भारत में वरिष्ठ नागरिक समाज / सत्य शील अग्रवाल

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गत एक शताब्दी में हुई अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण स्वास्थ्य सेवाओं में अभूतपूर्व सुधार हुए। इस अवधि में अनेक संक्रामक रोगों पर विजय प्राप्त हुई, और अनेक गंभीर बीमारियों पर नियंत्रण पाया जा सका । जिससे मानव मृत्यु दर में अप्रत्याशित गिरावट आयी, और मानव स्वास्थ्य जीवन एवं दीर्घायु जीवन पाने में सफल हुआ.सौ वर्ष पूर्व भारत में औसत आयु मात्र पच्चीस वर्ष हुआ करती थी, बढ़ कर वर्तमान समय में पैंसठ वर्ष होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.आज भारत सहित समस्त विश्व में वृद्धों की संख्या में तीव्रता से वृद्धि हो रही है । ”यूनाइटेड नेशंस ग्लोबल एक्शन और एजिंग 2007”के अनुसार पूरे विश्व में भारत और चीन में सर्वाधिक बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि हो रही है। जो 4.4 % प्रति वर्ष है जबकि पूरे विश्व में वृद्धि दर 2.6% प्रतिवर्ष है। इससे स्पष्ट है भारत में वृद्धों की बढ़ी संख्या देश की बड़ी समस्याओं में शामिल होने वाली है। समस्या का मुख्य कारण इस आयु में किसी भी वृद्ध के लिए देश के लिए योगदान लगभग नगण्य होता है.अनुत्पादक वर्ग होने के कारण बुजुर्ग समाज को भार स्वरूप देखा जाता है। जो बुजुर्ग को स्वयं भी व्यथित करती है, क्योंकि भारत में सरकार के पास साधनों के अभाव के कारण, वृद्ध परिवार की जिम्मेदारी होती है।

वर्तमान में भारतवर्ष में आठ करोड़ व्यक्ति वरिष्ठ नागरिकों की श्रेणी में आते हैं, जो अपनी आयु के साठ वर्ष पूरे कर चुके हैं। यह संख्या 2025 तक 18 करोड तक पहुँचने का अनुमान लगाया जा रहा है। एक तरफ तीव्रता से बढती बुजुर्गों की संख्या, दूसरी तरफ तीव्र भौतिक विकास के कारण तेजी से आ रहे जीवन शैली में बदलाव और सामाजिक संरचना में परिवर्तन, पूरे देश और समाज के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है। 2010 में प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में 55.6% बुजुर्ग अपनी आर्थिक आवश्यकताओं के लिए अपनी संतान पर निर्भर हैं। आर्थिक पराधीनता हमारे देश के वृद्ध समाज की मुख्य समस्या है,जो उनके जीवन को कष्टकारी बनती है। हमारे देश में संतान पर इतनी बड़ी संख्या में निर्भरता का मुख्य कारण, हमारे देश की परम्पराएँ और सामाजिक संरचना है.गरीब देश होने के कारण हमारा समाज अल्प आए वर्ग अथवा मध्यम आए वर्ग में निहित है। जो प्रायः अपने जीवन भर की बचत को अपने बच्चों की पढाई लिखाई और उनके विवाह आयोजनों पर खर्च कर समाप्त कर लेता है। उसके पास इतना धन शेष नहीं रहता जिससे वह अपने भावी निष्क्रिय जीवन का भरण पोषण कर पाए.जो कुछ बचता भी है, तो बढती महंगाई के कारण वह रकम “ऊँट के मुंह में जीरा “ साबित होती है। हमारे देश की सरकार भी इतनी सक्षम नहीं है जो इतनी विशाल संख्या (वरिष्ठ नागरिक )के भरण पोषण का भार स्वयं उठा सके । सरकारी सेवाओं से निवृत कर्मचारी अवश्य ही पेंशन के मध्यम से, सरकार द्वारा संरक्षित जीवन यापन कर पाते हैं। परन्तु उनकी संख्या कुल वरिष्ठ नागरिकों की संख्या के मात्र 11% हैं। शेष बुजुर्गों को अपने जीवन यापन के लिए निजी स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है, या आमदनी के विकल्प ढूढने होते हैं।

जो बुजुर्ग इतने भाग्यशाली हैं की वे आर्थिक मामले में जीवन पर्यंत आत्म निर्भर होते हैं, उनके लिए भी वृद्धावस्था कम समस्याएँ नहीं लेकर आती। बल्कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बुजुर्गों को मानसिक रूप से संकुचित स्थिति में देखा गया है। वे अपने परिजनों की उपेक्षा करते देखे जाते हैं, उनके साथ अपमानजनक व्यव्हार करते पाए जाते हैं। क्योंकि उनकी इच्छा अपनी आर्थिक सक्षमता के होते हुए पूरे परिवार पर अपना बर्चस्व बना कर रखने की होती है। जो उनको अपने परिवार में अलोकप्रिय बना देता है। जबकि वृद्धावस्था में उसे समस्त परिवार के सहयोग की आवश्यकता होती है। जो लोग अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता के रहते परिवार से अलग रहकर जीना चाहते हैं, और सोचते हैं की वे अपने सभी काम धन के बल पर करा लेने की क्षमता रखते हैं। ऐसे लोग अक्सर अनेक प्रकार से शोषण, और धोखे के शिकार होते हैं। कभी कभी तो उनके नौकर ही उनकी हत्या तक कर देते हैं। और परिवार के प्रति उनका तानाशाह व्यव्हार उनके लिए अभिशाप सिद्ध होता है।

उपरोक्त सभी पहलुओं पर विचार मंथन से स्पष्ट है की भारतीय सामाजिक परिवेश में प्रत्येक बुजुर्ग को अपनी जीवन संध्या को सुरक्षित, सुखद, शांती मय बनाने के लिए अपने परिजनों से सामंजस्य बनाना आवश्यक है। प्रस्तुत पुस्तक “जीवन संध्या ”के लिखने के पीछे उद्देश्य यही है की वृद्ध समाज की समस्याओं से समस्त समाज को अवगत कराया जाय. । बुजुर्गों को अपने परिजनों के साथ सामंजस्य बना पाने के उपाए सोचे जाएँ।

यह तो निश्चित है, ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती। यदि बुजुर्ग एवं युवा दोनों पीढियां एक दूसरे के मान सम्मान एवं भावनाओं की कद्र करें, एक दूसरे की खुशियों का ध्यान रखें तब ही परिवार का वातावरण सहज और शांती पूर्ण बन सकता है। क्योंकि बुजुर्ग वर्ग परिवार की अशक्त कड़ी होता है इसलिए उसे अपने व्यव्हार को अधिक संतुलित एवं नियंत्रित रखने की आवश्यकता होती है। और यही उनके बड़प्पन का प्रतीक भी है। मेरा यह प्रयास बुजुर्गो का कितना हित कर पायेगा यह तो पुस्तक पाठक के हाथ में जाने के पश्चात् ही पता चलेगा। आपके सुझाव एवं आलोचनाएँ सदैव स्वागत योग्य हैं। आपके बहुमूल्य सुझाव ही मुझे अपने समाज सेवा के उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने में मार्ग दर्शन करेंगे।