भारत में किसान-आंदोलन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
बहुत लोगों का खयाल है कि हमारे देश में किसानों का आंदोलन बिलकुल नया और कुछ खुराफाती दिमागों की उपज मात्र है। वे मानते हैं कि यह मुट्ठीभर पढ़े-लिखे बदमाशों का पेशा और उनकी लीडरी का साधन मात्र है। उनके जानते भोलेभाले किसानों को बरगला-बहकाकर थोड़े से सफेदपोश और फटेहाल बाबू अपना उल्लू सीधा करने पर तुले बैठे हैं। इसीलिए यह किसान-सभाओं एवं किसान-आंदोलन का तूफाने बदतमीजी बरपा है, यह उनकी हरकतें बेजा जारी हैं। यह भी नहीं कि केवल स्वार्थी और नादान जमींदार-मालगुजार या उनके पृष्ठ-पोषक ऐसी बातें करते हों। कांग्रेस के कुछ चोटी के नेता और देश के रहनुमा भी ऐसा ही मानते हैं। उन्हें किसान-सभा की जरूरत ही महसूस नहीं होती। वे किसान-आंदोलन को राष्ट्रीय स्वातंत्रय के संग्राम में रोड़ा समझते हैं। फलतः इनका विरोध भी प्रयत्क्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं।
परंतु ऐसी धारणा भ्रांत तथा निर्मूल है। भारतीय किसानों का आंदोलन प्राचीन है, बहुत पुराना है। दरअसल इस आंदोलन के बारे में लिपि-बद्ध वर्णन का अभाव एक बड़ी त्रुटि है। यदि सौ-सवा सौ साल से पहले की बात देखें तो हमारे यहाँ मुश्किल से इस आंदोलन की बात कहीं लिखी-लिखाई मिलेगी। इसकी वजहें अनेक हैं, जिन पर विचार करने का मौका यहाँ नहीं है। जब यूरोपीय देशों में किसान-आंदोलन पुराना है, तो कोई वजह नहीं है कि यहाँ भी वैसा ही न हो। किसानों की दशा सर्वत्र एक सी ही रही है आज से पचास-सौ साल पहले। जमींदारों और सूदखोरों ने उन्हें सर्वत्र बुरी तरह सताया है और सरकार भी इन उत्पीड़कों का ही साथ देती रही है। फलतः किसानों के विद्रोह सर्वत्र होते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य में─1850 में─शोषितों के मसीहा फ्रेड्रिक एंगेल्स ने 'जर्मनी में किसानों का जंग' (दी पीजेंट वार इन जर्मनी) पुस्तक लिखकर उसमें न सिर्फ जर्मनी में होनेवाले पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों के संधि-काल के किसान-विद्रोहों का वर्णन किया है, वरन आस्ट्रिया, हंगरी, इटली तथा अन्यान्य देशों के भी ऐसे विद्रोहों का उल्लेख किया है। उससे पूर्व जर्मन विद्वान विल्हेल्म जिमरमान की भी एक पुस्तक 'महान किसान-विद्रोह का इतिहास' (दी हिस्ट्री ऑफ दी ग्रेट पीजेंट वार) इसी बात का वर्णन करती है। यह 1841 में लिखी गई थी। फ्रांस में बारहवीं-तेरहवीं सदियों में फ्रांस के दक्षिण भाग में किसानों की बगावतें प्रसिद्ध हैं। इंग्लैंड की 1381 वाली किसानों की बगावत भी प्रसिद्ध है, जिसका नेता जौन बोल था। इसी प्रकार हंगरी में भी 16वीं शताब्दी में किसानों ने विद्रोह किया।
इस तरह के सभी संघर्ष एवं विस्फोट सामंतों एवं जमींदारों के जुल्म, असह्य कर-भार तथा गुलामी के विरुद्ध होते रहे, और ये चीजें भारत में भी थीं। यह देश तो दूसरे मुल्कों की अपेक्षा पिछड़ा था ही। तब यहाँ भी ये उत्पीड़न क्यों न होते और उनके विरुद्ध किसान-संघर्ष क्यों न छिड़ते? यहाँ तो साधारणतः ब्रिटिश भारत में और विशेषतः रजवाड़ों में आज भी ये यंत्रणाएँ किसान भोग ही रहे हैं।
तो क्या भारतीय किसान यों ही आँख मूँद कर सारे कष्टों को गधे-बैलों की तरह चुपचाप बर्दाश्त कर लेते रहे हैं और उनके विरोध में उनने सर नहीं उठाया है? यह बात समझ के बाहर है। माना कि आज के जमींदार डेढ़ सौ साल से पहले न थे। मगर सरकार तो थी। सूदखोर बनिए महाजन तो थे। जागीरदार तथा सामंत तो थे। फिर तो कर-भार, गुलामी और भीषण सूदखोरी थी ही। इन्हें कौन रोकता तथा इनके विरुद्ध किसान-समाज चुप कैसे रह सकता था? भारतीय किसान संसार के अन्य किसानों के अपवाद नहीं हो सकते। फिर भी यदि उनके आंदोलनों एवं विद्रोहों का कोई विधिवत लिखित इतिहास नहीं मिलता, तो इसके मानी हर्गिज नहीं कि यह चीज हुई ही नहीं-हुई और जरूर हुई-हजारों वर्ष पहले से लगातार होती रही। नहीं तो एकाएक सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले, जिसके लेख मिलते हैं, क्यों हुई? और अगर इधर आकर वे संघर्ष करने लगे तो मानना ही होगा कि पहले भी जरूर करते थे।
यह भी बात है कि यदि लिखा-पढ़ी तथा सभा-सोसाइटियों के रूप में, प्रदर्शन और जुलूस के रूप में यह आंदोलन न भी हो सकता था, तो भी अमली तौर पर तो होता ही था, हो सकता ही था और यही था असली आंदोलन। क्योंकि 'कह सुनाऊँ' की अपेक्षा 'कर दिखाऊँ' हमेशा ही ठोस और कारगर माना जाता है और इधर 1836 से 1946 तक के दरम्यान, प्रारंभ के प्रायः सौ साल में, जबानी या लिखित आंदोलन शायद ही हुए, किंतु अमली तथा व्यावहारिक ही हुए। इसका संक्षिप्त विवरण आगे मिलेगा। इससे भी मानना ही होगा कि पहले भी इस तरह के अमली आंदोलन और व्यावहारिक विरोध किसान-संसार की तरफ से सदा से होते आए हैं। (किसान तो सदा ही मूक प्राणी रहा है। इसे वाणी देने का यत्न पहले कब, किसने किया? कर्म, भाग्य, भगवान, तकदीर और परलोक के नाम पर हमेशा ही से चुपचाप कष्ट सहन करने, संतोष करने तथा पशु-जीवन बिताने के ही उपदेश इसे दिए जाते रहे हैं। यह भी कहा जाता रहा है कि राजा और शासक तो भगवान के अंशावतार हैं। अतः चुपचाप उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने में ही कल्याण है। इस 'कल्याण' की बूटी ने तो और भी जहर का काम किया और उन्हें गूँगा बना दिया।) फलतः कभी-कभी ऊबकर उन्होंने अमली आंदोलन ही किया और तत्काल वह सफलीभूत भी हुआ। उससे उनके कष्टों में कमी हुई।
इधर असहयोग युग के बाद जो भी किसान-आंदोलन हुए हैं उन्हें संगठित रूप मिला है , यह बात सही है। संगठन का यह श्रीगणेश तभी से चला है। इसका श्रीगणेश तभी से होकर इसमें क्रमिक दृढ़ता आती गई है और आज तो यह काफी मजबूत है, हालाँकि संगठन में अभी कमी बहुत है। मगर असंगठित रूप में यह चीज पहले, असहयोग युग से पूर्व भी चलती रही है।संगठित से हमारा आशय सदस्यता के आधार पर बनी किसान-सभा और किसानों की पंचायत से है, जिसका कार्यालय नियमित रूप से काम करता रहता है और समय पर सभी समितियाँ होती रहती हैं। कागजी घुड़दौड़ भी चालू रहती है। यह बात पहले न थी। इसी से पूर्ववर्ती आंदोलन असंगठित था। यों तो विद्रोहों को तत्काल सफल होने के लिए उनका किसी-न-किसी रूप में संगठित होना अनिवार्य था। 'पतिया' जारी करने का रिवाज अत्यंत प्राचीन है। मालूम होता है, पहले दो-चार अक्षरों या संकेतों के द्वारा ही संगठन का महामंत्र फूँका जाता था। यद्यपि यातायात के साधनों के अभाव में उसे वर्तमान कालीन सफलता एवं विस्तार प्राप्त न होते थे। फिर भी हम देखते हैं कि जिन आंदोलनों एवं संघर्षों का उल्लेख आगे है वे बात की बात में आग की तरह फैले और काफी दूर तक फैले। संथाल-विद्रोह में तो लाखों की सेना एकत्र होने की बात पाई जाती है और यह बात अँग्रेज अफसरों ने लिखी है। ऐसी दशा में इतना तो मानना ही होगा कि वह चीज भी काफी संगठित रूप में थी, यद्यपि आज वाली दृढ़ता, आजवाली स्थापिता उसमें न थी। होती भी कैसे? उसके सामान होते तब न?
जैसा कि पहले कह चुके हैं , आज से प्रायः सौ-सवा सौ साल पहले वाले किसान-संघर्षों एवं आंदोलनों का वर्णन मिलता है। अतः हम उन्हीं से शुरू करते हैं। इसमें सबसे पुराना मालाबार के मोपला किसानों का विद्रोह है, जो 1836 में शुरू हुआ था। कहनेवाले कहते हैं कि ये मोपले कट्टर मुसलमान होने के नाते अपना आंदोलन धार्मिक कारणों से ही करते रहे हैं। असहयोग-युग के उनके विद्रोह के बारे में तो स्पष्ट ही यही बात कही गई है। मगर ऐसा कहने-माननेवाले अधिकारियों एवं जमींदार-मालदारों के लेखों तथा बयानों से ही यह बात सिद्ध हो जाती है कि दरअसल बात यह न हो कर आर्थिक एवं सामाजिक उत्पीड़न ही इस विद्रोह के असली कारण रहे हैं और धार्मिक रंग अगर उन पर चढ़ा है तो कार्य-कारणवश ही, प्रसंगवश ही। 1920 और 1921 वाले विद्रोह को तो सबों ने, यहाँ तक कि महात्मा गाँधी ने भी, धार्मिक ही माना है। मगर उसी के संबंध में मालाबार के ब्राह्मणों के पत्र 'योगक्षेमम' ने 1922 की 6 जनवरी के अग्रलेख में लिखा था कि "केवल धनियों तथा जमींदारों को ही ये विद्रोही सताते हैं, न कि गरीब किसानों को"
"Only the rich and the landlords are suffering in the hands of the rebels, not the poor peasants."
अगर धार्मिक बात होती तो यह धनी-गरीब का भेद क्यों होता? इसी तरह ता. 5/2/1921 में दक्षिण मालाबार के कलक्टर ने जो 144 धारा की नोटिस जारी की थी उसके कारणों में लिखा गया था कि "भोले-भोले मोपलों को न सिर्फ सरकार के विरुद्ध, वरन हिंदू जन्मियों (जमींदारों─मालाबार में जमींदार को 'जन्मी' कहते हैं) के भी विरुद्ध उभाड़ा जाएगा"─
"The feeling of the ignorant Moplahs will be inflamed against not only the Government but also against the Hindu Jenmies (landlords) of the district."
इससे भी स्पष्ट है कि विद्रोह का कारण आर्थिक था। नहीं तो सिर्फ जमींदारों तथा सरकार के विरुद्ध यह बात क्यों होती?
बात असल यह है कि मालाबार के जमींदार ब्राह्मण ही हैं। उत्तरी मालाबार में शायद ही दो-एक मोपले भी जमींदार हैं। और ये मोपले गरीब किसान हैं। इनमें खाते-पीते लोग शायद ही हैं। इन किसानों को जमीन पर पहले कोई हक था ही नहीं और झगड़े की असली बुनियाद यही थी, यही है। यह पुरानी चीज है और शोषक जमींदारों के हिंदू (ब्राह्मण) होने के नाते ही इन संघर्षों पर धार्मिक रंग चढ़ता है। नहीं-नहीं, जान-बूझकर चढ़ाया जाता है। 1880 वाले विद्रोह में मोपलों ने दो जमींदारों पर धावा किया था। उनने तत्कालीन गवर्नर लार्ड बकिंघम को गुप्तनाम पत्र लिखकर जमींदारों के जुल्मों को बताया था और प्रार्थना की थी कि उन्हें रोका जाए, नहीं तो ज्वालामुखी फूटेगा। गवर्नर ने मालाबार के कलक्टर और जज की एक कमेटी द्वारा जब जाँच करवाई तो रिपोर्ट आई कि इन तूफानों के मूल में वही किसानों की समस्याएँ हैं। पीछे यह भी बात ब्योरेवार मालूम हुई कि जमींदार किसानों को कैसे लूटते और जमीनों से बेदखल करते रहते हैं। इसीलिए तो 1887 वाला काश्तकारी कानून बना।
1921 तथा उसके बाद मौलाना याकूब हसन मालाबार के कांग्रेसी एवं गाँधीवादी नेता थे। मगर उनने भी जो पत्र गाँधी जी को लिखा था उसमें कहते हैं कि “अधिकांश मोपले छोटे-छोटे जमींदारों की जमीनें ले कर जोतते हैं और जमींदार प्रायः सभी हिंदू ही हैं। मोपलों की यह पुरानी शिकायत है कि ये मनचले जमींदार उन्हें लूटते-सताते हैं और यह शिकायत दूर नहीं की गई है”─
"Most of the Moplahs were cultivating lands under the petty landlords who are almost all Hindus. The oppression of the Janmies (landlords) is a matter of notoriety and a long-standing grievance of the Moplahs that has never been redressed."
इससे तो जरा भी संदेह नहीं रह जाता किमोपला-विद्रोह सचमुच किसान-विद्रोह था।
1836 से 1853 तक मोपलों ने 22 विद्रोह किए । वे सभी जमींदारों के विरुद्ध थे। कहीं-कहीं धर्म की बात प्रसंगतः आई थी जरूर। मगर असलियत वही थी। 1841 वाला विद्रोह तो श्री तैरुम पहत्री नांबुद्री नामक जालिम जमींदार के खिलाफ था, जिसने किसानों को पट्टे पर दी गई जमीन बलात छीनी थी। 1843 में भी दो संघर्ष हुए─एक गाँव के मुखिया के विरुद्ध और दूसरा ब्राह्मण जमींदार के खिलाफ। 1851 में उत्तर मालाबार में भी एक जमींदार का वंश ही खत्म कर दिया गया। 1880 की बात कह ही चुके हैं। 1898 में भी उसी तरह एक जमींदार मारा गया। 1919 में मनकट्टा पहत्री पुरम में एक ब्राह्मण जमींदार और उसके आदमियों को चेकाजी नामक मोपला किसान के दल ने खत्म कर दिया और लूट-पाट की। क्योंकि उसने चेकाजी के विरुद्ध बाकी लगान की डिग्री से संतोष न कर के उसके पुत्र की शादी भी न होने दी।
1920 के अक्तूबर में कालीकट में जो काश्तकारी कानून के सुधार का आंदोलन शुरू हुआ, 1921 वाली बगावत इसी का परिणाम थी। जमींदार मनमाने ढंग से लगान बढ़ाते और बेतहाशा बेदखलियाँ किया करते थे। इसीलिए सैकड़ों सभाएँ हुईं। स्थान-स्थान पर किसान-सभाएँ बनीं, कालीकट के राजा की जमींदारी में एक 'टेनेन्ट रिलीफ असोसियेशन' कायम हुआ और मंजेरी की बड़ी कॉन्फ्रेंस में किसानों की माँगों का जोरदार समर्थन हुआ। इसी के साथ खिलाफत आंदोलन भी आ मिला। मगर असलियत तो दूसरी ही थी। इस तरह देखते हैं कि आज से सैकड़ों साल पूर्व विशुद्ध किसान-आंदोलन किसान हकों के लिए चला और 1920 में आकर उसने कहीं-कहीं संगठन का जामा पहनने की भी कोशिश की।
अच्छा, अब मालाबार के दक्षिणी किसान-आंदोलन से हटकर उत्तर में बंबई प्रेसिडेंसी के महाराष्ट्र, खानदेश और गुजरात को देखें। वहाँ भी 1845 और 1875 के मध्य किसानों में रह-रह के उभाड़ होते रहे। कोली, कुर्मी, भील, ब्राह्मण और दूसरी जाति के लोग─सभी─इस विद्रोह में शरीक थे। 1845 में भीलों के नेता रघुभंगरिन के दल ने साहूकारों को लूटा-पाटा। पूना और थाना जिलों के कोलियों ने भी समय-समय पर ऐसी लूटपाट और मारकाट की। इस संबंध में 1852 में सर जी. विन्गेट ने (Sir G. Wingate) बंबई सरकार को लिखा था कि “बंबई प्रेसीडेंसी के परस्पर सुदूरवर्ती दो कोनों में जो कर्जदारों ने दो साहूकारों को मार डाला है यह कोई यों ही नहीं हुआ है, जो कही-कहीं महाजनों के जुल्मों के फलस्वरूप है। किंतु मुझे भय है कि ये एक ओर किसानों और दूसरी ओर सूदखोर बनियों के बीच सर्वत्र होनेवाले आम तनाव के दो उदाहरण मात्र हैं। और अगर ऐसा है, तो ये बताते हैं कि एक ओर कितना भयंकर शोषण-उत्पीड़न और दूसरी ओर कितना अधिक कष्ट-सहन मौजूद है”
“These two cases of village money-landers murdered by their debtors almost at the opposite extremities of our presidency must, I apprehend, be viewed not as the results of isolated instances of oppression on the part of craditors, but as examples in an aggravated form of the general relations subsisting between the class of mone-landers and our agricultural population, And if so, what an amount of dire oppression on the one hand and of suffering on the other, do they reveal to us?”
इसी प्रकार 1871 और 1875 के मध्य खेड़ा (गुजरात), अहमदनगर, पूना, रत्नागिरी, सितारा, शोलापुर और अहमदाबाद (गुजरात) जिलों में भी गूजरों, सूदखोरों, मारवाड़ियों दूसरे बनियों तथा जालिमों के विरुद्ध जेहाद बोले गए, जिनका विवरण'दक्षिणी किसान दंगा-जाँच कमीशन' की रिपोर्ट में दिया गया है। 1871 और 1855 के बीच का समय भी बेचैनी का था। 1865 वाले अमेरिका के गृहयुद्ध के चलते भारतीय रुई का दाम तेज हुआ। फलतः किसानों ने काफी कर्ज लिए। मगर 1870 में उस युद्ध के अंत होते ही एकाएक मंदीआई, जिससे 1929 की तरह किसान तबाह हो गए। यह भी था कि 1865 से पूर्व सरकार ने समय-समय पर सर्वे कराकर लगान भी बढ़ा दिया था। जब उसे न दे सकने के कारण किसानों की जमीन-जायदाद साहूकारों के हाथों में धड़ाधड़ जाने लगी तो उनने विद्रोह शुरू किए। फलतः सरकारी जाँच कमीशन कायम हुआ और उसी की रिपोर्ट पर दक्षिणी किसानों को सुविधाएँ देने का कानून बनाया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि सरकार और महाजनों से किसान इसीलिए बिगड़ पड़े कि उनकी जमीनें छीनी जा रही थीं।
कहा जाता है कि बंबई प्रेसिडेंसी में जमींदारी प्रथा है नहीं, वहाँ जमींदार हैं नहीं। रैयतवारी प्रथा के फलस्वरूप वहाँ किसान ही जमीन के मालिक हैं। मगर दरअसल अब यह बात है नहीं। वहाँ भी साहूकार-जमींदार कायम हो गए हैं और असली किसान उनके गुलाम बन चुके हैं। यह साहूकार-जमींदारी शुरू हुई थी 1845 में ही, जब किसानों की जमीनें महाजन कर्ज में छीनने लगे। किसानों के विद्रोह भी इसी छीना-झपटी को रोकने के लिए होते रहे। आज तो रैयतवारी इलाके का किसान इसी के चलते जमींदारी प्रांतों के किसानों से भी ज्यादा दुखिया है। क्योंकि उसे कोई हक हासिल नहीं है, जब कि जमींदारी इलाकेवालों ने लड़ते-लड़ते बहुत कुछ हक हासिल किया है। इसीलिए दक्षिणी विद्रोह के जाँच कमीशन की रिपोर्ट में मिस्टर आकलैंड कौलबिन ने लिखा है कि “तथाकथित रैयतवारी प्रथा में धीरे-धीरे ऐसा हो रहा है कि रैयत टेनेंट हो गए हैं और मारवाड़ी (साहूकार) जमींदार (मालिक)। यह तो जमींदारी प्रथा ही है। फर्क इतना ही है कि उत्तरी भारत की जमींदारी प्रथा में किसानों की रक्षा के लिए जो बातें कानून में रखी गई हैं वे एक भी यहाँ नहीं हैं। मालिक गैर जवाबदेह हैं और किसान का कोई बचाव है नहीं। फलतः रैयतवारी न होकर यह तो मारवाड़ी (साहूकारी) प्रथा होने जा रही है”─
"Under so called ryotwari system it is gradual by coming to this, that the ryot is the tenant and the Marwari is the proprietor. It is a zamindari settlement; but it is a zamindari settlement stripped of all the safeguards which under such a settlement in Upper India are though indispensable to the tenant. The proprietor is irresponsible, the tenant unprotected. It promises to become not a ryotwari but a Marwari settlement."
उत्तर भारत के बिहार-बंगाल की सम्मिलित सीमा का संथाल आंदोलन भी, जो 1855 की 7 जुलाई से शुरू हुआ, किसान-आंदोलन ही था। भील नेताओं के अंग संरक्षक ही तीस हजार थे। बाकियों का क्या कहना?संथालों के घी, दूध और अन्नादि को बनिए मिट्टी के मोल ले कर नमक, वस्त्र खूब महँगे देते थे। इस प्रकार उनकी सारी जमीन, बर्तन और औरतों के लोहे के जेवर तक ये बनिए लूट लेते थे, ठग लेते थे। मिस्टर हंटर ने 'देहाती बंगाल का इतिहास' में लूट का विशद, पर हृदय-द्रावक, वर्णन किया है। और जब पुलिसवालों ने भी इन बनियों से घूस ले कर उन्हीं का साथ देना शुरू किया, तो फिर इन पीड़ित संथालों के लिए विद्रोह ही एकमात्र अस्त्र रह गया था। उनने उसी की शरण ली। इस तरह हम 1836 से चलकर 1875 तक आते हैं और इसी के बीच में वह संथालों का किसान-आंदोलन भी आ जाता है। बल्कि मालाबारवाले 1920 के विद्रोह को ले कर तो हम असहयोग-युग के पूर्व तक पहुँच जाते हैं।
हमें एक चीज इसमें यह भी मिलती है कि धीरे-धीरे यह आंदोलन एक संगठित रूप की ओर अग्रसर होता है। मोपलों के 1920 वाले संगठन का उल्लेख हो चुका है। दक्षिणी विद्रोह में भी 1836-53 वाले मोपला विद्रोह की अपेक्षा एक तरह का संगठन पाया जाता है जिसके फलस्वरूप वे आग की तरह बंबई प्रेसीडेंसी के एक छोर से दूसरे छोर तक बहुत तेजी से पहुँच जाते हैं, ऐसा सर विन्गेट ने तथा औरों ने भी लिखा है। मगर 1875 के बाद यह संगठन धीरे-धीरे सभा का रूप लेता है 1920 में मालाबार में;हालाँकि वह भी टिक नहीं पाता।
उत्तर और पूर्व बंगाल में नील बोनेवाले किसानों का विद्रोह भी इसी मुद्दत में आता है।बिहार के छोटा नागपुर का टाना भगत आंदोलन भी असहयोग युग के ठीक पहले जारी हुआ था। 1917 में चंपारन में निलहे गोरों के विरुद्ध गाँधी जी का किसान-आंदोलन चला और सफल हुआ अपने तात्कालिक लक्ष्य में। गुजरात के खेड़ा जिले में भीउनने किसान-आंदोलन इससे पूर्व उसी साल चलाया था। मगर वह अधिकांश विफल रहा। अवध में असहयोग से पहले 1920 में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में चालू किसान-आंदोलन वहाँ के ताल्लुकेदारों के विरुद्ध था, जिसमें लूट-पाट भी हुई। इस प्रकार के आंदोलन मुल्कों में जहाँ-तहाँ और भी चले। मगर उन पर विशेष रोशनी डालने का अवसर यहाँ नहीं है।