भाषायी तल्ख़ जमीन / कौशलेन्द्र प्रपन्न
भाषा को माँ कहें तो कोई अचरज नहीं है। मातृवत् भाषा हमारे साथ ताउम्र रहती है। बल्कि कहना चाहिए जब तक इंसान रहेगा तबतक भाषा भी रहेगी। समाज भाषा के बगैर नहीं चल सकता। उसे भाषा का दरकार हमेशा ही रहेगा। यह अलग बात है कि वह भाषा बाज़ार और ज़रूरत के अनुसार अपनी काया परिवर्तन कर ले। तकनीकी भाषा के रूप में हो या संवाद के माध्यम के रूप में मगर भाषा तो रहेगी। भाषा की गोदी में हर बच्चा शिशुवत् पुश्पित फलित होता है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त भाषा से हमारा साबका पड़ता है। साहित्य, समाज और बच्चे के त्रिआयामी समीकरण को भी समझने की आवश्यकता है। क्योंकि भाषा हमारे सामने जिन रूपों में आती है उसके उस स्वरूप को भी दृष्टिपथ में रखना होगा। बोलचाल से लेकर लिखने-पढ़ने एवं सर्जन के माध्यम के तौर पर भाषा हमारा साथ निभाती है। भाषा है तो साहित्य है। साहित्य है तो पाठक होंगे और होंगे भाषा को बरतने वाले भी। ऐसा नहीं हो सकता कि भाषा है पर साहित्य नहीं व साहित्य है पर पाठक नहीं। भाषा, साहित्य, समाज और बच्चे जो आगे चल कर साहित्य सर्जन करते हैं व भाषा को जीवन में अंगीकृत करते हैं उन्हें दरकिनार कर के नहीं चल सकते। दुनिया की तमाम भाषाएं अपने समाज और संस्कृति की वाहक रही हैं। नदीवत् प्रवहमान रही भाषा अपने साथ समाज की परंपराएं, संस्कृतियां, रीति रिवाज आदि को अपने साथ लेकर चलती और अग्रसारित भी करती रही हैं। यह अगल विमर्श का विशय है कि वही भाषा आज हमारे पास से सरकती हुई हाशिए पर खड़ी है। भाषा की इस अवस्था के पीछे भाषा के इस्तेमाल करने वालों की मनसा, भावात्मक लगाव एवं वर्तमान की चुनौतियों के मद्दे नजर भाषा के अधुनातन स्वरूप को स्वीकारने के कारणों को भी समझना होगा। हमें यह भी उदारता के साथ स्वीकारना होगा कि वर्तमान समय की मांग के लिए क्या हमारी भाषा हमें तैयार करने में कोई भूमिका निभा रही है? यदि नहीं तो फिर भाषा के वृहत्तर लक्ष्य को हमें दुबारा से परिभाशित और रद्दो बदल करना होगा। बच्चों को भाषा क्यों पढ़ाई जाएं? कौन-सी भाषा पढ़ाई जाए? किस रूप में भाषा से बच्चों को रू ब रू कराया जाए आदि ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर हम वयस्कों को देना ही होगा। घर से शुरू हुई भाषा की यात्रा बच्चों को स्कूल, कॉलेज और फिर असल ज़िंदगी को कैसे प्रभावित करती है इसपर एक नजर डालना भी प्रासंगिक होगा।
शिक्षा, बच्चे और शिक्षक के इस अंतर्संबंध को और स्पश्टतौर पर समझे बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। शिक्षक कौन होता है? शिक्षक की भूमिका क्या होती है? और शिक्षक के अपने वे कौन से गुण व कौशल होते हैं जिनकी वजह से वह शिक्षक बनता है आदि बिंदुओं को समझते चलें। दरअसल शिक्षक बच्चों और समाज व दुनिया के मध्य वह व्याख्याकार की भूमिका निभाता है जो बच्चों को समाज में समायोजन बनाने और अपने सर्वांगीण विकास में शिक्षक की मदद लेकर एक सफल इंसान बनने तक का सफर तय करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षकों को इस तरह की भूमिकाओं से वंचित किया गया है। वह इस रूप मंे कि आज की तारीख में ही नहीं बल्कि औपनिवेशिक काल से ही उसे महज पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यचर्याओं को पूरा कराने वाला मजदूर भर बना दिया गया। शिक्षा के वृहद् उद्देश्यों पर गौर करें तो वह था बच्चे का सर्वांगीण विकास। इसमें आत्मिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक आदि था। श्री अरविंद ने अपनी पुस्तक लाइफ डिवाइन में लिखते हैं नथिंग कैन बि टौट। शिक्षक सिर्फ बच्चों का मददगार हो सकता है।
सवाल तो यह भी उठना स्वभाविक है कि शिक्षण कर्म में आने वाले कर्मियों की क्या अध्यापन प्रथम चुनाव था? क्या शिक्षक पढ़ने-पढ़ाने के कौशलों में दक्ष थे? यदि नहीं तो सरकारी स्तर पर किस प्रकार के कदम उठाए गए. माना जाता है कि बच्चों में पांच वर्श की आयु तक आते आते अपनी समझ और भाषायी कौशल के कुछ तत्व विकसित कर चुके होते हैं। वह समाज और परिवेश से कट कर नहीं रह सकता। इसलिए जब बच्चा स्कूल आता है तब उसके साथ भाषायी संस्कार भी साथ आते हैं। उसकी मातृभाषा उसके साथ होती है। शिक्षक उसी भाषा को परिश्कृत करता हुआ आगे का रास्ता तय करता है। जहां तक भाषा का सवाल है तो इस संबंध में शिक्षा नीति और कोठारी समिति भी संस्तुति देती हैं कि बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाया जाए. साथ ही त्रिभाषा सूत्र का प्रस्ताव भी पारित हुआ जिसमें कहा गया था। जे पी नायक अपनी किताब 'शिक्षा आयोग और उसके बाद' में शिक्षा समिति की उन सिफारिशों की ओर ध्यानाकृश्ट करते हैं 'प्रादेशिक भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने के लाभ को हम मानते हैं। हम देश की सामान्य प्रगति के लिए प्रादेशिक भाषाओं को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और यह भी मानते हैं कि शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन किसी को यह गलतफहमी न हो जाए कि अंग्रेजी या अन्य भाषा को देश में न आने दिया जाए. गांधी जी ने भी वर्धा सम्मेलन में शिक्षा के माध्यम और भाषा शिक्षण पर अपनी राय व्यक्त कर चुके थे। उनका मानना था कि शिक्षा का माध्यम बच्चों की मातृभाषा ही होनी चाहिए. साथ ही पुरानी त्रिभाषा सूत्र की वकालत गांधी जी ने भी की थी।
क्या इस बात से किसी को गुरेज हो सकता है कि टीचर बच्चों में जीवन के कौशल, तालीम और समझ विकसित करने की कोशिश करते हैं जिसके आधार पर बच्चा ताउम्र आगे बढ़ता है। क्या शिक्षक उस योग्य होता है कि वह बच्चे को कुछ सीखा सके? क्या उसकी खुद की ऐसी हैसियत होती है कि वह अपने कौशल को बच्चों में संचारित कर पाए. एक शिक्षक कक्षा एवं स्कूल में कितना स्वतंत्र होता है नवाचार के लिए आदि सवाल भी मौजूं हैं और अपेक्षित भी कि इस पर चर्चा की जाए. शिक्षकों की यह भूमिका कब और कैसे बदली कि वह सिर्फ पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यचर्याओं आदि का महज भाश्यकार हो गया इस पर जब हम विचार करते हैं तो इसकी जड़ हमें इतिहास में मिलती है। वह कालांश ध्यान आता जब शिक्षक शिक्षा के व्यापक चरित्र निमार्ण में अपनी राय देने व हिस्सेदारी से बेदखल कर दिए गए. जिन कारकों ने शिक्षक को एक कमजोर पेशागत पहचान और हैसियत बख्शी उनमें एक पाठ्यचर्या के मामले में उसका कोई हाथ न होना भी था। औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा लाए गए नौकरशाही में यह बात निहित थी कि पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों से संबंधित सारे फैसले वरिष्ठ प्रशासकों द्वारा लिए जाने थे।
अ से अनार और आ से आम से हटकर जब बच्चे अन्य वर्णों की पहचान और समझ विकसित कर लें तो समझना चाहिए वास्तव में हमने बच्चे को न केवल भाषा में बल्कि शिक्षा के मूल उद्देश्यों को हासिल करने में एक कदम आगे बढ़ाया है। लेकिन अफसोस की बात है कि आजादी के इतने सालों के बाद भी हमारे बच्चे महज स्कूलों में दाखिल तो हैं लेकिन उन्हें अपने स्तर की न तो भाषा की समझ है और न ही अन्य विशयों में गति। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चों ने स्कूल और सरकारी आंकड़ों में तो बढ़त हासिल की है लेकिन हकीकत यह है कि वे बच्चे कुछ अन्य कारणों से स्कूल में बने रहते हैं। आज यह जमीनी हकीकत सब के सामने है कि सरकारी आंकड़ों में नामांकन दर में कमाल का उछाल तो आया है लेकिन स्कूलों में प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। महज वर्णमालाएं याद करा देना न तो सबके लिए शिक्षा यानी एजूकेशन फोर ऑल, इएफए का लक्ष्य है और न ही हमारी सरकार के सर्व शिक्षा अभियान का। शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों में वर्णमालाएं एक चरण है उससे आगे समझ और शिक्षा के जुड़ाव पैदा करना भी लक्ष्य रहा है। लेकिन आज की तारीख में हमारा प्रयास बच्चों को वर्णमालाएं रटाने पर रहता है। यही वजह है कि बच्चे रटी हुई समाग्री को ही परीक्षाओं में उगल देते हैं। लेकिन जहां पढ़े हुए और समझे हुए ज्ञान का सहजीकरण व आत्मसात करने का प्रश्न आता है वहीं बच्चे पिछड़ जाते हैं। बच्चे फेल भी इसलिए ही होती हैं क्योंकि हमने उन्हें पाठ्यपुस्तक के पाठों को रटने में पारंगत किया है न कि उसकी समझ विकसित की है।
भाषा को सीखने के साथ दो बातें हो सकती हैं। पहला, जब हम अपनी मातृ भाषा से ऐतर कोई दूसरी भाषा सीखते हैं तब हमारी पहली भाषा सहायक तो होती है, लेकिन साथ ही संभावना इसकी भी बनती है कि वह दूसरी भाषा को सीखने में बाधा पैदा करे। ऐसे में अपनी पहली भाषा पर बंदिश लगानी पड़ती है। जब कोई गैर अंग्रेजी भाषी अंग्रेजी सीखता है उस दौरान वह अनुवाद का सहारा लेता है। पहले वाली भाषा में सोचना फिर उसे टारगेट भाषा में अनुवाद करता है। इस प्रक्रिया में वह पहली भाषा के व्याकरणिक परिपाटी से खासे प्रभावित होता है। जबकि हर भाषा की अपनी तमीज़ और व्याकरणिक पद्धति होती है। इसलिए टारगेट भाषा को सीखते वक्त स्वतंत्र रूप से उस भाषा को सीखना बेहतर होता है। दूसरा, जिस भाषा को हम अपनी माँ एवं परिवेश से बिना किसी अतिरिक्त श्रम के हासिल करते चलते हैं उसके साथ उपर्युक्त सिद्धांत नहीं चलते। क्योंकि मातृ भाषा को सीखने की प्रक्रिया में पहले हम बोलने, सुनने के गुर सीखते हैं। लिखने-पढ़ने के कौशल तो स्कूल व बड़े होने पर व्यवस्थित रूप से सीखते हैं। उपर्युक्त दोनों ही भाषाओं के सीखने में बुनियादी अंतर यह है कि दूसरी भाषा के साथ हमें ज़्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता। क्योंकि भाषा की बारिकियां हम व्यवहार से सीखते हैं। इसलिए लिंग, वचन, कर्ता, कर्म आदि व्याकरणिक स्तर हमें व्यवहार से आ जाती हैं। लेकिन यहाँ एक बड़ी गड़बड़ी यह होती है कि यदि उस भाषा व बोली में उच्चारण, लिंग आदि के प्रयोग में लोग गलतियां करते हों तो वही गलती हमारे संग हो लेती है। भाषा की इस तरह से बुनियादी गलतियां ताउम्र सालती हैं। भाषा सीखने की सत्ववादियों और परिवेशवादियों की मान्यताओं की मानें तो हर बच्चा भाषा सीखने की अपनी विशिश्ट क्षमता लेकर पैदा होता है, पर उसकी इस क्षमता के निर्धारण में उसकी वर्तमान जीवन की परिस्थितियों के साथ-साथ उसकी पीढ़ियों के भाषा संस्कार भी शामिल रहते हैं। भाषा सीखने की इस प्रक्रिया में प्रायः पीढ़ियों का समय लग जाता है, यह मामला पैसा उपलब्ध होने पर अमीर बस्ती में घर किराए पर लेने जैसा सहज नहीं है, क्योंकि इसके लिए अपना सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश भी बदलना पड़ता, जिसकी प्रक्रिया अपनी गति और मर्जी से चलती है।
भाषा को बरतने में जिस तरह की गलतियों की संभावना होती है वह व्याकरणिक होती हैं। जिसके तहत उच्चारण, हिज़्जे, विभिन्न वणों मसलन उश्ण वर्ण, महाप्राण वर्ण आदि के शब्दों को बोलते एवं लिखते वक्त जिस प्रकार की सावधानी की ज़रूरत होती है उसकी कमी साफ देखी जा सकती है। इसके लिए अध्यापक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। जब खुद अध्यापक की वर्तनी अशुद्ध होगी, उच्चारण में दीर्घ, लघु, 'आम बोल चाल में जिसे छोटी'इ'और बड़ी ई की मात्रा के नाम से पुकारते हैं' और अनुनासिक, अनुस्वार में अंतर नहीं कर पाते। जिनके उच्चारण में ड, ड़, र, ल, ऋ, ष्श, ष, और स में फ़र्क नहीं देख सकते। ऐसे में बच्चे मास्टर जी के लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बोलने पर हंसी उड़ाते हैं। बच्चों को शुद्ध उच्चारण की उम्मीद अपने घर में मां-बाप एवं अन्य सदस्यों से करना पड़ता है। यह एक अलग विमर्श का मुद्दा है कि भाषा की शुद्धता, मानकता भाषा के लिए कितना ज़रूरी है। इस बाबत आम धारणा यह बनी हुई है कि यदि बोलने वाले की बात, भाव समझ में आ गए फिर उसने ग़लत उच्चारण किया या लिंग दोश से मुक्त था या नहीं यह ज़्यादा मायने नहीं रखता। भाषा का मकसद यही है कि वह बोलने वाले को अपने विचार, भावनाओं को प्रकट करने में मददगार हो। लेकिन भाषा की शुद्धता को लेकर भी तर्क दिए जाते रहे हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। भाषा की शुद्धता अशुद्धता के इन तर्कों से परे यदि विचार कर सकें तो वह यह हो सकता है कि भाषा में वैविध्यता एवं विभिन्न बोलियों, उपबोलियों की छटाएं तो हों लेकिन साथ ही यदि भाषा को एक मानकीकृत रूप नहीं देंगे तो ऐसे में एक दूसरी समस्या भी समानांतर खड़ी हो सकती हैं। वह समस्या लेखन से लेकर उच्चारण एवं पठ्न- पाठन में अर्थ की दृष्टि से उलझने पैदा करेंगी।