्रविणराशय:।
उपदा विविशु: शश्वन्नोत्सेका: कोसलेश्वरमड्ड4/70ड्ड
ततो गौरी गुरुं शैलमारुरोहाश्वसाधन:।
वर्धायन्निवतत्कूटानुध्दूतैधर्तुरेणुभि:ड्ड4/71ड्ड
शशंस तुल्य सत्वानां सैन्यघोषेऽप्य संभ्रमम।
गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्या अवलोकितमड्ड4/72ड्ड
भूर्जेषु मर्मरी भूता: कीचक ध्वनि हेतव:।
गंगाशीकरिणो मार्गे मरुतस्तं सिषेविरेड्ड4/73ड्ड
विशश्रमुर्निमेरुणां छाया स्वध्यास्य सैनिका:।
दृषदो वासितोत्संगा निषण्णमृगनाभिभि:ड्ड4/74ड्ड
सरलासक्त मात्तांग ग्रैवेयस्फुरितत्विष:।
आसन्नोषधयो नेतुर्नक्तमस्नेहदीपिकाड्ड4/75ड्ड
तस्योत्सृष्टनिवासेषु कंठरज्जुक्षतत्वच:।
गजवर्ष्म किरातेभ्य: शशंसुर्देवदारव:ड्ड4/76ड्ड
तत्राजन्यं रघोघोरं पर्वतीयैर्गणैरभूत।
नाराचक्षेपणीयाश्म निष्पेषोत्पतितानलमड्ड4/77ड्ड
शरैरुत्सवसंकेतांस कृत्वा विरतोत्सवान।
जयोदाहरणंवाह्नोर्गापयामास किन्नरामड्ड4/78ड्ड
परस्परेण विज्ञातस्तेषूपायनपाणिषु।
राज्ञा हिमवत: सारो राज्ञ: सारो हिमाद्रिणाड्ड4/79ड्ड
तत्राक्षोभ्यं यशोराशिं निवेश्यावरुरोह स:।
पौलस्त्यतुलित स्याद्रेशदधन इव द्दियमड्ड4/80ड्ड
ऊपर के श्लोकों में रघु की पश्चिम की ओर की चढ़ाई का वर्णन है। इस यात्रा में जिन स्थानों और मार्गो का वर्णन है वे ध्यान देने योग्य हैं। पश्चिम समुद्रतट होते हुए रघु चित्रकूट पर पहुँचे जो अवंती के पश्चिम विंध्य पर्वत के छोर पर है। यहाँ से पारसियों को जीतने के लिए रघु स्थल मार्ग से गए। वहाँ पाश्चात्य सवारों के साथ घोर युद्ध हुआ जिसमें उनके दाढ़ी वाले सिरों से पृथ्वी ढक गई। जो यवन पगड़ी उतारकर उनकी शरण में आए उन्हें रघु ने छोड़ दिया। यहाँ रघु के योद्धाओं ने दाक्ष (अंगूर) के बगीचों से घिरी हुई भूमि पर जहाँ चमड़ों के आसन बिछे हुए थे मधा(मद्य) द्वारा श्रम मिटाया। फिर उत्तर दिशा वालों को उखाड़ने के लिए रघु कुबेर की दिशा (उत्तर) में गए। सिन्धु (पाठान्तर वक्षु) नदी के किनारे लेटे हुए रघु के घोड़ों ने केसर लगे हुए कन्धो को झाड़ा। उत्तर दिशा में हूणों के साथ रघु ने जो पराक्रम दिखाया वह हूण स्त्रियों के कपोलों पर लाली के रूप में दिखाई पड़ा। कम्बोज वाले तो रघु के हाथियों के बंधनों से रगड़े हुए अखरोटों के साथ ही नम्र हुए। कम्बोज वाले अपने यहाँ के घोड़े और सुवर्ण की राशि भेंट में ले आए। वहाँ से रघु हिमालय पर चढ़े। उनके घोड़ों के टाप से उठी हुई धातु रज़ मानो शिखरों को और भी ऊँचा करती थी। मार्ग में भोजपत्रो में मर्मर शब्द करती हुई, बाँसों में सनसनाती हुई तथा गंगा के जलकणों को लिए हुए वायु सेवन किया। किरातों ने जब उनके छोड़े हुए डेरों को देखा तब उन्होंने गले की रस्सी से छिली छाल वाले देवदारों से रघु के हाथियों की ऊँचाई का अनुमान किया। इसके उपरान्त उत्सव-संकेत नामक पर्वतीय गणों के साथ घोर युद्ध हुआ। उन्हें उत्सव-हीन करके रघु ने किन्नरों से अपनी विजय के गीत गवाए। इस प्रकार हिमालय में अचल कीर्ति राशि स्थापित करके रावण के उठाए पर्वत (कैलाश) को लज्जित सा करते हुए रघु (हिमालय से) उतरे।
वर्णन की आलोचना
ऊपर जो कालिदास का वर्णन है उसपर विचार करने के पहले यह समझ रखना चाहिए कि कोई कवि जब किसी पुराने आख्यान का वर्णन करने बैठता है तब या तो परंपरा से चली आती हुई रीति का अनुसरण करता है, अर्थात् उन्ही बातों का वर्णन करता है जिनका वर्णन बराबर होता गया है, अथवा इस बात का ऐतिहासिक प्रयत्न करता है कि जिस काल का वर्णन वह कर रहा है उसी काल की प्रचलित रीति, नीति और व्यवस्था का उसमें समावेश हो, अथवा अपने वर्णन में सजीवता लाने के लिए वह अपने समय की प्रचलित व्यवस्था, रीति, नीति आदि का पुरानी से पुरानी कथा के वर्णन में भी सन्निवेश करता है। किस कवि ने कौन सा वर्णन किस भाव से लिखा है यह बात कवि के समय की प्रचलित व्यवस्था का थोड़ा बहुत ज्ञान रहने से ही निश्चित हो सकती है। कालिदास ने इतिहास, पुराण आदि का खूब अध्ययन किया था पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना वर्णन उनमें उल्लिखित व्यवस्था से बद्ध होकर नहीं किया है। रघु वैदिक युग के सम्राट थे पर कालिदास ने यह चेष्टा नहीं की है कि रघुवंश में उन्ही बातों का वर्णन आवे जिनका रघु आदि के समय में होना रामायण, महाभारत आदि से पाया जाता है। कालिदास ने अपने वर्णन में देश की उस स्थिति और रीति-नीति आदि का आभास दिया है जो उनके समय में थे। यही सिद्धांत स्थिर करके विद्वानों ने कालिदास का समय निश्चित किया है और उन्हें उस काल में रखा है जिस काल की प्रचलित रीति-नीति आदि का आभास उनकी रचनाओं में मिलता है।
कालिदास का देश वर्णन
कालिदास रघु को किन-किन देशों में किस-किस प्रकार ले गए हैं यह देखना चाहिए। कालिदास रघु को त्रिकूट से स्थल मार्ग से फारस ले गए हैं। स्थलमार्ग कहने से यह सूचित होता है कि फारस जाने का रास्ता समुद्र से भी था। यदि रघु अपरान्त (बम्बई के पास का समुद्रतट) से होकर गए तो उन्होंने विंध्य पर्वत को उसके पश्चिमी छोर पर अनूप देश के पास पार किया होगा जहाँ त्रिकूट पर्वत पड़ा होगा। यहाँ से मार्ग मरुभूमि के किनारे-किनारे आधुनिक सक्कर होता हुआ बोलन की घाटी पार करके खोजक अमराँ नाम के पहाड़ों के पास निकला होगा। फिर इन पहाड़ों की परिक्रमा करते हुए जिरिश्क जाना पड़ता होगा। वहाँ से इलमन्द नदी का किनारा पकड़े हुए दक्षिण फारस में जाने का मार्ग रहा होगा जो जरथुस्त्रा का कार्यक्षेत्र होने के कारण बहुत पवित्र माना जाता था और जिसका लगाव भारतवर्ष से बहुत कुछ था। कालिदास के वर्णन से प्रकट है कि उन्हें पारसियों और पारदों के संबंध में अच्छी जानकारी थी। इतिहास में दोनों अच्छे घुड़सवार प्रसिद्ध हैं जिसका उल्लेख कालिदास ने भी किया है। जब पारसी लोग पराजित हुए तब उन्होंने अपनी पगड़ियाँ उतार और उन्हें गले में डाल अधीनता स्वीकार की। पारसी लोग दाढ़ियाँ रखते थे इसका पता पुराने चित्रो और मूर्तियों से भी लगता है।
पारसी कों को पराजित करके रघु उत्तर की ओर बढ़े जहाँ उन्हें हूणों और काम्बोजों का सामना करना पड़ा। उत्तर से कहाँ का अभिप्राय है इसका कुछ पता 67वें श्लोक से लगता है जिसमें सिन्धु नदी पर पहुँचने का उल्लेख है। यहाँ पर 'सिन्धु' पाठ ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि रघुवंश की नौ प्राचीन प्रतियों में से छह में 'वंक्षु'1
1. वंक्षुयह वंक्षु नद अफगानिस्थान के उत्तर बदशाँ प्रदेश में है और उन पाँच नदियों (पंजाब) में है जिनसे मिलकर ऑक्सस या आमू दरिया बना है जो तुर्किस्तान की ओर जाता है। पामीर और बदखशाँ में जो अक्सु नाम की धारा है वही ऋग्वेद का प्राचीन वंक्षु है जिसका अपभ्रंश यूनानियों ने ऑक्सस किया रा. चं. शु।
पाठ है। मल्लिनाथ को भी 'सिन्धु' पाठ खटका था इसी से उन्हें अपनी टीका में 'सिन्धु' को काश्मीर की एक नदी लिखना पड़ा। पर दक्षिण पारस से उत्तर जाने पर एक बार काश्मीर के उत्तर पहुँच जाना ठीक नहीं जँचता। इससे 'वंक्षु' पाठ ही ठीक जान पड़ता है। इसी वंक्षु को यूनानियों ने ऑक्सस लिखा है और आजकल आमू दरिया कहते हैं। ऑक्सस या आमू दरिया पाँच नदियों के मेल से बना है जिनमें अक्साब और बक्शाब मुख्य है। इनके बीच के प्रदेश को अरबवाले खत्ताल और फारसवाले हयताल कहते हैं। इसी हयताल शब्द के अनुसार रोमन लोग हूणों को इफथलाइट कहते थे क्योंकि जैसा पहले कहा जा चुका है हूण लोग पहले ऑक्सस या वंक्षु नद के किनारे ही आकर जमे थे।
इसी प्रदेश से लगा हुआ पूरब की ओर बदखशाँ है जिसे ऑक्सस या वंक्षु नद घेरे हुए है। फारसी किताबों में इस प्रदेश की बड़ी महिमा लिखी है। यहाँ का लाल प्रसिद्ध था और कहते थे कि यहाँ की नदियाँ सोने की रेत बिछाती हैं। बदखशाँ और पूरब जाने पर हम वंक्षु नद के उद्गमों तक पहुँचते हैं जहाँ वक्शांब प्रदेश है जो काश्मीर की सीमा पर पड़ता है। पामीर के नीचे वंक्षु और यारखंड नदी के उद्गमों तथा काश्मीर के उत्तर गई हुई सिन्धु नदी की धारा के बीच बहुत संकीर्ण प्रदेश पड़ता है जिससे होकर पुराने समय में लोग तिब्बत और तुर्किस्तान की ओर जाते थे। वंक्षु या वक्शाब के उद्गमों तक जाने के लिए बलख होता हुआ रास्ता गया है। अस्तु, यदि कालिदास के ध्यान में कोई सड़क रही होगी तो यही बलख वाली जिससे होकर सिकंदर भी बलख में पहुँचा था। इस प्रकार कालिदास के अनुसार रघु बलख तक तो उसी रास्ते से गए होंगे जिस रास्ते सिकंदर गया। बलख से रघु पश्चिम की ओर न जाकर बदखशाँ होते हुए उत्तर पूर्व की ओर मुड़े होंगे और कुछ चलकर कम्बोज प्रदेश की सीमा पर पहुँचे होंगे। कालिदास के इस मार्ग से भारतवर्ष की उत्तर पश्चिम सीमा का आभास मिलता है जो पारदों के समय से लेकर ईसा की तीसरी क्या पाँचवीं छठीं शताब्दी तक समझी जाती थी।
काम्बोजों को जीतकर रघु ने हिमालय की चढ़ाई आरंभ की। काश्मीर के पूर्व लद्दाख होते हुए तिब्बत जाने का पुराना मार्ग है। पर उक्त प्रदेश में उस समय दरद नामक म्लेच्छ बसते थे जिनका कोई उल्लेख कालिदास ने नहीं किया है। इससे जान पड़ता है कि कालिदास रघु को पूरब की ओर से किसी दूसरे मार्ग से ले गए हैं क्योंकि 73वें श्लोक के अनुसार रघु की सेना ने गंगा के शीतल जलकण मिली हुई वायु से अपनी थकावट मिटाई थी। कैलाश के दिखाई पड़ने का भी उल्लेख है। इससे कालिदास का यही अभिप्राय जान पड़ता है कि रघु गंगोत्री और केदारनाथ के रास्ते हिमालय से उतरे।
कालिदास के वर्णन से इतना तो स्पष्ट है कि उनके समय में हूण लोगवंक्षु या ऑक्सस नदी के उत्तरी तट पर बसे थे जो ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में (जबकि एशिया और यूरोप में उनका अधिकार खूब फैला था) उनका प्रधन स्थान रहा। उस प्रदेश में हूण कब आए इस प्रश्न के साथ यह भी संशय हो सकता है कि संभव है हूणों के वहाँ बसने के पूर्व जो जाति वहाँ रहती हो उसे भारतवासी हूण कहते रहे हों। पर इसका कोई प्रमाण या आधार नहीं मिलता।
चीन के इतिहास में हूण
हूणों का नाम चीन के इतिहास के आरंभ से ही मिलने लगता है। यह जाति खास चीन के उत्तर पश्चिम कोने पर बसती थी। चीनियों में इस जाति के नाम कई रूपों में लिखे मिलते हैं पर सबका उच्चारण प्राय: एक ही सा है। हूणों का सबसे पुराना नाम ह्यून-यू मिलता है। पीछे वे ही ह्यान-युन और फिर हयंग-नू कहलाने लगे। इन सब नामों में सामान्य ध्वनि 'हुन' है जिसे लेकर फारसी वालों ने हुनू और संस्कृत वालों ने हूण किया। ये हयंग-नु तुरुष्क, मंगोल और हुनू लोगों के अगुआ थे जिन्होंने ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में सारे यूरोप और एशिया में हलचल मचा दी थी। ये अपने को 'हया' वंश का बतलाते थे जिसकी प्रतिष्ठा ईसा से 2205 वर्ष पूर्व कुन नामक मंत्री के पुत्र 'यू' ने की थी। इस वंश का सत्रह्वाँ राजा ईसा से 1766 वर्ष पूर्व अपने अत्याचारों के कारण निकाल दिया गया। उसका बेटा शुं-वेई 500 हयावंशियों के साथ चीन के उत्तरी प्रान्त में जाकर बस गया। चीनी कथाओं के अनुसार उसी शुं-वेई और उसके साथियों के वंशज हयंग-नु थे। चीन का इतिहास लिखते हुए डॉक्टर हार्थ लिखते हैं”ह्नांग-टी के समय में पहले पहल हुन-यू जाति का नाम मिलता है जो उसके राज्य के उत्तर बसती थी और जिससे उसे कई बार लड़ना पड़ा था। चीनियों के अनुसार ये हुन-यू वे ही थे जो पीछे से हयंग-नु कहलाए और चीन के बादशाओं से बराबर लड़ते आए। बात कहाँ तक ठीक है नहीं कहा जा सकता पर इतना तो अवश्य है कि चीनियों में यह जनश्रुति परंपरा से चली आती थी कि, प्राचीन काल में चीन की उत्तरी सीमा पर हुन-यू नाम की एक जाति बसती थी जिसके वंश्धर हयंग-नु या हूण थे जिनका इतिहास में इतना नाम है। इसी हयंग-नु वंश के खाँ (सरदार) ईसा से लगभग 100 वर्ष पूर्व सुग्धा राज्य (समरकंद के आसपास का प्रदेश) में बसे और आसपास की जातियों से कर वसूल करने लगे। यहीं से तातारों का पश्चिम की ओर फैलना आरंभ हुआ। और वे धीरे-धीरे यूरोप के पूर्वी भागों तक फैले।”
ईसा से छह सौ वर्ष पहले चीन साम्राज्य के सात खण्ड हो गए- शू, चाओ, वेइ, हन, यन-चाओ, त्सी, और त्सीन। इनमें से उत्तरी राज्य यन-चाओ और त्सीन (शीन या चीन) हयंग-नु के पड़ोसी थे। ईसवीं सन् से 321 वर्ष पूर्व शेष छह राज्यों ने मिलकर त्सीन राज्य पर चढ़ाई की, पर त्सीन राज्य ने उन सबको परास्त किया और त्सीन राजवंश का शी-ह्नांग -टी ही सारे चीन का एकछत्र राजा हुआ (ईसा से 246 वर्ष पूर्व)। यह बड़ा प्रतापी राजा हुआ। इसने सामन्त राज्यों की व्यवस्था तोड़ दी और भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी ओर से शासक नियुक्त करके भेजे। राज्य भर में इसने बहुत सी नहरें और सड़कें बनवाईं तथा प्रजा की सुविधा के लिए और भी बड़े-बड़े काम किए। अपने राज्य में सब प्रकार से शांति स्थापित करके शी-ह्नांग-टी ने चीन के पुराने शत्रु हयंग-नु तातारों पर चढ़ाई की जिनके आक्रमणों से चीन के लोग तंग थे। उसने चीन के बिलकुल पास बसने वाले हयंग-नु लोगों का ध्वंस किया और जो बचे उन सबको भगाकर मंगोलिया प्रदेश में कर दिया। इस प्रकार शत्रुओं का दमन करके उसने चीन साम्राज्य की सीमा बहुत बढ़ाई। सबसे भारी काम तो उसने यह किया कि हयंग-नु तातारियों की रोक के लिए कहकहा दीवार पूरी कराई जो संसार के अद्भुत पदार्थों में है। इस दीवार का बनना ईसा से 214 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था। पुरानी चाल के पंडित लोग सामन्त व्यवस्था के पक्ष में बहुत कुछ कहा करते थे और प्रमाण में प्राचीन इतिहासों के दृष्टान्त दिया करते थे। इस पर शी-ह्नांग-टी इतना बिगड़ा कि उसने अपने राज्य का सारा पुराना इतिहास नष्ट करा दिया। उसकी इस बर्बरता का बहुत कुछ प्रायश्चित उसके पुत्र ह्नेंग-टी (194-179 ईसा से पूर्व) ने किया जो भारतीय सम्राट् पुष्यमित्र और खारवेल तथा वाधीक देश (बलख) के यवन राजा मिनांडर (बौद्धो के मिलिंद) का समकालीन था।
हूण और यू-ची
शी-ह्नांग-टी के राजत्वकाल के पिछले दिनों में हयंग-नु तातारों का राजा अपने पुत्र माओं-तुन द्वारा मार डाला गया। माओं-तुन बड़ा प्रतापी हुआ। उसने अपना राज्य जापान समुद्र से लेकर यूरोप में वोल्गा नदी के किनारे तक बढ़ाया। यहीं तक नहीं, उसके पिता के समय में उत्तर चीन का जितना भाग चीनियों ने निकाल लिया था उसने 300000 सेना लेकर उस पर फिर अपना अधिकार जमा लिया। पहले कहा जा चुका है कि शी-ह्नांग-टी के पीछे उसका पुत्र ह्नेंग-टी गद्दी पर बैठा जिसने विद्या और साहित्य की बहुत उन्नति की, बहुत से पुस्तकालय खोले और अपने पिता द्वारा पहुँची हुई हानि की बहुत कुछ पूर्ति की। उसके राज्य में चारों ओर सुख शांति थी। पर हयंग-नु लोगों के आक्रमण बन्द नहीं हुए थे इससे चीन सम्राट ने उनका उच्छेद अत्यन्त आवश्यक समझा। हयंग-नु लोगों के जब चीन पर सब आक्रमण व्यर्थ हुए और वे हर बार हटा दिए गए तब उन्होंने अपना क्रोध यू-ची लोगों पर निकाला जो कं-सू राज्य के पश्चिम में पड़ते थे। यू-ची लोग अपने स्थान से एकबारगी थियान-ज्ञन पर्वत के पार तुर्किस्तान और कैस्पियन सागर के बीच के प्रदेशों में भाग दिए गए। चीनी सम्राट ने अच्छा अवसर देख यूचियों से संधि का प्रस्ताव किया जिसमें बड़ी सफलता हुई। संधि का प्रस्ताव लेकर चंग-किन नामक जो राजदूत पश्चिम गया था उसे बलख (वाधीक) तक जाना पड़ा था क्योंकि यूचियों का अधिकार उस समय बलख तक हो गया था। बलख तक पहुँचने पर उस चीनी राजदूत का ध्यान भारतवर्ष की ओर गया और बहुत से पेड़-पौधो और जन्तु तथा सभ्यता के बहुत से आचार व्यव्हार पश्चिम से चीन में गए। बू-टी (140-86 ईसा पूर्व) के समय में हयंग-नु लोगों का बल टूट गया और पूर्वी तुर्किस्तान चीन साम्राज्य के अंतर्गत हुआ। फिर तो फारस और रोम तक से चीन का व्यापार स्थापित हो गया और व्यापारी बेधड़क एक देश से दूसरे देश में जाने लगे। ईसवीं सन् के आरंभ में चीन में हान वंश (जिसमें ह्नेटी और बू-टी आदि थे) के हाथ से राज्य निकल गया। सन् 58 ई. के लगभग उसी वंश के राजा ने फिर शांति स्थापित की। उसी के पुत्र मिंग-टी के समय में अर्थात् सन् 65 ईसवीं में बौद्ध धर्म भारत से चीन पहुँचा। इसी समय के लगभग प्रसिद्ध सेनापति पन्-चाओ तुर्किस्तान में शन्शन् के राजा के पास चीन का राजदूत होकर गया जिसके प्रभाव से शन्शन्, खुतन और काशगर के राज्य चीन साम्राज्य के आज्ञानुवर्ती हुए। इसी समय से समझना चाहिए कि हयंग-नु जाति चीन के उत्तर से सब दिन के लिए भगा दी गई। अपने स्थान से हटने पर हयंग-नु लोगों से सुग्धा देश (समरकन्द के आसपास का प्रदेश) पर अधिकार किया और अलान (जो पूर्वकाल में यन-शाई कहलाते थे) लोगों को परास्त करके उनके राजा को मार डाला। यहीं से उनके दल यूरोप और एशिया के कई भागों में बढ़ते गए और हूण के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह तो हुई चीन के उत्तर में बसने वाले हयंग-नु की बात। जो हयंग-नु दक्षिण में बसे थे वे सब सन् 215 ईसवीं में चीन सम्राट के अधीन हो गए। आगे चलकर थोड़े ही दिनों में जब परस्पर विरोध के कारण चीन की शक्ति उतनी न रही तब चौथी शताब्दी में हयंग-नु लोगों ने चीन पर फिर आक्रमण किया। इस बार वे हूण के नाम से जगत्प्रसिद्ध हो गए थे, भारत की सीमा से लेकर रोमन साम्राज्य की सीमा तक वे फैले थे।
क्या हयंग-नु और हूण एक ही थे
हूणों के संबंध में तीन प्रकार के मत अब तक प्रचलित थे। कुछ लोग हयंग-नु और हूणों को एक बताते थे, कुछ लोग हूणों को तुरुष्क कहते थे और कुछ लोग मंगोल। पर अब अनेक प्रमाणों द्वारा हयंग-नु लोगों का हूण होना सिद्ध हो गया है। रोम के संत हिरनिमस का बनाया हुआ एक नक्शा लन्दन के अजायबघर में रखा है जिसमें चीन साम्राज्य की सीमा पर 'हुनिस्काइड' (हूण-शक) नाम मिलता है। यह नक्शा ईसवीं सन् 376 और 420 के बीच का बना हुआ है जबकि हूण लोग यूरोप में पहुँच चुके थे। हिरनिमस के शिष्य ओरोसियस ने एक भूगोल लिखा था जिसका अंग्रेजी में अनुवाद इंगलैंड के पुराने बादशाह आलफ्रेड ने किया था। इस भूगोल में हुनि-स्किद (हूणा-शक) नाम मिलता है। सबसे अधिक ध्यान देने की बात तो यह है कि यह नाम ओत्तारकोरा (उत्तरकुरु) के पास ही रखा गया है। ऊपर जिस नक्शे का उल्लेख हुआ है वह एक पुराने नक्शे के आधार पर बना था जिसे रोमन सम्राट ऑगस्टस ने ईसा से सात वर्ष पूर्व बनवाया था। इससे सिद्ध है कि हयंग-नु काल के रोमन लेखकों ने चीन के दीवार के पास बसने वाले हूणों का नाम सुना था, यद्यपि वे उनका इतिहास नहीं जानते थे। स्ट्रेबो ने भारतवर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है, “यवन (यूनानी) लोगों ने वाधीक देश (बलख) में विद्रोह मचवाया और इतने प्रबल हो गए कि हिन्दुस्तान और ईरान के बहुत से भागों के स्वामी हो गए। उनके राजा मिनांडर (मिलिंद) ने सिकंदर से भी अधिक जातियों को जीता। मिनांडर और डिमेट्रियस दोनों ने बहुत से देश विजय किए। उन्होंने पाटलीन (पाटल) को ही नहीं लिया बल्कि सराओस्टल (सौराष्ट्र) और सिगार्टिस पर भी अधिकार जमाया जो समुद्र तट के देश हैं। अयोलोडोरस कहता है कि बलख सारे ईरान का शिरोमणि है। उन्होंने अपना राज्य सिरीज और फ्रिनी के देशों तक बढ़ाया।”
हूण-अरण्यवासी और राक्षस
ऊपर के उद्धरण में फ्रिनी शब्द भ्रम से फानी के स्थान पर लिखा गया है, जिसका अर्थ अरण्यवासी होता है। हूणों के अरण्यवासी होने की बात गाथिक लोगों में भी प्रसिद्ध थी। गाथिक इतिहासकार कसिओडोरस के ये वाक्य और ग्रंथो में उध्दृत मिलते हैं।
“उन दिनों में हूण लोग जो पहले बहुत दिनों तक दुर्गम पर्वतों के बीच रहे, गाथ लोगों पर एकाएक टूट पड़े, और उन्हें तंग करते-करते देश से बाहर निकाल दिया और देश को अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रचंड लड़ाकू जाति की उत्पत्ति पुरानी कथाओं में इस प्रकार मिलती है।”
“गाथों के राजा फिलिमर को, जो स्कैंजा द्वीप से आकर बसे हुए जेटे लोगों पर राज करता था, जब वह स्वजातियों के दल के साथ शक देश में पहुँचा तब मालूम हुआ कि उसके दल में कुछ 'मग स्त्रियाँ' हैं। उन स्त्रियों पर अनेक प्रकार के संदेह करके उसने उन्हें अपने दल में से निकाल दिया और वे बहुत दिनों तक इधर-उधर फिरती रहीं।”
इस उदाहरण से पता चलता है कि गाथ लोग अरण्यवासी हूणों को हूण पिता और मग माता से उत्पन्न मानते थे।
मिनांडर और हूण
हयंग-नु लोगों को उस समय साधारण लोग वन-दैत्य कहते थे। पारसी लोग भी उन्हें देव ही समझते थे। प्राचीन यूनान और रोमन लोगों ने जिन्हें फानी (अरण्यवासी) लिखा है, वे ये हयंग-नु ही थे, इसका प्रमाण स्ट्रेबो के लेख से मिलता है। स्ट्रेबो के भूगोल के अनुसार मिनांडर ने ईसा से 600 वर्ष पूर्व अपना राज्य चीन की सीमा और फानी लोगों के देश तक बढ़ाया। यह पहले ही लिखा जा चुका है कि मिनांडर के समय में चीन का बादशाह ह्ने-टी था। अस्तु, आयोलोडोरस नामक वाधीकवासी यवन (यूनानी) ने अपनी पार्थिका (पारद देश के वृत्तांत) में जिस फानी राज्य का उल्लेख किया है वह हयंग-नु राज्य ही था, जिसका शासक उस समय परम प्रचंड माओन्तुन था। चीनियों के लेखों से तो इस बात का पूरा निश्चय हो जाता है। चीनी हयंग-नु लोगों को क्वै-फांग भी कहते थे। 'क्वै' शब्द का अर्थ है दैत्य या दानव। एक चीनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि 'यिन' वंश के लोग उन्हीं को क्वै फांग कहते थे जिन्हें पहले 'हान' वंश (जिसमें शी-ह्नां टी और ह्नेटी थे) के लोग हयंग-नु कहते थे। प्राचीन चीनी इतिहासकार सी-म-चंग ने भी ऐसा ही लिखा है सी-म-चंग के अनुसार यव-शोन के समय में शोन-बे कहलाते थे। 'इन' वंश के समय में उनके देश को क्वै-फांट कहते थे। 'चाओ' के समय में वे हून-यून और 'हान' वंश के समय में हयंग-नु कहलाते थे।
ऊपर के विवरणों से स्पष्ट है कि हयंग-नु लोगों को किसी समय चीनी लोग भी दैत्य दानव कहते थे और यह बात जनसाधारण के बीच फैलते-फैलते रोमन लोगों तक पहुँची। अस्तु, इसमें अब कोई संदेह नहीं रहा कि हयंग-नु और हूण को उनके पड़ोसी चीनी एक ही समझते थे।
हूणों का मातृकुल-मसाजेटे
हूणों के मातृकुल पर विचार करने से यही प्रतीत होता है कि मग स्त्रियाँ जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है जेटे जाति की थीं जो चीन के किनारे बसती थीं। यूनानी (यवन) और रोमन लेखक हूणों को मसाजेटे जाति से निकले हुए मानते थे। अमिएनस मार्सेलिनस ने तो स्पष्ट लिखा है कि हूण लोग आलन लोगों से मिलते जुलते थे जो यूरोप के डोन नदी से लेकर सिन्धु नदी तक फैले थे और पहले मसाजेटे कहलाते थे। हयंग-नु लोगों द्वारा उनके पराजित होने के पहले चीनी उन्हें अनसाई या यनसाई कहते थे। मग स्त्रियों से जो हूणों की उत्पत्ति मानी जाती थी वह इस कारण कि मग स्त्रियाँ जादू-टोना करने में प्रसिद्ध थीं। ऐसी मायाविनी स्त्रियों से हूण जैसे दैत्यों को उत्पन्न मानना स्वाभाविक ही था।
भारतीय ग्रंथो में पता
यह पहले ही कहा जा चुका है कि ओरोसियस के भूगोल में हूण-शक उत्तरकुरु के पास रहते थे। संस्कृत ग्रंथो में उत्तरकुरु जाति हिमालय के उस पार कही गई है। पुराणों में तो उत्तरकुरु विलक्षण रंगरूप के और अत्यंत दीर्घजीवी लिखे गए हैं। प्राचीन यूनानियों ने भी उनका ऐसा ही पौराणिक वर्णन किया है। पर महाभारत में उनका मनुष्य ही के रूप में वर्णन हुआ है और लिखा है कि पांडु के समय में उनके यहाँ एक स्त्री कई पति करती थी। और अधिक प्राचीन ग्रंथो की ओर जाते हैं तो उनमें उनका सीधा-सादा उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण ने लिखा है कि वे हिमालय के उस पार बसते थे। उत्तरकुरु यद्यपि देवभूमि कहा गया है पर यह भी लिखा गया है कि वशिष्ठ सत्यहव्य का शिष्य ज्ञानन्तपि अत्याराति उसे जीतना चाहता था। इसे हम किस्सा कहानी नहीं मान सकते। उत्तरकुरु के साथ ही हमें उत्तरमद्रों का उल्लेख मिलता है जिनका बहुत कुछ संबंध काम्बोजों से था। काम्बोज औपमन्यव मद्रगार का शिष्य कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में एक आख्यान है कि कुरुपांचाल ब्राह्मणों और उत्तरीय ब्राह्मणों के बीच झगड़ा हुआ जिसमें उत्तरी ब्राह्मणों की विजय हुई। आख्यान में यह भी है कि उत्तरी ब्राह्मणों की भाषा कुरुपांचालों की भाषा से मिलती जुलती थी। उनकी भाषा बहुत विशुद्ध मानी जाती थी। और बहुत से ब्राह्मण अध्ययन के लिए उत्तराखंड में जाते थे। बौद्ध कथाओं से भी यह जाना जाता है कि गांधार बहुत दिनों तक प्रधन विद्यापीठ रहा जहाँ बड़े-बड़े राजकुमार राजनीति आदि की शिक्षा के लिए जाते थे। बुद्ध के समय में कोशल के राजा प्रसेन्जित शिक्षा के लिए तक्षशिला गए थे। सिंहलद्वीप के इतिहास ग्रंथ महावंश में लिखा है कि जिस समय महास्तूप बन रहा था उस समय कुछ श्रमण एक विशेष प्रकार का पत्थर लाने के लिए उत्तरकुरु भेजे गए थे। अस्तु यदि हम उत्तरकुरु टारिम के कछार के उस स्थान को मानें जो अब चीनी तुर्किस्तान कहलाता है तो असंगत न होगा। उत्तरकुरु को चीन और भारत सीमा पर तथा हयंग-नु के पास होना चाहिए।
हुएन्सांग के वर्णन में खुतन के पश्चिम 'चूहों' का उल्लेख
हयंग-नु लोगों का स्थान यही था इसका प्रमाण हुएनसांग के वर्णन में मिलता है। लिखता है, “पुराने समय में हयंग-नु का एक सेनापति लाखों का दल लेकर इस प्रदेश (खुतन) को लूटने आया था। पर बड़े भीमकाय चूहों ने जो खुतन से कुछ दूर पर रहते थे आकर हयंग-नु के दल का बात ही बात में ध्वंस किया।”
हयंग-नु के हूण प्रदेश में पहुँचने के लिए सिता नदी पार करना पड़ता है। इसी को पुराणों में सीता लिखा है जो मेरु से निकली हुई सात पवित्र नदियों में से है। महाभारत में इसी का नाम शैलोदम लिखा है जो यूनानी और रोमन लोगों के बीच 'सिलास' के नाम से प्रसिद्ध थी। अब यह स्पष्ट हो गया कि उत्तरकुरु प्रदेश टारिम के कछार में था और जिसे आजकल तकला-मकान का रेगिस्तान कहते हैं, उसके उत्तर पश्चिम किनारे पर थियानशन पर्वत के पूर्वी ढाल की ओर पड़ता था1A
(नागरीप्रचारिणी पत्रिाका, 1919 ई.)
[ चिंतामणि, भाग-4 ]
1. Indian Antiquity में प्रकाशित प्रो. कृष्णस्वामी ऐयंगर एम. ए. के लेख का आधार।