भारमुक्त / धनेन्द्र "प्रवाही"
एक रोग ग्रस्त वृद्ध ने अपने पुत्र से कहा -
"बेटा! मैं अब कुछ ही दिनों का मेहमान हूँ।गृहस्थी में और तो सब प्रायः ठीक ही है, लेकिन न जाने क्यों अंतिम समय में मेरा मन घर की बूढी गाय पर लगा हुआ है। कई पीढ़ियों से इसने इस परिवार की सेवा की है। इसी की माँ के दूध से तुम पले हो। और क्या, इसने तुम्हारे भी बच्चो को अपना दूध पिला कर पाला है।यह बेचारी अब थक गयी है। वृद्धावस्था में इसे जिस तिस के हाथों बेच मत देना या यूँ ही त्याग नहीं देना।तुमसे कुछ दिनों की सेवा सुश्रूषा पाने का इसका भी हक़ बनता है। गऊ तो ऐसे भी माँ के समान होती है। इस गाय का तो खैर कहना ही क्या?"
अपनी बात समाप्त कर उसने एक आस भरी दृष्टि पुत्र के मुख पर डाली।उसके चेहरे को भावशून्य सा देखकर उसने समझ लिया की बेटे ने उसके 'भाषण' की अनसुनी कर दी। असहाय सा वह निकट ही कड़ी अपनी वृद्ध पत्नी पर नज़र टिकाकर मौन हो गया।बूढी गाय के बहाने कही गयी अपने पति की बात का अभिप्राय वही नहीं उनका बेटा भी भली भाँती समझ रहा था। तथापि बेटे के चेहरे पर अंकित सम्वेदंशुन्यता को पढ़कर अपने लाचार भविष्य के कष्टों का अनुमान कर के वह भीतर से कांप गयी।
जाड़ों के आते ही स्वास रोग ने जोड़ पकड़ा। जर्जर ह्रदय ने असहयोग प्रारंभ कर दिया।कुछ ही दिनों में उस वृद्ध व्यक्ति ने इस धरा धाम से सदा के लिए विदाई ले ली।कडाके की ठंढ का आघात नहीं सह सकने के कारण जल्दी ही उस दिवंगत वृद्ध की बूढी गाय भी उसका अनुगमन कर गोलोक को सिधार गयी। भाग्य से एक साथ ही दो बलाएँ ताल गयी हों जैसे, पुत्र ने राहत की सांस ली। अब बूढी माँ का क्या होगा?
पुत्र पुत्रवधू ने विमर्श किया। पखवारा भी नहीं गुजर पाया कि वृद्धाश्रम की गाडी दरवाजे आन् लगी।
अभ्यागत बुढापा उस पर लड़ कर विदा हो गया।
दम्पति भारमुक्त हो गया।
(पुनर्नवा,दैनिक जागरण 6 April 2007 को प्रकाशित )