भारत रत्न से वंचित मेजर ध्यानचंद / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :31 मई 2016
अस्सी वर्ष पूर्व 15 अगस्त 1936 को मेजर ध्यानचंद की कप्तानी में भारतीय हॉकी टीम ने अपना लगातार तीसरा गोल्ड मेडल जीता। भारत के मारे आठ गोलों में तीन मेजर ध्यानचंद ने मारे थे। उनके भाई रूपचंद भी बेहतरीन खिलाड़ी थे और उनका योगदान भी कम नहीं था परंतु सूर्य और चंद्र एक साथ नहीं दिखाई पड़ते। इस वर्ष 15 अगस्त को बर्लिन में उसी महान विजय की स्मृति मेें एक समारोह का आयोजन किया जा रहा है और ध्यानचंद के उपयोग में लाई चीजें भी एक प्रदर्शन में रखी जाएंगी। इस तरह के आयोजन जर्मनी करता है परंतु झांसी में जन्मे ध्यानचंद के लिए भारतीय सरकार व समाज कुछ नहीं करता। हम पैदाइशी नाशुक्रे हैं।
बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने क्रिकेट को इतना महत्वपूर्ण बना दिया है कि पानी और बिजली के लिए तरसते अनगिनत कस्बों को अनदेखा करके आईपीएल तमाशे के लिए लाखों लीटर पानी और जाने कितने मेगावाट बिजली का अवव्यय होता है। इस कॉलम में अनेक बार यह मुद्दा उठाया गया है परंतु क्रिकेट में अकूत धन होने के कारण उस खेल से अनेक नेता जुड़े हुए हैं। हमारे वित्त मंत्री अरुण जेटली भी क्रिकेट पदाधिकारी हैं तथा वे बजट में आंकड़ों की बीन बजाकर 'अच्छे दिन आने' का भ्रम बनाए रखते हैं। केंद्रीय व प्रांतीय सरकारें अवाम के खून-पसीने के कितने करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च करती हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य वह विकास दिखाना है, जो हुआ ही नहीं। विकास शब्द का इतना दुरुपयोग हुआ है कि अब वह कानों में विनाश ध्वनित हो रहा है। मनुष्य के कान सभी ध्वनियां नहीं पकड़ते और कई बार उस ध्वनी को भी पकड़ लेते हैं, जो उत्पन्न की ही नहीं गई। वीरानों में साय साय करते सन्नाटे में साधनहीन लोगों की आहें इन्हें क्यों नहीं सुनाई पड़तीं? प्रायोजित करतल ध्वनियों के अभ्यस्त कान सुनने का स्वतंत्र चुनाव करते हैं। आश्चर्य और खेद तो उन कमबख्त हाथों पर है, जो बेवजह बेबुनियाद बातों पर तालियां पीटते हैं। कभी इस पर भी गौर करना कि किन्नर समाज द्वारा बजाई तालियां सबसे अलग ध्वनित होती हैं और ईश्वरीय कमतरी का मखौल उड़ाती हैं। वह अंधा भी अपने-अपनों को ही रेवड़ियां बांटता है। ध्यानचंद की ख्याति दिग-दिगंत फैली थी और हिटलर की प्रबल इच्छा थी कि जर्मन टीम जीते ताकि उनके द्वारा आर्यन जाति की श्रेष्ठता सिद्ध हो सके। इसके लिए उनका प्रयास था कि ध्यानचंद फाइनल न खेले। इसके लिए ध्यानचंद को अनेक प्रलोभन भी दिए गए थे परंतु भारतीय माटी के सच्चे पूत ने इनकार कर दिया। अंतिम प्रलोभन के रूप में उन्हें जर्मन नागरिकता अौर फौज में ऊंचा पद देने की बात भी की गई। यह भी कहा गया कि सारे स्वर्ण पदक तो हुकूमते बरतानिया के माने जाएंगे, न कि गुलाम भारत के। माटी पुत्र पर किसी प्रलोभन का कोई असर नहीं हुआ।
फाइनल अत्यंत रोचक था। जर्मनी के पांच खिलाड़यों को ध्यानचंद को घेरे रखने का आदेश था। हॉकी के इस अभिमन्यू को हर चक्रव्यूह से निकलना आता था। ध्यानचंद को यह अभ्यास था कि गेंद उनकी हॉकी से चिपकी-सी रहती थी अौर इस कारण उनकी हॉकी स्टिक का परीक्षण भी किया गया परंतु जादू तो ध्यानचंद की रबर-सी लचीली कलाइयों में था। अभावों से घिरे अपने बचपन में ध्यानचंद ने वृक्ष की टहनी से कामचलाऊ हॉकी स्टिक बनाई थी और पुराने फटे कपड़ों को गूंथकर बॉल बनाई थी। अभावों की आंच में तपी प्रतिभा फौलाद से मजबूत होती है। सरकारें अवाम में वस्तुएं बांटती हैं अौर समान अवसर व सहूलियतें नहीं देतीं, क्योंकि वे आत्म-निर्भरता से अवाम को दूर रखना चाहती हैं। इस कॉलम में कब से गुहार लगाई गई है कि देश के साधनों से देश के अवाम द्वारा ही देश गढ़ा जाता है। विदेशी सहायता आपको सदैव लंगड़ा ही रखेगी परंतु हमारे शिखर नेता हाथ में भिखारियों का लोटा लिए देश-दर-देश भटक रहे हैं। यह भिक्षावृत्ति करते वे अपनी आर्यन श्रेष्ठता के भ्रम को भी भूल जाते हैं। देशों के बीच इतना आवागमन हुआ और आत्मीय रिश्ते बने हैं कि आर्यन श्रेष्ठता भ्रम है। हिटलर ने इस भूत को बोतल से बाहर निकाला था अौर अब तक मानवता के जख्म नहीं भरे हैं परंतु उसके अंधानुकरण की नारेबाजी आज भी जारी है और बददस्तूर तालियां भी बजाई जा रही है। पूजा और आरती शेट्टी ने लाखों रुपए खर्च करके महान राजिंदरसिंह बेदी की पोती से ध्यानचंद पर पटकथा लिखाई परंतु उन्हें अभी तक सितारा नहीं मिला मिल पा रहा है। जर्मन सरकार ने 1936 का वह स्टेडयम जस का तस बनाए रखा है। यह सचमुच खेद की बात है कि यह फिल्म नहीं बन पा रही है। श्रेष्ठ विचारों पर फिल्में नहीं बन सकीं और यह सूची लंबी है। इसी बुरी व्यवस्था के लिए दर्शक भी जिम्मेदार हैं, जो केवल सितारों वाली फिल्में ही देखते हैं। अभी तक ध्यानचंद को मरणोपरांत भारत रत्न भी नहीं दिया गया है।