भारी भूल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उन्हीं दिनों ब्रह्मपुर के मेले में मुझे एक बड़ा ही कटु अनुभव हुआ और हिंदुओं की गोरक्षा की पोल मैंने बखूबी समझ ली। बक्सर सबडिवीजन के ब्रह्मपुर, जिसे काँटब्रह्मपुर भी कहते हैं और जो पुलिस स्टेशन भी हैं, में फाल्गुन और वैशाख के कृष्णपक्ष के अंत में, शिवरात्रि को, बहुत अच्छा मेला लगता है। वहाँ पशुओं की बिक्री काफी होती हैं। घोड़े, भैंसें, गायें तथा बैल खूब जमा होते और बिकते हैं। वहीं के क्षत्रिय जमींदारों की जमीन में मेला लगने से वे काफी पैसे भी कमाते हैं। फी पशु कुछ पैसे वे वसूल करते हैं। प्रधानतया पशुओं का ही वह मेला माना जाता हैं।

वहीं पर तालाब के किनारे बाबा ब्रह्मेश्वर या वर्मेश्वरनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। उसके पुजारी भी खूब हाथ गरमाते हैं। क्योंकि जितना ही मेला जमेगा उतने ही अधिक आदमी आएँगे और उतना ही ज्यादा चढ़ावा उन्हें मिलेगा ─ शिव बाबा पर उतनी ही ज्यादा (पूजा) चढ़ेगी। इसीलिए धर्म के ठेकेदार पुजारी लोग, जो ब्राह्मण कहे जाते हैं और क्षत्रिय जमींदार, जो हिंदुओं की पोथियों में धर्मरक्षक कहे गए हैं ─ ये दोनों ही चाहते हैं कि मेला बड़े से बड़ा हो। इसका सीधा अर्थ है कि पशु ज्यादा बिकें। यह भी तयशुदा बात है कि पशुओं में ज्यादातर गाय और बैल ही रहते हैं।

पैसा कमानेवाले इन दो दलों के सिवाय एक और भी दल हैं जो वहाँ से कुछ दूर उत्तर गंगा तट पर या तो गंगा में नाव चलाता या घाट का ठीका गवर्नमेंट से या डि. बोर्ड से लेता हैं। ठीकेदार और मल्लाह दोनों ही चाहते हैं कि जितने ज्यादा पशु नाव के द्वारा पार होंगे उतना ही ज्यादा पैसा हमें खेवा के रूप में मिलेगा। इसलिए पशुओं का मेला उस दल के फायदे का है। वह दिल से मेले में ज्यादा पशु चाहता है। उसी दल के जैसा एक चौथा दल पशुओं के व्यापारियों का है जो दूरदराज से झुंड के झुंड गाय-बैलों को खरीद कर मेले में लाता और इस प्रकार उनकी खरीद बिक्री से फायदा उठाता है। इसलिए यह भी स्वभावत: मेले की तरक्की चाहता है जिसका पुनरपि साफ अर्थ है ज्यादा गाय-बैलों की बिक्री। मैंने देखा कि सारन और खास कर चंपारन जिले के व्यापारी झुंड के झुंड पशुओं को गंगा पार कर के उस मेले में लाते हैं।

अब दो दल और रह जाते हैं जो इस पशु बिक्री के समर्थक हैं। एक तो आस-पास की देहात के खरीद-बिक्री करनेवाले या ऐसे लोग भी जो गिरोह के गिरोह पशु खरीद कर दूसरी देहात या और मेलों में बेचते हैं। सामान्यत: तो देहात के लोग आसानी से मेले में अपने गाय-बैलों को बेच-खरीद लेते हैं। लेकिन जिस प्रकार बेचनेवाले व्यापारी पशुओं के दल लाते हैं उसी प्रकार ऐसे खरीदार भी होते हैं जो वहाँ से खरीद कर अन्यत्रा बेचते हैं और इस तरह पैसे कमाते हैं। दूसरा दल कसाइयों का है जो आसानी से बेखटके मेलों में ही गाय-बैल खरीद कर कसाईखानों में बेचता है। उसके लिए मेले से बाहर खरीदना शायद ही संभव हो। उसमें खतरे और दिक्कतें भी हैं। चोरी से खरीदना होगा नाम बदल कर। खर्च भी ज्यादा पड़ेगा। परेशानी भी खूब होगी। कहीं पता लग गया तो लूटपाट, मारपीट और खून खराबी का भी डर है। इसलिए ये लोग भी मेलों की तरक्की चाहते हैं।

सबके ऊपर सरकार है जो इन मेलों की रक्षक बनी बैठी है। उसे यह भी देखना है कि कंटोन्मेंटों (फौजी छावनियों) में गोरे सिपाहियों को बराबर मांस मिल सके। इसलिए जहाँ वह एक ओर मेले की रक्षा चोर-बदमाशों से करती है, ताकि वह बेखटके खरीद कर पशुओं को छावनियों में पहुँचाया करें। अगर ये मेले न हों तो सरकार के लिए भी एक पहेली खड़ी जो जाए कि छावनियों के लिए पशु कहाँ से कैसे खरीदे जाएँगे। इस पहेली को सुलझाना उसके लिए भी आसान नहीं, अत्यंत कठिन, वरन असंभव सी बात है। इसलिए वह भी स्वभावत: मेलों की खैर मनाती ही है। इस प्रकार इन पशुमेलों के समर्थक पूरे सात दल हैं।

ऐसी परिस्थिति में मैंने ना समझी से सोचा कि आज हिंदू-मुसलिम मेल का युग है और यह गाय तथा कसाई का सवाल ही सबसे बड़ा बाधक इस मेले में हैं। क्योंकि तब मस्जिद के सामने बाजा और मंदिर में पूजा, आरती या घड़ियाल बजाने का प्रश्न उठा ही न था और अगर कहीं उठा भी हो तो किसी को उसका आम पता न था। यह तो पीछे उठा है। यह असहयोग युग के बाद की बात है जब 1924 में और उसके बाद शुद्धि और तंजीम की विकट समस्याएँ आ खड़ी हुईं। उसी समय उन्होंने इन पहेलियों को जन्म दिया जो शुद्धि और तंजीम के झगड़े खत्म हो जाने के बाद भी नहीं सुलझी है। प्रत्युत प्रतिदिन पेचीदा बनती जा रही है।

इसीलिए मैंने सोचा और साथियों से राय की कि कोशिश कर के इस सवाल को हल कर दिया जाए। राय बैठ गई और हमने आसपास के जिलों को भी खबर भेज दी कि आप लोग भी कोशिश कर के लोगों को अपने-अपने जिलों में समझा दें, कि ब्रह्मपुर में गाय, बैल न लाएँ। मगर असली काम तो था हमारा शाहाबाद जिले में ही मेले के चारों ओर के इलाके में प्रचार करना। इसके बाद मेले के समय हमने उसके चारों तरफ के रास्तों पर मेले से कुछ दूर कसके पिकेटिंग करवाई कि कोई भी आदमी गाय-बैल मेले में न ला सके। उधर हमने अपने स्वयंसेवकों के दल के दल मेले में लगा दिए कि जो पशु आ भी जाए उन्हें कसाइयों को खरीदने न दिया जाए। इसका सीधा रास्ता हमने यह निकाला कि यत्न कर के कसाइयों को जान लिया और उनके साथ-साथ अपने आदमी लगा दिए। जहाँ ये कसाई जाते वहीं पर धीरे से हमारे आदमी लोगों से कह देते कि यह कसाई है।

इस प्रकार हमने पूरी बंदिश तो की। लेकिन अब हमारी दिक्कतें सुनिए। कसाई लोग बेखटके और बड़ी ही शांति से रोक लिए तो गए। मगर वे नफे के लिए आए थे और अब घर का पैसा खर्च कर के लौटना उनके लिए मौत थी। उस पर खूबी यह कि सरकार और पुलिस उन्हें खरीदवाने के लिए तैयार थी और जरूरत होने से हमारे आदमियों की धरपकड़ भी करती। ऐसा हमें मालूम भी हुआ। मगर तब जब हमने किसी प्रकार कसाइयों को स्टेशन पहुँचा दिया। कसाई लोग डरते भी थे कि कहीं मारपीट न हो जाए। लेकिन पुलिस के बल पर हिम्मत भी रखते थे। इतना ही नहीं। हमने वहीं पर देखा कि कसाइयों के एजेंट ब्राह्मण और दूसरे हिंदू थे जो माथे पर चंदन की बड़ी टीका लगा तथा कंठी बाँध कर यह काम करते थे। हमने कइयों को पकड़ा भी था। इन एजेंटों के बल पर भी कसाइयों को हिम्मत होती थी। हमें डर था कि यदि सरकारी पुलिस ने जोर दे कर खरीद करवाई तो दंगा हो जाएगा और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। इसलिए हम भी डरते थे और कसाई भी। इस तरह वे लोग जैसे-तैसे राजी हुए कि कम-से-कम लौटने का टिकट तो कटवा दीजिए। क्योंकि नफा तो खत्म ही है। खैर, इतना भी तो हो। हमने भी गनीमत समझी और बड़ी दिक्कत से मेले में दो सौ से ज्यादा रुपए चटपट जमा कर उन्हें स्टेशन पहुँचाया तब कहीं साँस ली।

मगर इस बीच में जो असली संकट आया वही तो मजेदार है। हिंदू एजेंटों की बात तो मामूली थी। ज्यों ही हमने मेले के चारों ओर पिकेटिंग शुरू की, कि वहाँ के जमींदार हम पर आगबबूले हो गए। वे कहने लगे कि आप तो हमारा मेला तोड़ कर हमारी आमदनी चौपट कर रहे हैं! मंदिर के पंडे अलग बिगड़े! उन्होंने हो-हल्ला मचाना शुरू किया कि जब गाय-बैल यहाँ आएँगे ही नहीं तो आदमी क्या आएँगे? फिर तो हमारा चढ़ावा ही जाता रहेगा, हमारी आमदनी ही घट जाएगी! इसलिए आप लोग हमारे शत्रु हैं। जो लोग झुंड-के-झुंड पशु लाते थे रोकने पर उनने अलग रोना-चिल्लाना शुरू किया कि बाप रे बाप, हजारों रुपए लगा कर हमने पशु खरीदे हैं। हम तो एक ही बार लौटाने पर उजड़ जाएगे और हमारे बाल-बच्चे मर जाएगे। उधर गंगा के किनारे घाट का ठीकेदार और मल्लाह कहते थे कि पशुओं की आमदनी ही तो असल चीज है। अगर आपने यही रोक दी तो हमारा तो दिवाला ही समझिए लड़के-बाले भूखों मरेंगे। इतना ही नहीं, घर-बार बेच कर हमें सरकार को ठीके का पैसा चुकाना पड़ेगा। इन सबों के सिवाय देहात के लोग अलग बिगड़ते थे कि हम लोगों का तो बराबर का प्रोग्राम ही खत्म हो रहा है। हमारी खरीद-बिक्री, जो निहायत जरूरी और आसान है, मिट्टी में मिल रही है। मेले के दूकानदारों की भी कुछ ऐसी ही हायतौबा थी। सरकार तो रंज थी ही और कलेक्टर साहब के रोष से उस बार हम लोग कैसे बचे यह भी एक कहानी ही है।

यह भी जान लेना चाहिए कि सरकार को छोड़ कर, जो इतना खुल कर आगे आई भी नहीं, शेष सभी ऊपर के बताए अच्छी तरह आगे आए और हमारे खून के प्यासे बन गए। खूबी तो यह कि वे सभी के सभी हिंदू ही थे, सो भी ब्राह्मण क्षत्रियादि। यही लोग गोरक्षा और कसाई का तूफान बहुत मचाते हैं। अगर कसाई गौ खरीद ले तो इन्हीं का धर्म रसातल चला जाता है, इन्हीं के भगवान रंज हो जाते हैं और इन्हीं के लिए रौरव नरक का द्वार खुल जाता है! यही लोग गोरक्षा और गाय गुहार की पुकार दिन-रात मचाते रहते हैं। मगर इनने ही हमारे गोरक्षा के सर्वश्रेष्ठ मार्ग का जी-जान से विरोध किया। हम सबों को ही लाख समझाते रह गए कि आप ही के धर्म की बात है, जिसे आप ही पुकारते हैं। मगर सुने कौन? हमारी दलील, हमारी सरतोड़ कोशिश तो आँधी के सामने पंखे की हवा की तरह थी। फिर उसका असर क्यों होने लगा?

इसका कारण क्या था? यही न, कि धर्म और भगवान उनके सामने आए तो सही, रुपए-पैसे के खिलाफ, रुपए पैसे के विरोधी बन कर। इसीलिए उनका तिरस्कार हुआ। वे सँभल कर नहीं आए। उन्होंने और हमने भी यह नहीं सोचा कि किसके विरोध में खड़े हो रहे हैं। वही तो भारी भूल थी। छोटे धर्म और छोटे भगवान ने बड़े धर्म और बड़े भगवान ─पैसे का ─ विरोध किया और पछाड़े गए। अध्यात्मवाद (Spiritualism) की भौतिकवाद (materialism) से जम के भिड़ंत हुई और अध्यात्म बुरी तरह पछाड़ा गया। उसे आगे के लिए कसके चेतावनी दी गई कि खबरदार, ऐसी भूल फिर कभी न करना, नहीं तो नतीजा देखा न? मेरी तो आँखों का पर्दा ही खुल गया। मैंने साफ देखा कि धर्म का प्रश्न किस कदर बाहरी और दिखावटी है। यह कितने धोखे की चीज है। मेरी कट्टर धार्मिक भावना को बड़ी ठेस लगी और मैं तिलमिला गया।

यद्यपि यह एक ही दृष्टांत धर्म की असलियत पर काफी प्रकाश डालनेवाला था। तथापि उस समय मैंने उसे इतने व्यापक रूप में नहीं लिया। मैंने सिर्फ इतना ही परिणाम निकाला कि हिंदुओं का गोरक्षा का प्रश्न ढोंग और फरेब है, दिखाऊ और बनावटी है। अत: इसमें कभी साथ नहीं देना चाहिए। मैंने यह भी मान लिया कि इस प्रकार गोरक्षा का प्रश्न निरी नादानी है और हिंदू इसे कर भी नहीं सकते। मैंने इस गोहत्या का दोषी तब से सोलहों आने हिंदुओं को ही मानना शुरू कर दिया और आज भी मेरी वह स्थिति ज्यों की त्यों है।

यह ठीक हैं कि वह घटना समस्त धर्म के नाम और वास्तविक रूप पर पूरा प्रकाश डालनेवाली थी, न कि किसी खास धर्म के ऊपर। मैंने आगे चल कर यही समझा भी। मगर उस समय उसका इतना व्यापक निष्कर्ष निकालना मेरे लिए असंभव था। एक तो धर्म का भूत पहले से ही सिर पर सवार था। दूसरे उसी धर्म-भावना से प्रेरित हो कर राजनीति में आया था। तीसरे गाँधी जी राजनीति को धर्म से अलग मानते ही न थे और इसीलिए उसके सभी पहलुओं को धार्मिक रूप दे रहे थे। और मैं था उन दिनों उनका कट्टर हिमायती। नियमित रूप से यंग इंडिया पढ़ता था। इसलिए सहसा मेरे लिए यह असंभव था कि पूरे धर्म के संबंध में ही वैसा निष्कर्ष उस घटना से निकालूँ।

सच बात तो यह है कि बाहरी दुनिया का उस समय वैसा पूरा और निकट से अनुभव भी मुझे न था। लेकिन पीछे तो अनुभव ने बताया है कि धर्म की वही हालत ही है। फलत: आज धर्म के बारे में मेरी विचित्र परिस्थिति है। एक ओर तो पचासों वर्षों का पूरा संस्कार है और उसी के साथ गीता मेरी रगों में भिनी हुई है। दूसरी ओर ठीक उसके विपरीत जीवन भर के अनुभव हैं, सो भी अत्यंत निकट से। इसलिए आगे क्या होगा यह कह नहीं सकता। लेकिन यह ठीक है कि आज धर्म के संबंध की मेरी पुरानी धारणाएँ छिन्न और निर्मूल हो गई हैं और उसके बारे में मेरे विचारों में क्रांति हो गई है। उसके लिए जिस रूप में जैसा स्थान मेरे दिल में हैं उसका वर्णन अन्त में मिलेगा। फिर भी इतना तो ठीक ही हैं कि धर्म सार्वजनिक वस्तु नहीं है और न वह सबके लिए है भी। यह तो अपवाद-रूप ही किसी-किसी के लिए है, न कि नियम के रूप में। सो भी बिलकुल व्यक्तिगत चीज है। उसका भी रूप मैं कुछ निराला ही मानता हूँ जो प्रचलित धारणा से सर्वथा भिन्न है।