भारत के हृदय में बसे श्रीगणेश / जयप्रकाश चौकसे

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भारत के हृदय में बसे श्रीगणेश
प्रकाशन तिथि : 10 सितम्बर 2013


लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव भारत के स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक क्रांति के एक हिस्से के रूप में प्रारंभ किया था। उनके लिए इसके धार्मिक महत्व से अधिक इसकी उपयोगिता राष्ट्रप्रेम और समाज सुधार की थी। भारतीय सिनेमा ने तिलक के ध्येय को आत्मसात करके धार्मिक आख्यानों के माध्यम से राष्ट्र चेतना जगाने वाली फिल्में गढ़ीं, मसलन द्वारकादास सम्पत की 'भक्त विदुर' में कथा महाभारत के पात्र की ही थी, परंतु 'विदुर' को महात्मा गांधी की तरह प्रस्तुत किया और वी. शांताराम ने कीचक-वध प्रसंग में कीचक को एक अंग्रेज की तरह प्रस्तुत किया। इंदौर की तरह कुछ शहरों में गणेश विसर्जन के अवसर पर निकाली जाने वाली झांकियों में समसामयिक समस्याओं को प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया जाता था। इस तरह धार्मिक उत्सव के साथ सामाजिक सोद्देश्यता जुड़ी थी और आज भी अनेक शहरों में उस परंपरा को आंशिक रूप से जीवित रखा गया है, परंतु आज बाजारशासित युग में भक्ति-भाव की जगह आडम्बर ने ले ली है।

महाराष्ट्र में तो अनेक गैर हिंदू भी गणेशोत्सव मनाते हैं। मुंबई के कुछ पारसी एवं मुसलमान भी गणपति पूजन करते हैं। फिल्म उद्योग में आरके स्टूडियो में गणेशोत्सव की परंपरा सन 1951 से आज तक जारी है और दस दिन तक 24 घंटे स्टूडियो में स्थापित गणपति दर्शन के लिए लोग आते हैं। इन दस दिनों में आरके बीस लाख से ऊपर धन खर्च करता है। सलीम खान के घर भी उत्सव मनाया जाता है। मुंबई में गणेशोत्सव में 25000 सुरक्षाकर्मी (पुलिस वाले) निरंतर सक्रिय रहते हैं। इसके अलावा 18 कंपनियां अन्य महकमों से आकर काम करती हैं। साथ ही 25000 होमगाड्र्स भी मुस्तैदी से रक्षा करते हैं। अन्य शहरों से अलग मुंबई में डेढ़ दिन, पांच दिन एवं सात तथा दस दिन के बाद विसर्जन होते हैं।

विगत दो दशकों में आर्थिक उदारवाद के पश्चात यह देखा गया है कि गणेशोत्सव मूलत: मध्यम वर्ग एवं निम्न वर्ग द्वारा अधिक उत्साह से मनाया जाता है तथा नवरात्र के लिए उत्साह मध्यम अमीर एवं श्रेष्ठी वर्ग में देखा गया है। अनेक मध्यम एवं छोटे शहरों के मनचले युवा भक्त 9 रातों के लिए नौ पोशाकें डिजाइनरों से बनवाते हैं, वहीं डांडिया रास भी अत्यधिक महंगा हो चुका है। इसी तरह देश में क्षेत्रीयता की भावना के प्रखर हो जाने को हम अपने उत्सवों में भी देख सकते हैं।

यह कैसा अजीब-सा दौर है कि हमने अपनी असुरक्षा, असंतोष, कुंठाओं और राजनीतिक पूर्वग्रहों को अपने धार्मिक उत्सवों पर लाद दिया है। हमारे अपने बौनेपन से हम अपने आराध्य की रचना भी करने लगे हैं। अब 'होली' के त्योहार को श्रेष्ठी वर्ग लगभग नहीं मनाता, क्योंकि इस दौर में कपड़े तथा आवरण अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए हैं। पहले मनुष्य कपड़े पहनता था, अब कपड़े इंसानों को पहन(ढांक) रहे हैं। चेहरा चरित्र से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।

राजेन्द्र सिंह बेदी तो दशकों पूर्व 'एक चादर मैली-सी' में लिख चुके हैं कि आर्थिक मजबूरियां नैतिकता और समाज के मानदंड तोड़ती हैं और निर्धारित भी करती हैं। अब हम देख रहे हैं कि अर्थशास्त्र ही तीज-त्योहार भी तय कर रहा है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ब्रिटिश संसद में लार्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली का भारत में प्रवेश भी इसी आधार पर स्वीकार हुआ कि इसी शिक्षाप्रणाली के माध्यम से अंग्रेजी और अंग्रेजियत भारत में स्थायी रूप से जम जाएगी। इस अनंत देश में कभी कुछ नहीं मरता, यहां तक कि अंधविश्वास और कुरीतियां भी कभी नहीं मरतीं। मैकाले साहब सही सिद्ध हुए। उनकी अंग्रेजियत स्थायी हो गई, परंतु बाजार की ताकतों ने नए उत्सव पैदा कर दिए, जैसे वेलेंटाइन-डे और 31 दिसंबर की रात का उत्सव।

प्राय: अन्याय व असमानता आधारित व्यवस्थाओं के खिलाफ क्रांतियां हुई हैं, परंतु भारत में उस तरह की क्रांति उसकी धार्मिकता के कारण संभव नहीं है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि हमारा गरीब आदमी धर्म के सहारे सारे अन्याय व असमानता सह लेता है। उसकी आस्था उसे असीमित धैर्य देती है। वह इसी आस्था के सहारे सब कुछ सह जाता है, कभी शंका नहीं करता कि कहीं यह 'आस्था' 'प्रायोजित' तो नहीं है।