भाव प्रवाहयुक्त विधा त्रिवेणी: तीसरा पहर / सुरंगमा यादव

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श्री रामेश्वर काम्बोज जी का सद्यः प्रकाशित ताँका-सेदोका-चोका संग्रह ‘तीसरा पहर’ में 150 ताँका, 132 सेदोका व 44 चोका है। सितम्बर 2012 के बाद लिखे ताँका व सेदोका को फाइलों के पृष्ठों से मुक्ति प्रदान करके इन्होंने, इनको चोका का साथी बना दिया है। उन्होंने पुस्तक में स्वयं लिखा है,’’ सितम्बर 2012 के बाद के ताँका व सेदोका फाइलों में ही पड़े रहे। अब इनकी मुक्ति का अवसर आया, तो चोका के साथ इनको भी तीसरे पहर में समेट रहा हूँ।" दार्शनिक भाव की यह पंक्ति अचानक जीवन की वास्तविकता की ओर संकेत कर देती है, मन ठहरकर सोचने लगता है कि क्या सचमुच समय आ गया है, जब हमें अपने बिखरे कार्यों को समेटकर सुव्यवस्थित कर देना चाहिए। समय की गति अति तीव्र है, आज के काम कल पर टालना उचित नहीं है। यद्यपि उक्त पंक्ति आपने अपने इस संग्रह के विषय में कही है; लेकिन जैसा कि उनका ही कथन है, पाठक अपना अर्थ-ग्रहण करने के लिए स्वतन्त्र है।य् मेरे मन में यह पंक्ति पढ़कर स्वतः ही ये विचार आ गए। शायद मैं विषय से थोड़ा हटकर सोचने लगी। आइए संग्रह का अवलोकन करते हैं। ताँका-सेदोका-चोका की इस त्रिवेणी में कोई किसी से कम नहीं है। तीनों विधाओं का संगम सहृदय के मन-मानस को एक अलग भावभूमि पर ले जाता है, जहाँ भावों के प्रवाह में अवगाहन करके पाठक परमानन्द प्राप्त करता है। सुकोमल कल्पनाएँ, मृदु भावनाएँ, प्रेम व सौन्दर्य तथा सामाजिक सरोकार सब सहज रूप में प्रकट हो रहे हैं।

ताँका जापान की सैकड़ों साल पुरानी विधा है। ताँका का शाब्दिक अर्थ है ‘लघुगीत’ अथवा छोटी कविता। इस विधा को जापान में नौंवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के मध्य विशेष प्रसिद्धि मिली। उस समय इसमें मुख्यतः धार्मिक विषयों से सम्बन्धित रचनाएँ होती थीं, परन्तु अब ताँका किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं है। इसकी संरचना 5+7+5+7+7=31 वर्णों तथा पाँच पंक्तियों में लिखी जाती है। 31 वर्णों के संक्षिप्त कलेवर में भावों को पिरोना सतत् अभ्यास व शब्द-साधना द्वारा ही संभव है। काम्बोज जी ऐसे साहित्य साधक हैं, जिनकी रचनाओं में भावानुकूल शब्द प्रयोग अभिव्यक्ति को और अधिक प्रभावशाली बना देता है।सेदोका भी जापानी काव्य विधा है। ये क्रमशः 5+7+7+5+7+7=38 वर्णों तथा छह पंक्तियों की कविता है।

ताँका व सेदोका की तरह चोका भी जापानी काव्य शैली है। यह उक्त दोनों विधाओं के विपरीत लम्बी कविता है। चोका में 5 व 7 वर्णों की पंक्तियों की आवृत्ति होती है तथा लम्बाई का कोई मानक निर्धारित नहीं है। अंत में 7, 7 वर्ण की दो पंक्तियाँ होना आवश्यक है।

कविता के शिल्प के अनुशासन का पालन करके ढाँचा तो कोई भी खड़ा कर सकता है; लेकिन यदि उसमें भाव रूपी आत्मा व काव्य तत्त्व न हो तो कविता गतिहीन हो जाती है तथा पाठक तक नहीं पहुँच पाती। काम्बोज जी की कविता भावों की धनी, सम्प्रेषणीय तथा पीड़ा पर मरहम रखने वाली है। कवि की रचनाओं में व्यक्त सुख-दुख आवश्यक नहीं है कि उसी के जीवन का हिस्सा हो। काम्बोज जी का यही विचार है, रचना में सारा सुख-दुख उसी का नहीं होता, समाज में किसी भी वर्ग व व्यक्ति का हो सकता है।य् मानवीय भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति आपकी रचनाओं में मिलती है।

अपनों से मिली पीड़ा असहनीय होती है। विश्वास का टूटना मन का ही टूटना है। दर्पण में पड़ी दरार और खण्डित विश्वास मन के लिए शुभ संकेत नहीं होते। पहला ही ताँका इसी पीड़ा को व्यक्त कर रहा है –

किसे था पता- /ये दिन भी आएँगे/ अपने सभी/ पाषाण हो जाएँगे/ चोट पहुँचाएँगे।

कवि प्यार को रिश्तों में नहीं बाँधना चाहता; क्योंकि उनकी दृष्टि में प्यार हर रिश्ते से ऊँचा है, नाम के बन्धन में प्यार संकुचित होने लगता है –

हैं रिश्ते छोटे/ इस जग के सारे/ प्यार है ऊँचा/ इसे नाम नहीं दो। नाम बोझ है----/

कपटी रिश्तों वे तर्पण कर देना चाहते हैं –

दोष न देंगे/ हम आज किसी को/ लेकर नाम/ ये तर्पण कर दो/ रिश्ते तमाम/ स्वाहा हो गया सब/ बची है भस्म---- (पृ- 58)

जीवन में कुछ लोग ऐसे भी आ जाते हैं, जिनके लिए आप अपना सर्वस्व न्योछावर कर दें, तो भी वे पसीजेंगे नहीं, बल्कि अपनी कठोरता से चोटिल ही करेंगे। ऐसे में स्वयं मन को सांत्वना देकर सँभालना कठिन तो है, परन्तु इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय भी तो नहीं होता –

ओ मेरे मन!/ तू सभी से प्यार की/ आशा न रख/ पाहन पर दूब/ कभी जमती नहीं। (ताँका, पृ- 11)

आपकी रचनाओं का आशावादी स्वर पीड़ित जनों को ढाँढस बँधाता है। अँधेरे कितने भी घने हों, सारा संसार अंधकार में डूब जाए; परन्तु मन नहीं डूबना चाहिए, क्योंकि मन के डूबने के बाद सवेरा होना मुश्किल है। इसीलिए आप आशा का दामन कभी नहीं छोड़ते –

हार जाएँगी/ घुमड़ती आँधियाँ/ अडिग शिला!/ शिव संकल्प लिया -/ ‘क्षितिज हम छुएँ।’ (ताँका, पृ- 22)

जीवन पर्यन्त संघर्ष व परिश्रम करके भी यदि उसका प्रतिफल न मिले, तो निराशा स्वाभाविक है। इस संदर्भ में ‘उम्र-खेत से सिला’ बीनने का उपमान बड़ा अनूठा है –

शिथिल तन/ रुदन-भरा कंठ/ हिचकी उठी/ बीनती बरौनियाँ/ उम्र-खेत से ‘सिला’। (ताँका, पृ- 23)

संवेदनशील साहित्यकार अपने समय व समाज से विमुख नहीं हो सकता। पीड़ा अपनी हो या पराई, उसे समान रूप से उद्वेलित करती है –

निहोरा करें/ पथराई हैं आँखें/ अम्बर न सुनता/ मातम हुआ/ सब दिन हैं प़फ़ाके/ घर में किसानों के। (सेदोका, पृ- 42)


आज हम आधुनिकता का दम्भ भरते हैं, परन्तु स्वयं ही रूढ़ियों और जीर्ण-शीर्ण परम्पराओं को ढोते हैं। जाने-अनजाने दूसरों पर भी उन्हें थोप देते हैं। नारी सशक्तीकरण की चर्चा आज हम जोर-शोर से करते हैं, परन्तु क्या अपने घर-परिवार की नारियों को समानता का दर्जा दे पाते हैं, शायद नहीं –

हमने लिखा-/ चिड़िया उड़ो तुम/ तोड़ पिंजरा/ नाप लो ये गगन/ छू लो क्षितिज/ पार न कर सके/ लेकिन हम/ अपना ही आँगन। --- (चोका, पृ- 62)

इस संग्रह के अधिकतर ताँका, सेदोका तथा चोका यादों की मधुरता तथा पावन प्रेम के दोनों पक्षों-संयोग व वियोग की विह्वलता से युक्त हैं। प्रेम का परिणाम सदैव प्राप्ति नहीं होता। क्षणिक मिलन भी जन्म-जन्मान्तर का प्रेम बन जाता है। कवि सदैव उस प्रिय के लिए मंगल कामना की है। अपने सारे सुख वे उसे ही समर्पित करना चाहते हैं -

कर दूँ तुम्हें/ मैं सुख समर्पित--- (ताँका, पृ- 17)

वे प्रेम में प्रतिदान नहीं चाहते हैं –

तुमसे कभी/ नेह का प्रतिदान/ माँगू तो टोक देना ----- (सेदोका, पृ- 36)

कवि प्रकृति प्रेमी है। प्रिय का सौन्दर्य उन्हें प्रकृति के सौन्दर्य की तरह लुभावना लगता है–

माथा तुम्हारा-/ मेघमाला से झाँके/ ज्यों चाँद का, टुकड़ा--- (सेदोका, पृ- 39)

संग्रह के अधिकतर चोका कवि के मन की भावुकता, टीस व पीड़ा को अभिव्यक्ति देने वाले हैं। अनेकानेक सेदोका, जिसमें उन्होंने प्रकृति के माध्यम से जीवन के सुख-दुःख को अभिव्यक्ति दी है, बहुत सुन्दर बन पड़े हैं। रामेश्वर काम्बोज जी के इस संग्रह की विधा त्रयी में प्रेम के विभिन्न रूप नजर आते हैं। कहीं अनुराग की छटा है, तो कहीं प्यार की फुहारें हैं, कहीं प्रिय का पथ बुहारने की लालसा है, तो कहीं मिलन की उत्कण्ठा, कहीं उनके दुःख लेकर अपने सुख देने का भाव है और कहीं प्रिय के रूप-सौन्दर्य का ऐसा इन्द्रजाल है, जो मन को मुग्ध कर लेने वाला है। इन सुकोमल भावों के साथ-साथ यत्र-तत्र जीवन के कटु अनुभवों व सत्यों को भी शब्द मिले हैं।

‘तीसरा पहर’ संग्रह निश्चय ही हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाला संग्रह है। सुन्दर कृति के लिए आपको अशेष बधाइयाँ।