भाव-जगत् के मोती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जीवन में क्षण का बहुत महत्त्व है। संस्कृत की प्रसिद्ध उक्ति है-
आयुष: क्षण एकोपि, न लभ्य: कल्पकोटिभि:।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन, क्षणमेकं न लंघयेत्॥
करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी आयु का बीता हुआ एक क्षण भी फिर लौट नहीं सकता। अत: ऐसा प्रयत्न करना चहिए कि जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ न हो जाए।
जीवन की उथल-पुथल का चिन्तन-मनन और मन्थन करते समय कुछ अनुभूतियाँ पलभर के लिए मन की सतह पर उभरती हैं, जो पलक झपकते ही विलीन भी हो जाती हैं। ये क्षणिक अनुभूतियाँ तीव्रता से बँधी और कसी होती हैं। ये न किसी कथ्य का सारांश होती हैं, न आराम से बैठकर गढ़ी जा सकती हैं। महत्त्वपूर्ण मन-सिन्धु से अचानक बिन्दु की तरह उछला, पकड़ में आया, तो कुछ रच गया, छूट गया, तो फिर प्रायः पकड़ में नहीं आता। यह अनुभूति-तीव्रता और संश्लिष्टता के साथ अभिव्यक्त हो जाने पर, क्षण को आभामय मोती का स्वरूप प्रदान कर देती है, यही है क्षण से उपजी क्षणिका। उथला चिन्तन, इसके सर्जन का आधार नहीं बन सकता। इसमें तुकान्त का बन्धन नहीं, हाइकु, ताँका, सेदोका, चौपाई या माहिया का छन्द-विधान नहीं। कुछ लोगों ने क्षणिका बनाने के लिए चौपाई को टुकड़ों में तोड़कर अपना नाम क्षणिका के रचनाकारों में जुड़वाने का भी प्रयास किया है। क्षणिका में कोई तीन या आठ-नौ पंक्तियों का नियम नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि वह किसी भाव का विस्तार नहीं है, साथ ही किसी विस्तृत भाव का सार भी नहीं है, उसका कलेवर विस्तार की माँग नहीं करता।
यहाँ मैं डॉ. जेन्नी शबनम की क्षणिकाओं पर चर्चा करना चाहूँगा। वे अज्ञेय या सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की तरह बड़ी कवयित्री (साहित्य-जगत् की भीड़ में) नहीं हैं; लेकिन क्षणिका सर्जन के क्षेत्र में किसी बड़े नामधारी कवि से कहीं भी कमतर नहीं हैं। मैं नहीं कह सकता कि बहुत से कवियों के पास इतनी अधिक इस तरह की क्षणिकाएँ होंगी। इनकी एक क्षणिका से मैं क्षणिका को परिभाषित करना चाहूँगा—
जो भी लम्हा मिले, चुन-चुनकर बटोरती हूँ
दामन में अपने जतन से सहेजती हूँ
न जाने फिर कभी, वक़्त मिले न मिले। (वक़्त मिले न मिले)
संसार में सुख की प्राप्ति के लिए हर आदमी दौड़ रहा है। इस मृगतृष्णा में केवल दु: ख ही मिलता है। सब तो प्रेम को प्राप्त करने के लिए मरुभूमि में रात-दिन दौड़ लगाते हैं, लेकिन यह प्यास बुझती कहाँ है? दुनिया प्रेम के विरुद्ध ही लामबन्द हो जाती है—
प्रेम की चाहत कभी कम नहीं होती / ज़िन्दगी बस दुनियादारी में कटती है
कमबख़्त ये दुनिया बहुत रुलाती है। (दुनिया बहुत रुलाती है)
इस दुनिया के दो रूप हैं-एक वह, जिसमें दुनियादारी के औपचारिक सम्बन्ध हैं, झूठी आत्मीयता, जूठी हँसी और इन सबके ऊपर छद्म रूप का पीड़ामय आवरण। इस शिष्टाचार के आवरण के पीछे इंसान की उदासी छिपी होती है, जिससे मुक्ति सम्भव नहीं है-
ज़बरन प्रेम, ज़बरन रिश्ते / ज़बरन साँसों की आवाजाही /
काश! कोई ज़बरन उदासी भी छीन ले! (उदासी)
रिश्ते और प्यार, दो ध्रुव हैं जो कभी नहीं मिलते। दोनों ध्रुवों का मौसम भी एक दूसरे के विपरीत होता है। रिश्ते बन्धन हैं, सीमाबद्ध हैं, घुटन का ही एक रूप हैं। प्यार मुक्त है, सीमाहीन है, निर्मल अम्बर की तरह। कई बार जब परवाह नहीं की जाती है, तो प्रेम के सम्बन्ध भी चुभने लगते हैं—
रिश्तों की भीड़ में / प्यार गुम हो गया है / प्यार ढूँढती हूँ / बस रिश्ते ही हाथ आते हैं। (रिश्ते)
कई बार प्रेम के रिश्ते फाँस-से चुभते हैं / इसलिए नहीं कि रिश्ते ने दर्द दिया-
-इसलिए कि रिश्ते ने परवाह नहीं की / और प्रेम की आधारशिला परवाह होती है। (परवाह)
जेन्नी शबनम कुछ विषयों पर तो ऐसा चित्र खींच देती हैं कि काव्य की सादगी और कथ्य का भोलापन पूर्णतया अनुस्यूत हो जाते हैं। इस क्षणिका में 'शैतान' होने का लक्षण देखिए—ऐ चाँद! तेरे माथे पर जो दाग़ है / क्या मैंने तुम्हें मारा था?
अम्मा कहती है-मैं बहुत शैतान थी / और कुछ भी कर सकती थी। (चाँद का दाग़)
निराशा, हताशा तो सभी के जीवन में हैं, लेकिन जिससे जीवन चलता है, वह उजाला, वह जीवनीशक्ति ही आगे बढ़ने की सामर्थ्य का आधार है-
चाहती हूँ दिन के उजाले की कुछ किरणें / मुट्ठी में बंद कर लूँ / घनी काली रातें लिपटकर डराती हों मुझे
मुट्ठी खोल, थोड़ा उजाला पी लूँ / थोड़ी-सी, ज़िन्दगी जी लूँ। (उजाला पी लूँ)
देह की बात और जीवन की ऊष्मा को कोई नहीं समझ पाता। सम्बल न होने पर भी कवयित्री का यह दृढ़ विश्वास है कि उजाला पीने का। जीवन का यही सोच देर-सवेर मौसम के बदलने के लिए आशान्वित है-
देह की बात, मन की आँच कोई न समझा / रुदन-क्रंदन कोई न सुना
युग बीता, सब टूटा सब पथराया / धूमिल आस, सम्बल नहीं पर विश्वास
देर से सही, मौसम बदलेगा। (मौसम बदलेगा)
नारी और प्रकृति दोनों ही गूढ़ रहस्यमयी हैं। इसे केवल स्त्री ही पढ़ सकती है। उसको समझने के सारे प्रयास व्यर्थ हैं। उसे वही समझ सकता है, जिसे वह अपना प्यार देगी। इन पाँच पंक्तियों के चिन्तन की तीव्रता क्षणिका के गुण-धर्म का बेजोड़ उदाहरण है-
स्त्री की डायरी उसका सच नहीं बाँचती / स्त्री की डायरी में उसका सच अलिखित छपा होता है
इसे वही पढ़ सकता है, जिसे वह चाहेगी, / भले ही दुनिया अपने मनमाफ़िक़
उसकी डायरी में हर्फ़ अंकित कर ले। (स्त्री की डायरी)
सुख-दु: ख की परिभाषा और स्वरूप अनेक ग्रन्थों में वर्णित हैं। जेन्नी जी की इस क्षणिका में एक सहज बिम्ब देखिए, जिसमें सांकेतिक रूप से मायके की टिन की पेटी का सन्दर्भ है। मायके से बहुत कुछ मिला है, तो वह टिन की पेटी भी मिली है, जिसमें नया-पुराना बहुत कुछ सहेजकर रखा जा सकता है-
तिनका-तिनका जोड़कर सुख-दुःख जुटाया है / सुख कभी-कभी झाँककर
अपने होने का एहसास कराता है / दुःख सोचता है-कभी तो मैं भूलूँ उसे
ज़रा देर वह आराम करे / मेरे मायके की टिन की पेटी में। (सुख-दुःख जुटाया है)
सारे दु: खों के बीच कोई न कोई किरण, किसी न किसी जन्म का कोई अटूट सम्बन्ध ऐसा ज़रूर होता है, जो आदमी को जीने का सम्बल प्रदान करता है। यह सम्बन्ध सारे देवत्व से परे है, ऊपर है। जिसे देव नहीं जानता, उसे वह जानता है-
सुनती हूँ कि कोई फ़रिश्ता है / जो सब का हाल जानता है
पर मेरा? वह मुझे नहीं जानता / तुम मुझे जानते हो, जीने का हौसला देते हो
जाने किस जन्म में तुम मेरे कौन थे / जो अब मेरे फ़रिश्ता हो। (फ़रिश्ता)
जब समय हमारे हाथ में होता है, हम जीवन के सुखद क्षणों को हाथ से फिसलने देते हैं, उसके महत्त्व को न समझते हैं, न उसका सम्मान करते हैं। 'पुकार' में यही चेतावनी है। 'आओ मेरे पास' में जिजीविषा है, जिसकी तीव्रता भीतर तक कचोट जाती है-
हाँ! मुझे मालूम है / एक दिन तुम याद करोगे / मुझे पुकारोगे, पर मैं नहीं आऊँगी
चाहकर भी न आ पाऊँगी / इसलिए जब तक हूँ, क़रीब रहोXX (पुकार)
— / आओ प्यार से छुओ मुझे / जानूँ कि मुझमें सिर्फ़ काँटें नहीं
आओ आगोश में भर लो मुझे / जानूँ कि मेरा जीवित होना भ्रम नहीं। (आओ मेरे पास)
प्रकृति से हमारा सान्निध्य टूट चुका है, 'खिड़की मर गई है' में खिड़की के प्रतीक और मानवीकरण को बहुत ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है, जिससे कुछ खोने का आभास हमें कचोटता है। कवयित्री की भाषा का सौष्ठव क्षणिका को धारदार बनाता है-
खिड़की बंद हो गई, वह बाहर नहीं झाँकती / आसमान और ताज़ा हवा से नाता टूट गया
XXX गोया खिड़की मर गई है। (खिड़की मर गई है)
पुन: रिश्तों के सन्दर्भ में जेन्नी जी की कुछ क्षणिकाएँ प्रस्तुत हैं, जिनकी गहनता पाठक को उद्वेलित करती है। कवयित्री का रचनाकर्म कितना गहन है, यह अनुभव मर्मज्ञ ज़रूर करेंगे। बिना किसी अपेक्षा के बने 'बेशर्त रिश्ते' और 'ख़ूबसूरत रिश्ते' , जिनको बचाने के लिए काला टीका लगाने की ज़रूरत है, इसके-इसके अच्छे उदाहरण हैं—
कुछ रिश्ते बेशर्त होते हैं / बिना किसी अपेक्षा के जीते हैं
जी चाहता है अपने जीवन की सारी शर्तें / उन पर निछावर कर दूँ
जब तक जिऊँ बेशर्त रिश्ते निभाऊँ। (बेशर्त रिश्ते)
-कुछ रिश्ते ख़ूबसूरत होते हैं / इतने कि ख़ुद की भी नज़र लग जाती है
जी चाहता है इनको काला टीका लगा दूँ / लाल मिर्च से नज़र उतार दूँ
बुरी नज़र... जाने कब... किसकी...! (ख़ूबसूरत रिश्ते)
'स्टैचू बोल दे' आपकी बहुत महत्त्वपूर्ण क्षणिका है, जो भाषा-शिल्प और अनुभूति दोनों ही निकष पर खरी उतरती है। क्षण को बाँधने का सर्थक प्रयास-
जी चाहता है / उन पलों को तू स्टैचू बोल दे
जिन पलों में वह साथ हो / और फिर भूल जा। (स्टैचू बोल दे)
दूसरी ओर 'जी चाहता' में जीवन और व्यवस्था के प्रति एक आक्रोश भी है—
जी चाहता है / तुम्हारे साथ गुज़ारी सभी यादों को /
धधकते चूल्हे में झोंक दूँ और फिर पानी डाल दूँ / ताकि चिंगारी भी शेष न बचे।
क्या 'कर्मों का पन्ना' फाड़ा जा सकता है? वह भी चित्रगुप्त के ऑफ़िस में जाकर नहीं, बल्कि धमककर, फिर उस पन्ने से पंख बनाकर सीमाओं से दूर उड़ जाना और चित्रगुप्त को ही धता बात देना कि आ तू मेरा क्या बिगाड़ सकता है-दुर्लभ अभिव्यक्ति, जिससे जेन्नी अपने को स्तरीय क्षणिका रचने वालों की पंक्ति में खड़ा कर लेती है-
जी चाहता है / तुम्हारा हाथ पकड़ धमक जाऊँ / चित्रगुप्त जी के ऑफिस
रजिस्टर में से हमारे कर्मों का पन्ना फाड़कर /
उससे पंख बना उड़ जाऊँ सभी सीमाओं से दूर। (कर्मों का पन्ना)
प्रेम की सहज अनुभूति को सुबह की धूप के माध्यम से बड़ी सादगी से इस क्षणिका में उकेर दिया गया है; क्योंकि सुबह की धूप और प्रिय दोनों ज़रूरी हैं, तन-मन के लिए-
-चाहती हूँ- / धूप में घुसकर तुम आ जाओ छत पर
बड़े दिनों से मुलाक़ात न हुई / जीभरकर बात न हुई
यूँ भी सुबह की धूप देह के लिए ज़रूरी है / और तुम मेरे मन के लिए। (तुम)
हमारा जीवन अच्छे-बुरे कई तरह के सवालों से भरा होता है। सबका उत्तर देते-देते जीवन समाप्त हो जाता है, पर सवाल ख़त्म नहीं होते। जेन्नी जी की उत्कण्ठा है कि सवाल चुपचाप मर क्यों नहीं जाते! मर जाएँ, तो आदमी चैन से जी सके—
सवालों की उम्र / कभी छोटी क्यों नहीं होती?
क्यों ज़िन्दगी के बराबर होती है? / जवाब न मिले, तो सवाल चुपचाप मर क्यों नहीं जाते?
(कुछ सवाल, 5-सवालों की उम्र)
जीवन का सच यही है कि जो पाया है, वह खो जाना है- -न कोई कल था / न कोई आज है / जो पाया, सब खोया / जीवन का यही सच है। (सच)
इस सच में एक बात और जुड़ जाती है-घर की। घर क्या है? बहुत व्यथा के साथ जो घर का कोना बताया गया है, वह सचमुच डराता है-
रात के सीने में हज़ारों चमकते कोने हैं / पर वहाँ एक महफूज़ कोना भी है
जहाँ सबका प्रवेश वर्जित है / वहाँ अँधेरा ही अँधेरा है / बस वहीं, घर मेरा है। (मेरा घर)
औरत का यह घर है, तो औरत क्या है? जेन्नी जी ने इसे नमक, सिन्दूर और ज़हर के प्रतीकों में इस प्रकार व्यक्त किया है—
एक चुटकी नमक / एक चुटकी सिन्दूर / एक चुटकी ज़हर /
मुझे औरत करते रहे / ज़िन्दगी भर। (1-औरत)
अन्त में जेन्नी शबनम के ही शब्दों में क्षणिका के स्वरूप के बारे में अपनी बात का समापन करना चाहूँगा—
वक़्त बस एक क्षण देता है / बन जाएँ या बिगड़ जाएँ
जी जाएँ या मर जाएँ / उस एक क्षण को मुट्ठी में समेटना है
वर्तमान भी वही, भविष्य भी वही / बस एक क्षण / जो हमारा है सिर्फ़ हमारा। (13-क्षण)
क्षणिका का बनना और बिगड़ना इसी एक क्षण पर निर्भर है और यह क्षण आता है, बनाया नहीं जाता, पकड़ा जाता है। पकड़ में नहीं आया, तो क्षणिका भी नहीं बनती।
पाठक इस संग्रह को जब पढ़ेंगे, तो स्वय को किसी दूसरे ही भाव-जगत् में पाएँगे। -0-
6 दिसम्बर 2021