भारत को क्या करना चाहिए / रामचन्द्र शुक्ल
'भारत को क्या करना चाहिए' यह प्रश्न इतना व्यापक है कि ध्यान केन्द्रित करने के लिए, इसे कई भागों में बाँटना जरूरी होगा। वास्तव में इसमें कई उपप्रश्न छिपे हैं, जैसे अपनी सामाजिक स्थिति को देखते हुए भारत को क्या करना चाहिए, अपनी राजनीतिक परिस्थिति को बदलने के लिए भारत को क्या कदम उठाने चाहिए, आदि आदि। प्रश्न का ऐसा विभाजन इसलिए भी आवश्यक है कि इसे एक अधिक व्यावहारिक सीमा में बाँधा जा सके। लेकिन यदि हमें ऐसे कार्यकर्ता मिलें, जो इस प्रश्न के अलग-अलग पहलू को हल करने में खुद को लगाएँ और सिर्फ अपने काम से ही मतलब रखें तो क्या इससे काम चल जाएगा? नहीं। किसी एक पहलू को दूसरे पर तर्जी देते वक्त, बदलते हुए समय को भी ध्यान में रखना होगा। दरअसल, हमें समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ, आंदोलनकर्ता, कवि और शिक्षाविद् सबकी एक ही साथ, एक ही समय में, जरूरत है। लेकिन इनसे भी ज्यादा जरूरत हमें ऐसे लोगों की है, जिनका काम यह देखना हो कि किसी विशेष कार्यक्षेत्र में किसी विशिष्ट अवसर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त लोग हैं या नहीं। लेकिन यहाँ जो वस्तुस्थिति है, उसे कोई भी पसन्द नहीं करेगा। बहुधा हमें किसी एक विशेष कार्यक्षेत्र से संबंध रखनेवाले ऐसे व्यक्ति मिलते हैं, जो दूसरी तरह के काम करनेवालों के बारे में बहुत हलके ढंग से बात करते हैं। किसी भी स्थिति में यह वांछनीय नहीं है। इसके विपरीत प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति द्वारा कोई विशेष परिणाम प्राप्त करने के लिए अपनाए गए तरीके के सामर्थ्य में विश्वास होना चाहिए, ऐसा विशेष परिणाम, जो आगे चलकर एक बड़े सामान्य लक्ष्य का अनिवार्य अंग होने जा रहा हो। लेकिन जिस क्रम में हमें आगे बढ़ना है, वह हमारी ऑंख से ओझल नहीं होना चाहिए। इस दिशा में की गई कोई भी गलती आगे चलकर अनंत असफलताओं को जन्म दे सकती है।
महत्व के लिहाज से जिस चीज पर हमें सबसे पहले ध्यान देना चाहिए, वह है सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम, क्योंकि इनका असर सीधे उस सामाजिक स्रोत पर पड़ता है, जहाँ से हमें प्रत्येक क्षेत्र में काम करने के लिए कार्यकर्ता प्राप्त होते हैं। यदि आप इस रचनात्मक शक्ति की उपेक्षा करेंगे, तो कायदे से आप कहीं से कुछ भी उम्मीद नहीं कर सकते। बात यह है कि किसी काम को करने के लिए पहले उपकरण खोजा जाता है, फिर हम उसके इस्तेमाल के तरीके को जानने के लिए अधीर होते हैं। यह बात हमारी समझ में और भी आसानी से आ सकेगी, अगर हम अपने समाज में व्याप्त किसी एक बुराई के प्रभाव पर ही ध्यान दें। उदाहरण के लिए बाल-विवाह को लें। इस प्रथा ने समाज के विभिन्न क्षेत्रो में जो नुकसान पहुँचाया है, उसे पूरी तरह कौन बयान कर सकता है? यह हमारे शारीरिक, मानसिक और नैतिक पतन का एकमात्र कारण है। अपने अतिरिक्त दूसरी बातों पर ध्यान देने के लिए आवश्यक शक्ति और अवकाश से हमें वंचित करके यह प्रथा हमें स्वार्थी बना देती है, और इस प्रकार हमारे अन्दर सारी राष्ट्रीय भावनाओं के विकास को अवरुद्ध कर देती है। यदि किसी स्वस्थ समाज में इस प्रथा को शुरू करके आप वहाँ उसके प्रभाव को देखें तो आपको पता चलेगा कि यह कहाँ ले जाती है। उस समाज के व्यक्ति की गतिविधियों का दायरा उसकी अक्षमता के बढ़ने के साथ साथ निश्चित रूप से सिमटता जाएगा और उसी अनुपात में उसकी गतिविधियों से प्रभावित होनेवाले लोगों की संख्या भी घटती जाएगी। परिणामत: यदि पहले उस समाज में ऐसे लोग थे, जो एक पूरे समूह का ध्यान रख सकते थे, तो अगली पीढ़ी में (इस प्रथा को लागू करने के बाद) आपको ऐसे लोग मिलेंगे, जो सिर्फ अपने परिवारों की देखभाल करने में सन्तुष्ट हैं। उससे नीचे उतरेंगे, तो आपको यह देखकर धक्का लगेगा कि बहुसंख्यक लोग अपने आपको छोड़कर और किसी चीज की चिन्ता नहीं करते।
एक शक्तिशाली समाज के निर्माण में सफल हो जाने के बाद, जिसके सदस्य कोई भी काम करने को तैयार हों, हमें उन सदस्यों को शिक्षा देने की फिक्र करनी चाहिए, ऐसी शिक्षा जो दूसरी बातों के अतिरिक्त एक उच्च उत्तारदायित्व के भाव से किसी को युक्त कर देती है और उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए ऐसे क्षेत्र प्रदान करती है, जो सलाम बजाने या मालगुजारी इकट्ठा करने के काम से बड़े होते हैं। हमें इस बात से खुशी है कि बंगाल के हमारे भाई बहुत अरसे से महसूस की जा रही इस कमी को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। शिक्षा से मेरा मतलब सामान्य महत्व के मामलों के बारे में हमारे नेताओं की राय का अशिक्षित जनता तक सम्प्रेषण भी है, ताकि अवसर आने पर उनका (अशिक्षित जनता का) सहयोग मिलने से न रह जाए। प्रत्येक ग्रामवासी को यह जानना चाहिए कि अधिक काम करने के बाद भी उसे उसके बदले में कम क्यों दिया जाता है, प्रत्येक नागरिक को यह बताया जाना चाहिए कि उसकी सेवाओं की इतनी कम माँग क्यों है, और वस्तुत: प्रत्येक भारतीय को यह साफ-साफ पता होना चाहिए कि उसका देश दिन-प्रतिदिन और गरीब क्यों होता जा रहा है? आप अगर चाहें तो इसे राजनीतिक शिक्षा भी कह सकते हैं। इस प्रकार की शिक्षा देने के लिए हमें विभिन्न तरीके और साधन अपनाने चाहिए। स्कूल और कॉलेज ही शिक्षा के एकमात्र स्थान नहीं होने चाहिए। सुविधाजनक स्थानों पर सार्वजनिक भाषणों का आयोजन करके और ऐसे लोगों को गाँवों में भेजकर, जो अशिक्षित जनता को उन्हें प्रभावित करनेवाली परिस्थितियों के बारे में समझाकर उसे काम करने का रास्ता बताएँ, हम बहुत कुछ कर सकते हैं। भारतीय जन-मानस को सामंजस्यपूर्ण धरातल पर लाने में देशी भाषा के बढ़ते हुए साहित्य की जो भूमिका है, उसकी शायद हम उपेक्षा नहीं कर सकते। यहाँ मैं ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रो से सम्बन्धित किसी विस्तार में जाने की कोई इच्छा नहीं रखता। इतना ही कहना काफी है कि इन क्षेत्रो में से किसी एक पर हम कितना ध्यान दें, यह तय करने में समय की आवश्यकता ही हमारे लिए सबसे महत्तवपूर्ण होनी चाहिए। उदाहरण के लिए भारत की आर्थिक स्थिति की माँग यह है कि किसी भी दूसरे काम से पहले उसके उद्योग धांधो का परिवर्तन और परिष्कार किया जाए और यह, जिसे हम तकनीकी शिक्षा कहते हैं, उस पर सबसे ज्यादा निर्भर करता है।
अब हम अपने काम के उस हिस्से पर आते हैं, जिससे लोग सबसे ज्यादा डरते हैं, हालाँकि इसमें इससे ज्यादा कुछ नहीं करना कि सरकार से यह कहा जाए कि वह हमसे ठीक तरह से पेश आए और ऐसे कदम उठाए, जो प्रगति की दिशा में हमें थोड़ा भी आगे ले जा सकें, न कि हमारे रास्ते में बाधा बन जाएँ। दुख की बात यह है कि हमारी भारत सरकार के कुछ अपने अजीबो-गरीब पूर्वग्रह हैं। कुछ लोग इन्ही के मुताबिक चलना पसन्द करते हैं। वे ऐसे सौभाग्यशाली लोग हैं, जिन्हें 'स्वर्ग के साम्राज्य में अकेले प्रवेश मिलेगा।' ये सौभाग्यशाली लोग अपनी सारी विशिष्टताएं खो बैठते हैं और अंतत: उस परम सत्ता के साथ एकाकार हो जाते हैं। इस तरह हिन्दूओं की अवधारणा के अनुसार वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं! अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, तो ब्रिटिश सरकार जनता के बीच बदनाम होकर रहेगी। यदि हमारी सरकार शान्ति और सन्तोष चाहती है, तो उसे ऐसी नीति और लक्ष्य को अपनाना होगा, जो उसके पिछले चरित्र से कतई अलग हो। हमारे विचारों के खिलाफ ब्रिटिश लोग जो सबसे सामान्य दलील पेश करते हैं, वह यह है कि वे (हमारे विचार) जनता के विचार नहीं हैं। हमारे नेताओं को बहुत ही चालाकी भरे ढंग से 'लाखों लाख लोगों का स्वघोषित प्रतिनिधि' कहा जाता है। पहले मुझे यह पूछने की इजाज़त दीजिए कि सार्वजनिक मामलों में हमें किन लोगों की राय नहीं लेनी चाहिए। क्या वे ऐसे लोग नहीं हैं, (1) जिन्हें आपने अपने खास मकसद के लिए सारी चीजों से अनजान रखा है और (2) जो आपके पूर्वग्रहों से फायदा उठा लेने के हर मौके की तलाश में रहते हैं? पहली किस्म के लोगों का अपना कोई मत नहीं होता। उनके विपरीत दूसरी किस्म के लोग अपना मत रखने का दावा करते हैं, लेकिन वे संख्या में और बौधिक दृष्टि से इतने उपेक्षणीय हैं कि हमारे आन्दोलनों के चरित्र की प्रतिनिधित्व में कोई सन्देह पैदा नहीं कर सकते। जहाँ तक हम देख पाए हैं, साम्राज्यवाद ही भारत में ब्रिटिश राष्ट्र की नीति की प्रेरक शक्ति रहा है। उन्होंने (ब्रिटिश) यह हाल कर रखा है, कि भारतीय प्रशासन में उनकी अपनी ब्रिटिश परिकल्पना का एक रेशा भी नहीं दिखाई देता। इसमें शक नहीं कि वे रूप को सुरक्षित रखते हैं लेकिन वे उसके सार-तत्व को खत्म कर देते हैं। हमारे पास म्युन्सिपल बोर्ड हैं, लेजिस्लेटिव काउंसिल हैं, क्या नहीं है? लेकिन दिखावे के अलावा उनका और कोई मकसद भी है? हमारा प्रशासनिक जगत् ऐसा क्षेत्र नहीं रह गया है, जहाँ प्रतियोगिता के लिए कोई जगह हो, जिसमें योग्यता की जाँच का कोई मौका हो। शिक्षा को इसके दरवाजे पर दुत्कार मिलती है, गुण को इसके कमरों से खारिज़ा कर दिया जाता है। यह बनावटीपन और चालाकी की दुनिया है। यहाँ सिर्फ 'अनुभव' की जरूरत है, जो सलाम बजाने और 'हुजू़र' के हुक्म को दोहराने का ही दूसरा नाम है। जिस आदमी के पास यह योग्यता नहीं, वह कितना ही विद्वान् क्यों न हो, उसे यहाँ प्रवेश नहीं मिल सकता। हमारे अफ़सरों पर, खा़सकर जिला अफसरों पर ज्यादा से ज्यादा लोगों के मुँह से 'हुजूर' सुनने की सनक इस बुरी हद तक सवार हो गई है कि वे किसी देशी आदमी को अंगरेजी में बोलते हुए भी बर्दाश्त नहीं कर पाते, अगर वह कम से कम उनको सुनाने के लिए खुशामदी बातें न करता हो। ऊपर जो बात कही गई, वह मुख्य तौर पर यह दिखाने के लिए कि राजकीय मान्यता को उच्चतर उपलब्धियों के लिए प्रेरक नहीं माना जा सकता। हमें अपना पुरस्कार कहीं और खोजना होगा। हमें इसे या तो ईमानदार दिलों में खोजना चाहिए, या फिर अगर हम पैसे के स्वार्थ से काम करते हों, तो बटुओं में खोजना चाहिए। यदि आप योग्य हैं, तो हमारे कवि आप का यश गाएँगे, हमारी जनता खुली बाँहों से आपका स्वागत करेगी, हमारी स्त्रियाँ आप पर फूल बरसाएँगी या यदि बुरी स्थितियों में फँस गए हैं, तो आपके लिए ऑंसू बहाएँगी। आप जहाँ भी जाएँगे, आपके साथ एक सच्चा और राष्ट्रीय उत्साह का सागर चलेगा, जो झूठे और बनावटी उत्साह के विरुद्ध होता है। आपकी एक झलक पाने को लोग बेचैन रहेंगे। क्या मानवीय अह्मं की पुष्टि के लिए यह पर्याप्त नहीं है?
जब इस प्रकार हम शिक्षा के दायरे को बढ़ाकर और ज्यादा लोगों को सुसंस्कृत बना लेंगे, तब अपनी योजना को सफल बनाने के लिए हमें ऐसे उपाय करने होंगे, जिनसे लोग अपने जीवन में आगे बढ़ सकें। यह तो तय है कि उन सारे लोगों को हमारी कचहरीयाँ रोजगार नहीं दे सकेंगी। ऐसी स्थिति में उनकी सेवाओं का उपयोग करने के लिए और उन्हें इनका मूल्य देने के लिए हमें उद्योग और शिक्षा के विभिन्न केन्द्र खोलने होंगे। कितने ही ज्यादा लोग क्यों न हों, काम हमेशा उनके लिए काफी होना चाहिए।
इस दिशा में स्वदेशी आंदोलन द्वारा एक प्रयास किया गया है। यह लाखों लोगों को भूखमरी से बचाने के लिए और नियमित रोजगार के अभाव में भटक रहे लाखों लोगों को काम देने के उद्देश्य से चलाया गया आंदोलन है। इसके मूल में कोई दुर्भावना या कोई बदले की भावना काम नहीं कर रही। यह एकदम शुद्ध और निश्छल है, इसलिए इसके साथ बरिसाल* वाला सुलूक नहीं किया जा सकता। हम सहानुभूति की भावना से प्रेरित हैं। सदाशय क्रिश्चन भाइयो, क्या हम आप से भी ऐसी ही उम्मीद करें? क्या आप मानवता के नाम पर मदद के लिए हाथ बढ़ाएँगे? या यह कहेंगे कि “हमें किसी भी दूसरी चीज की परवाह नहीं। हम सिर्फ अपना 'बटुआ' भरना चाहते हैं?” “भरते रहो और भूखे मरते रहो” क्या यही आपका शासक सिद्धांत होगा? आज तक हम अपने कर्तव्य के प्रति ऑंखें मूंदे हुए थे। अब हम उसके प्रति सजग हो गए हैं। इस क्षण में जो हमारे साथ हैं, वे हमारे दोस्त हैं, जो खुद को अलग रखे हुए हैं, वे उदासीन हैं, और जो हमारी मुखालिफत करते हैं, वे हमारे दुश्मन हैं। मेरे देशवासियों, जो इलाज आपने खोजा है, वही एकमात्र इलाज है, उसे दृढ़ता से पकड़े रहिए। अपनी पकड़ ढीली न होने दीजिए, वरना वह हमेशा के लिए हाथ से निकल जाएगा और फिर आपका विनाश सुनिश्चित हो जाएगा। अपने दुश्मनों को अपने बारे में यह कहने का मौका न दीजिए, “उनका सोचना ज्यादातर एक छूत की बीमारी की तरह होता है। वे किसी मत को ऐसे पकड़ते हैं, जैसे उन्हें सर्दी लगी हो। और जब तक यह दौरा उन पर रहता है, तब तक इसके अलावा छोटी या बड़ी कोई भी दूसरी चीज ऐसी नहीं होती, जिसे लेकर वे इतना भयानक गर्जन-तर्जन करें। लेकिन दौरा गुजरने के एक घंटे के अन्दर ही वे सब कुछ भूलकर बैठ जाते हैं।”
(हिन्दुस्तान रिव्यू, फरवरी, 1907 ई.)
अनुवादक-अपूर्वानन्द
(आलोचना, जुलाई-सित., 1985 ई.) -- दक्षिणी बांग्ला देश में गंगा के मुहाने पर स्थित बंदरगाह। (संपादक)