भावना सक्सैना के हाइकु / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
हाइकु लिखना एक बात है, हाइकु रचना नितान्त अलग। बहुत से ऐसे भी आशुकवि हैं, जो किसी भी परिस्थिति में सर्जन कर सकते हैं। एक दिन में 200-250 हाइकु लिखने वाले भी हैं। बस 5-7-5 का क्रम बना रहे। इस तरह के काव्य का ढेर लगाना बहुत आसान है। अधिकतर रचनाकारों की शक्ति छन्द को सँभालने में ही लग जाती है। इस कठिन विधा को बहुत आसान समझ लिया गया है। यही सबसे बड़ी चूक है। हाइकु का सर्जन तभी सफल हो सकता है, जब कवि विषयानुसार सन्तुलित और संयमित भाषा को सहजता से प्रयुक्त कर सके. जिसका भाषा और उसकी संवेदना पर पकड़ नहीं, वह हाइकु के क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता है।
भावना सक्सैना के हाइकु से मेरा पहला परिचय 8 दिसम्बर, 2011 को हुआ। 'स्नेहपूरित मन' शीर्षक से 'हिन्दी हाइकु' पर आपके हाइकु छपे। जिसका पहला हाइकु था–'देख दर्पण / आक्रांत हुआ मन / बीता यौवन।' इन तीन पंक्तियों में पूरा जीवन-सत्य उतार दिया। इस हाइकु के लघु कलेवर में जीवन का बहुत विस्तार है, गहन व्याख्या है। आपका संग्रह 'काँच-सा मन' विगत वर्षों के निरन्तर सर्जन का ही प्रतिफलन है। अपने संग्रह का आरम्भ आपने गहन हृदय की सम्पूर्ण आस्था से किया है। बाती बुझ भी जाए, तो भी उसमें 'नेह' बचा रहता है। श्लेष के माध्यम से कहा है-
• बुझी बाती में / ज्यों रहे शेष नेह / बसो हृदय।
उसी निर्गुण ईश्वर को मन अर्पित करके आगे बढ़ने का जो उपक्रम किया है-वह है धर्म, जो मानवमात्र को जोड़ने का काम करता है। जो लड़ाता है, वह कुछ भी हो, धर्म नहीं हो सकता-
• धर्म के सेतु / पहुँचे मीलों दूर / रहे जोड़ते।
ईश्वर के बाद अगर कुछ महत्त्वपूर्ण है, तो वह है, प्रकृति। यह मानव से पहले भी थी, बाद में भी रहेगी। धरा, तरु, पतझर पाखी, चन्द्रमा, आकाश, साँझ, निशा, भोर, नदी, लहर, सब एक दूसरे से जुड़े हैं, माला में पुष्पोन की तरह अनुस्यूत हैं। भावना सक्सैना के हाइकु में यह प्रकृति कहीं उपादान के रूप में है, तो कहीं उद्दीपन या प्रतीक रूप में। मानवीकरण का रूप बहुत गहराई से चित्रित हुआ है। उदास तरु, लहर का भीगना और लजाना, निशा का दर्द पी जाना, नीम का अकेलापन, नव पाहुन का आना, पुराने पात, लटों पर जुगनू सजाना, झील का दर्पन में निहारना आदि प्रयोग हाइकु को जीवन्त बना देते हैं। यही अच्छे हाइकु की सफलता है। निम्नलिखित हाइकु में यह वैविध्य देखा जा सकता-
• उदास तरु / था पाखियों का डेरा / आज अकेला।
• चाँद ने छुआ / लहर उठ आई / भीगी लजाई.
• साँझ बहाए / अँजुरी भर दर्द / निशा पी जाए.
• सूना आँगन / उड़ गए हैं पंछी / नीम अकेला।
• आहट बिन / नव पाहुन आया / खिली बगिया।
• सूना—सा मन / पतझर के दिन / भीगी अँखियाँ।
• पात पुराने / कहें एक कहानी- / बीती जवानी!
• सजा जुगनू / उलझी लटों पर / निशा दमकी।
• झील-दर्पन / देख रही घटाएँ / केश फैलाएँ।
उपादान के रूप में हाइकु, हाइकु न रहकर किसी कलाकार का स्कैच बन जाते हैं-
• सर्द हवाएँ / गुम हुआ सूरज / आ मिल ढूँढें।
• बुहारा हुआ / आसमान साँझ का / सुखद दृश्य।
• नवल गात / पहन भोर आई, / खिला संसार।
• उतरी साँझ / निशा-आँचल फैला / तम ने सींचा।
सार रूप में कहा जाए तो भावना सक्सैना का सौन्दर्यबोध प्रकृति-चित्रण में अधिक मुखर हुआ है। मानव की प्रकृति विरोधी गतिविधियों पर भी कवयित्री की दृष्टि है। पर्यावरण विनाश का दुष्प्रभाव सामने है-
• यह क्या किया? / सूखे नदी-जंगल / दहकी धरा।
• धुआँ दैत्य-सा / पसरा हर ओर / लीलता साँसें।
मनुष्य बहुत सारी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ पोषित करता है। पूरी हों या न हों ये ही उसके जीवन का आकर्षण हैं, सहारा हैं; लेकिन प्राय: होता यह है कि हम इनको पूरा करने की तरफ़ बढ़ ही नहीं पाते। हमारे जीवन में बहुत से अनपेक्षित अवरोध हमें पीछे खीच लेते हैं। ये सांसारिक बन्धन या थोपी गई मान्यताएँ जीवन की सारी खुशियों का रस निचोड़ लेते हैं। खुशियों के सारे पल चुपचाप हाथ से निकल जाते हैं। हम अपने मन को मुक्त न करके बन्धनों में जकड़ देते हैं-
• टूटती रहीं / कितने टुकड़ों में / चाहतें सभी।
• ढोते हैं काँधे / कितना बेमतलब / नया पुराना।
• सहेजे पल / अँजुरी भर-भर / रोक न पाई.
• क्यों उलझन / बाँधा है जब स्वयं / अपना मन।
यह सत्य है कि धैर्य खोकर कुछ संचित नहीं किया जा सकता जीवन का प्यारा पल हमारे पास आता है। हम जब तक उसको समझने और सहेजने की कोशिश करते हैं, वह तब तक विलीन हो जाता है। यौवन का सौरभ उड़ जाता है। अशान्ति फिर भी बनी रहती है; क्योंकि भौतिक सुख-सुविधाएँ तृप्ति न देकर मृगतृष्णा ही जगाती हैं।
• सदा से भरी / धीरज की गागर / रीतेगी नहीं।
• ओस की बूँद / बस इक प्यारा पल / यही जीवन।
• देख दर्पण / आक्रांत हुआ मन / बीता यौवन।
• सुख-सुविधा / सब कुछ है पास / फिर भी प्यास।
हम लोक-लाज के कारण किसी न किसी रूप में बनावटी जीवन जीने के आदी हो गए हैं। हमारा मन तनिक-सी बात पर आहत हो जाता है। शब्दों के नश्तर हमको घायल कर जाते हैं
• रात न सोई / फिर भी मुस्काए / कितने दिन।
• मन माटी के / निर्मल कोमल हैं / झरे ठेस से।
• शब्द-नश्तर / गड़ जाते हैं पैने / बींधते मन।
कवयित्री अपने रिश्तों के प्रति जागरूक है। भाव की शुचिता के बल पर ही सम्बन्ध जीवित रहते हैं; लेकिन कभी-कभी बहुत सहेजने पर भी रिश्तों में दरार आ ही जाती है। अम्मा का रिश्ता सबसे ऊपर है-
• भावों के रिश्ते / रहते उम्र भर / टूटें स्वार्थ के.
• सँजोए रिश्ते / काँच-से नाज़ुक / दरक गए.
• अम्मा का साया / हुआ दूर जबसे / प्यासा है मन
यदि मन में कोई गाँठ होगी, रिश्तों के प्रति उदासीनता होगी, तो ऐसे रिश्ते बहुत दिन नहीं चल पाएँगे। भावना सक्सैना अपने हाइकु में इंगित किया है-
• गिरहें बाँध / जो चले उम्र भर / उलझे स्वयं।
• बरसों चुप्पी / हिरा गया संगीत / मृदु रिश्तों का।
बिछुड़ने की पीड़ा मानव-मन का एक दुर्निवार पल है। फिर मिलना सम्भव न हो तो मन की व्यथा तथा निराशा और बढ़ जाती है। मिलन की आतुरता और तीव्र हो जाती है। 'आगोश में लो' उस आतुरता का अक्षुण्ण अनुवाद है
• बिछुड़े अब / फिर कहाँ मिलेंगे / द्रवित मन।
• पूरा है चाँद / मादक हवाएँ है / आगोश में लो।
प्रिय के लिए फिर भी आशा की एक किरण दुआ के रूप में बची रहती है। प्रिय का साथ होना ही जीवन का रंग है रूप है और रस है-
• छुए जो तुम्हें / बरसा जाए सुख / महके हवा।
• रातें उजली / दिन हों सुवासित / प्रिय हों संग।
'यादें' विषय पर भी प्रभावी हाइकु रचे हैं। अपने कहलाने वाले ही हमको अधिक चोट पहुँचाते हैं। फिर भी प्रीत का निर्वाह करना पड़ता है। हमारी स्मृतियाँ ही हमारी सबसे बड़ी पूँजी है, जिनको सहेजकर हम जीवन-यात्रा पूरी कर लेते हैं। इनके ये हाइकु उल्लेखनीय हैं-
• दिल के जख्म / अपनों की निशानी / प्रीत निभानी।
• मन की मीत / गठरी यादों भरी / भींच सहेजूँ।
भावना सक्सैना चुपचाप इतने बरसों गम्भीरतापूर्वक भावपूर्ण हाइकु सर्जन में लगी रही। अन्य अधीर रचनाकारों की तरह से पुस्तक-प्रकाशन में हड़बड़ी नहीं दिखाई. मैं आशा करता हूँ कि इनके हाइकु का प्रबुद्ध साहित्यकारों के बीच वांछित स्वागत किया जाएगा।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'