भारत विभाजन का दंश (तेभ्यः स्वधा):जीवंत दस्तावेज / स्मृति शुक्ल
नीरजा माधव हिन्दी की प्रतिष्ठित और समाज को दिशा देने वाले साहित्य का सर्जन करने वाली रचनाकार हैं। उन्होंने विविध विधाओं में विपुल साहित्य सर्जना की है। उनके दस कहानी संग्रह और दस उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनका उपन्यास 'तेभ्यः स्वधा' शीर्षक से विद्या विहार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर केन्द्रित है। भारत की स्वतंत्रता हमें विभाजन की त्रासदी के साथ मिली है। अगस्त 1946 के बाद से भारत में विभाजनकारी गतिविधियाँ तीव्र गति से बढ़ गई थीं। धार्मिक उन्माद चरम पर था। लाखों स्त्रियाँ, असहाय वृद्ध और मासूम बच्चे इस विभाजन की भेंट चढ़ गए थे। संपत्तियों की लूट आगजनी, अपहरण, बलात्कार, धर्म और बंटवारे के नाम पर घने कोहरे की तरह छाए हुए थे। हिन्दू या सिख होना एक अपराध बन गया था। कुछ रचनाएँ समाज को दिशा देने वाली होती हैं वे इतिहास को देखने के लिए एक सम्यक् और सही दृष्टि प्रदान करती हैं। वे सत्य की आलोक किरण से उस धुँध को हटाने का काम करती हैं, जो ग़लत जानकारियों के कारण हमारे मानस पटल पर जम गई है। ऐसा ही एक उपन्यास जो पाठक को भारत-पाक विभाजन की त्रासदी को एक भुक्त भोगी स्त्री के माध्यम से सामने लाता है। ऐसी भारतीय स्त्री जो बार-बार टूटकर भी नहीं टूटी। सनातन परम्परा में गहरी आस्था, अपने देश के प्रति अटूट स्नेह और एक ममतामयी माँ का विश्वास लिये मीना से अमीना बनी पीड़ा का आख्यान है नीरजा माधव का उपन्यास 'भारत विभाजन का दंश' (तेभ्यः स्वधा) ।
विभाजन की त्रासदी का सबसे दुःखद पहलू हिंसा, नरसंहार और स्त्रियों की अस्मिता पर प्रहार है। विभाजन की बर्बरता और अमानवीयता का सबसे ज़्यादा कहर स्त्रियों पर बरपा। स्त्रियाँ यौन हिंसा का शिकार हुईं। उस समय जो स्त्रियाँ जीवित बच गईं वे आजीवन त्रास झेलती रहीं, हर दिन अपमान से मरती रहीं। नीरजा माधव का उपन्यास 'भारत विभाजन का दंश' (तेभ्यः स्वधा) भारत विभाजन के उस क्रूरतम अध्याय को पाठक के सामने लाता है जिसमें पाकिस्तान से निमर्मतापूर्वक खदेड़े गए हजारों हिन्दुओं की मर्मांतक व्यथा साँसें ले रही हैं यह उपन्यास पाकिस्तान उखड़े हुए वे लोग थे, जिनको अपना बसा-बसाया घर संसार छोड़कर मजबूरी में राजौरी की घाटियों में शरण लेना पड़ी थी। वह राजौरी घाटी जो सन् 1947 में भारत-विभाजन के बाद कई हज़ार हिन्दुओं की कत्लगाह बनी। माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने 14 अगस्त को 'विभाजन-विभीषिका स्मृति दिवस' मनाने का निर्णय लिया तब नीरजा जी ने अपने पूर्व प्रकाशित उपन्यास तेभ्यः स्वधा के शीर्षक पर पुनर्विचार करते हुए शीर्षक 'भारत विभाजन का दंश' कर दिया। उपन्यास के आरंभ में वे स्वीकारोक्ति के रूप में लिखती हैं-मैं यह भी स्वीकार करती हूँ कि इस उपन्यास की कथा जातीय स्मृतियों की कथा है। व्यक्ति का मूल स्वभाव बलात् परिवर्तित नहीं किया जा सकता। कुछ संस्कार जन्मजात होते हैं, जो किसी भी दशा में मिटते नहीं हैं; बल्कि धरती में पड़े बीज की तरह सुरक्षित रहते हैं और अनुकूल स्थितियाँ पाते ही एकाएक उग आते हैं। यही बीज-रूप संस्कार ही व्यक्ति की जातीय स्मृतियाँ हैं, जो छुड़ाए नहीं छूटतीं मिटाए नहीं मिटती। चकमक पत्थर की तरह घर्षण मात्र से कौंध जाती है "अंतर में छिपी आग।" उपन्यास एक हिन्दू स्त्री मीना शुक्ला की पीड़ा के माध्यम से विभाजन के दंश की गहन अनुभूति कराता है। मीना शुक्ला जिसने मजबूरीवश अमीना बनकर ज़िंदा लाश की तरह जीवन ज़िया पर अपने संस्कार और भारतीय सनातन संस्कृति को नहीं छोड़ा। अपने बेटे को भी हिंदू धर्म की शिक्षा देकर अपनी भारतीयता से अभिसिंचिंत किया। यद्यपि यह सब करना इतना आसान नहीं था, इसके लिए उन्हें अपने मुस्लिम अपहरणकर्ता बनाम पति से प्राप्त घोर यंत्रणा झेलनी पड़ी। उन्हें चूल्हे की जलती लकड़ी से जलाया गया, गाय का गोश्त खाने पर मजबूर किया गया। निरन्तर अपमानित होने की गहरी पीड़ा की राख तले अमीना के अंतःस्तल में एक आग छिपी रही। उसके बेटे अज्जू ने माँ के हृदय में जलती इस वेदना की आग को हमेशा महसूस किया है वह कहता है-"तुम्हें बहुत करीब से देखता-जानता रहा, बस तुम्हें ही तिल-तिलकर जलते बुझते देखा है... पर मैं नहीं चाहता कि तुम पूरी तरह से बुझकर राख हो जाओ। मैं एक चिनगारी को बचाए रखने की मन ही मन उम्मीद लगाए था, ताकि समय आने पर फूँक से उसमें जीवन डालकर उजाले में साफ-साफ देख सकूँ।" नीरजा जी ने भारत-पाकिस्तान विभाजन के पूर्व और पश्चात् की स्थितियाँ का गहरा विवेचन इस उपन्यास में किया है। कश्मीर में उत्पन्न परिस्थितियों का चित्रण करते हुए उनकी इतिहास दृष्टि स्पष्ट है वह अपने बेटे अज्जू का भ्रम तोड़ते हुए बताती हैं कि आज कश्मीर में तंजीमों ने अपना बारूदी महल बनाने की तैयारी की है उसे आजाद कश्मीर के महाराजा हरिसिंह डोंगरा ने कश्मीर के भारत विलय का प्रस्ताव भेजकर कबालियों से कश्मीर को बचाने के लिए भारत से सहायता की माँग की थी। पाकिस्तानियों ने जबरदस्ती तंजीमें स्थापित करके निरीह जनता का खून बहाया है। आतंकवादियों के खौ़फ से वहाँ की जनता अपने मन की बात नहीं कह सकती। भोले-भाले गरीब कश्मीरी किशोरों को जेहाद के नाम पर हथियार पकड़ा देते हैं और सरहद पर ले जाकर ट्रेनिंग देकर उन्हें आतंकवादी बना दिया जाता है।
इस उपन्यास की पूरी कथावस्तु स्मृतियों से बुनी है। अमीना के हृदय में उस ख़ौफनाक मंज़र की दर्दनाक स्मृतियाँ आज भी ताज़ा है जब वह अमीना नहीं मीना थी। 1947 में हजारों की संख्या में हिन्दू शरणार्थी बनकर भारत आए और लगभग पच्चीस हज़ार रावलपिंडी और उसके आस-पास से विस्थापित हिन्दुओं ने राजौरी घाटी में शरण ली थी। हर दिन भय और आतंक के साये में जी रहे इन हजारों हिन्दुओं को कबाइलियों ने एक रात जला दिया था। उस रात मीना इसलिए बच गई थी; क्योंकि वह एक पहाड़ी पर बैठी थी। साफ़ी खान नाम के एक पाकिस्तानी सैनिक ने उसे अगुआ किया, उसकी अस्मत लूटी और मीना से अमीना बनाकर अपने घर में रख लिया। अमीना पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाए गए, यातनाएँ दी गई पर मीना ने अपने बेटे को इस्लाम धर्म के साथ हिन्दू धर्म की भी शिक्षा दी। वैदिक ऋचाएँ और मंत्र भी सिखाए। बड़ा होकर अज्जू पाकिस्तानी सेना में भरती हो जाता है। उसके जेहदी पिता साफी खान की मृत्यु हो जाती है। ऐसे वक़्त में वह अपनी माँ की पितरों को तपर्ण करने इच्छा पूरी करने के लिए 15 दिन की छुट्टी लेकर भारत आता है। माँ भारत आकर टुकड़ों-टुकड़ों में अपनी कहानी बेटे को सुनाती है। तब बेटे का हृदय भीग जाता है। अज़ीज़ हुसैन उर्फ अज्जू को माँ मीना उर्फ अमीना ने उसे सदैव अजीत शुक्ल ही माना है। अज्जू माँ के साथ प्रेतशिला और रामशिला पहाड़ी के धरातल पर बने राममंदिर और रामकुंड में राजौरी घाटी नरसंहार में मृत हुए अपनी माँ के सब पूर्वजों का पिंडदान करने आया है। पूरे उपन्यास में नीरजा माधव ने माँ-बेटे के संवादों के माध्यम से कश्मीर में बसे हिन्दुओं, पाकिस्तानी दहशतगीर आतंकियों और जेहादियों की वास्तविक स्थितियाँ सामने रखती हैं। धर्म के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करती हैं। मनुष्य अपनी अज्ञानता से कैसे धर्म को कट्टर स्वरूप प्रदान करता है इस सम्बंध में अमीना का यह कथन विचारणीय है-"ठीक है बेटा कोई भी धर्म संकीर्ण नहीं होता। उसके अनुयायी उसे इतने बंधनों में बाँध देते हैं कि उसके प्राण तत्व का दम घुट जाता है। मैं इस्लाम धर्म को कट्टर या सांप्रदायिक नहीं मानती। उसमें उन सभी मानवीय मूल्यों की स्थापना है। जिनकी आवश्यकता एक आदर्श जीवन के लिए होती है, परन्तु इस्लाम के कुछ अनुयायियों ने उसे धीरे-धीरे कट्टरता और अंधविश्वास के साथ जोड़ दिया। उस धर्म की आधी दुनिया यानी महिलाएँ एकदम से उपेक्षित जीवन जी रहीं हैं। धर्म हमारे अंदर आस्था और विश्वास जगाता है, जो हमारी मानसिक आवश्यकता है। इसके बिना हमारा जीवन पशुवत् होता है। लेकिन इसी आस्था और विश्वास के चारों ओर कँटीली बाड़ लगाकर स्वयं को इसके अंदर बंद रखने वाले कट्टरपंथी क्या किसी हिंसक पशु की तरह खूँखार नहीं कहे जाएँगे।"
समूचा उपन्यास मुख्य पात्र मीना उर्फ अमीना तथा उसके बेटे अज्जू के चतुर्दिक घूमता है। विभाजन के बाद मीना से बनी अमीना ही अपने बेटे को राजौरी घाटी में रह रहे पच्चीस हज़ार निरीह हिन्दुओं के नृशंस वध की दास्तान बताती है। कश्मीरी आवाम की पीड़ा, कश्मीर में तबाही मचा रहे आतंकवादी, जेहादियों द्वारा धर्म के नाम पर किया जाने वाला नरसंहार और आजीवन घोर यंत्रणा को भोगने वाली अमीना के दृढ़ विश्वास को इस उपन्यास में गहरी अनुभूति और मार्मिकता और पूरी ईमानदारी से नीरजा माधव ने चित्रित किया है। अमीना का पूरा जीवन घोर दुखों में बीता। भारत आने के बाद वह बड़ी आशा और असीम स्नेह लिए अपने बिछड़े भाई से मिलने उसके घर गई थी; लेकिन इतने वर्षों में परिस्थितियाँ बदल गई थीं भाई के घर में भाई से तो प्यार मिला पर उनके बहू-बेटे से अपमान ही मिला क्योंकि उनकी दृष्टि में वह मुस्लिम थी। अज्जू माँ को उनके भाई दद्दन के पास छोड़कर वापस पाकिस्तान अपनी नौकरी पर चला गया था। उसने ठान लिया था कि वह आतंकवाद को जड़ से ख़त्म कर देगा। उसे अपनी माँ के अपमान का बदला लेना था। माँ का अपमान दुनिया का सबसे बड़ा अपमान होता है। अज्जू ने भारतीय सैनिकों से कहा कि अज़ीज़ हुसैन मेरी माँ के ऊपर जबरदस्ती लादे गए धर्म की परिणति है। जबदरस्ती थोपे गए धर्म को (अजीज हुसैन के रूप) को अज्जू ने आज उतार कर फेंक दिया और अपने भारत देश के हित के लिए पाकिस्तानी ठिकाने को नष्ट किया। वह धर्म जो संस्कार बनकर उसकी माँ की रगों में और माँ से बेटे की रगों में दौड़ रहा था, वही उसका असली धर्म था। मानवता का धर्म, इंसानियत का धर्म। जो एक दूसरे को खून का प्यासा नहीं बनाता जो सबके कल्याण और "वसुधैव कुटुम्बकम" की कामना करता है। जो नारी जाति का सम्मान करना जानता है। मीना और अज्जू का उदात्त चरित्र पाठकों को प्रभावित करता है। मीना का दुख जहाँ पाठकों के हृदय को भिगोता है वही उसकी दृ़ढ़ता और अपने देश और धर्म के प्रति अमिट और अगाध स्नेह धारा एक ज्योतिपुंज बनकर रास्ता दिखाती है। उपन्यास इतिहास के उन अदृष्य पृष्ठों को उन सच्चाईयों को प्रमाणिकता के सामने लाता है जिन्हें जानबूझकर हमारी दृृष्टि से ओझल किया गया। एक सच्ची नारी के रूप में नीरजा माधव ने मीना का जो चरित्र रचा है वह हिन्दी कथा साहित्य का एक सशक्त स्त्री चरित्र है जो सौन्दर्य, सद्गुण और दृढ़ता और करुणा का प्रतिरूप है। जिसने अत्यंत विपरीत परिस्थिति में भी बेटे को ऐसे संस्कार दिए मानवता का मस्तक ऊँचा हो गया।
नीरजा माधव एक लेखिका के रूप में इस उपन्यास को रचते हुए उन सनातन भारतीय मूल्यों को रचती हैं जिन पर सम्पूर्ण मानव जाति का भविष्य टिका है। उन्होंने सत्य की पक्षधरता की है वे धर्म और न्याय के साथ खड़ी हैं। वे उस स्त्री की पीड़ा को वाणी दे रही हैं जिसके सामने उसके माँ-बाप और भाई की हत्या कर दी गई हो। जिसकी अस्मिता और आत्म सम्मान को रौंद दिया गया हो जिसे जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कर मीना से अमीना बना दिया हो। उपन्यास का महत्त्व इसलिए बढ़ जाता है कि मीना अमीना बनकर भी अपनी जड़ों से नहीं कटी। उसने अज्जू को जिस संकल्प से पाला था उस संकल्प को पूर्ण करने में सफल भी रही। नीरजा माधव के पास अपनी सशक्त और भावप्रवण भाषा है। मीना की मूल कथा के साथ सिद्धेश्वर और उनके बेटे प्रियंवद की कथा, दद्दन तथा उनके बहू-बेटे, कुसुम और शंभूनाथ की कथा प्रासंगिक कथाओं कें रूप में आती हैं। इन उपन्यास की घटनाएँ सजीव हैं। ऐतिहासिक सत्य को कल्पना के समावेश से उभारने में नीरजा माधव सफल रही हैं। उपन्यास एक जिज्ञासा से प्रारंभ होता है और यह जिज्ञासा अंत तक रहती है। घटनाओं का श्रंृखलाबद्ध विन्यास, पात्रों के बाह्य और अन्तर्जगत का बड़ा विश्वसनीय अंकन उपन्यास को गति प्रदान करता है। कथानक में तारतम्यता, सुगठितता, पात्रों का सजीव चित्रण, देशकाल और वातावरण, भावानुरूप भाषा तथा उपन्यास की विषयवस्तु के अनुकूल भाषा-शैली तथा एक उदात्त संदेश देने वाले उपन्यास का सर्जन करने में नीरजा माधव सफल रही है। -0-
